बैंकों की गैरनिष्पादित निधि यानी एनपीए बैंकिंग क्षेत्र के लिए चिंता की वजह बना हुआ है. यह चिंता स्वाभाविक है. रिजर्व बैंक की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट के अनुसार, 2015-16 के दौरान सरकारी बैंकों का एनपीए 9.92 फीसदी तक पहुंच गया है जो वित्त वर्ष 2014-15 के दौरान 5.43 फीसदी था. रिपोर्ट में कहा गया है कि सार्वजनिक बैंकों में एनपीए रोकने के लिए ठोस पहल नहीं की गई तो चालू वित्त वर्ष के अंत तक एनपीए 10 प्रतिशत की सीमा से पार निकल सकता है. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने संसद के मानसून सत्र में राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में कहा था कि छोटे कर्ज के कारण बैंकों का एनपीए बहुत प्रभावित नहीं होता. यह सही है कि घर बनाने अथवा अपनी छोटी जरूरत को पूरा करने के लिए जो व्यक्ति बैंक से ऋण लेता है उस की कोशिश उस ऋण से जल्द मुक्ति पाने की होती है. बहुत विपरीत परिस्थिति में ही जनसामान्य बैंक का कर्ज चुकाने में कोताही बरतता है.

बैंक का एनपीए बड़े कारोबारी और उद्योगपतियों को दिए जाने वाले कर्ज के कारण बढ़ता है. इस का सब से ताजा उदाहरण शराब कारोबारी विजय माल्या है जो बैंकों से करीब 10 हजार करोड़ रुपए ले कर फरार हो गया है. इस तरह के असंख्य भगोड़े हैं जो बैंकों से मोटा ऋण ले कर फरार हैं. ऋण लेने की प्रक्रिया जनसामान्य के लिए कठोर है. सामान्य व्यक्ति महज 2-4 लाख रुपए का कर्ज बैंक से लेता है तो उस की वसूली के लिए बैंक अपने स्तर पर पुख्ता इंतजाम करते हैं. बड़े कर्जदारों को बैंक किस आधार पर इतना कर्ज देते हैं, इस की भी जांच होनी चाहिए. बैंक अधिकारी ईमानदारी से मोटा कर्ज देने को मंजूरी तब तक नहीं दे सकते जब तक उन्हें वसूली सुनिश्चित नहीं लगे. करोड़ों रुपए का ऋण विजय माल्या जैसे व्यक्ति को बैंक पारदर्शी तरीके से नहीं दे सकते. बड़ी बात यह है कि इस तरह की असंख्य मछलियां खुले में तैर रही हैं. जाल में फंसी बड़ी मछली अब बैंक ऋण प्रक्रिया की पारदर्शिता पर सवाल उठा रही है.

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