सरकारी क्षेत्र की सार्वजनिक कंपनियां लाभ वाले क्षेत्र को भी घाटे में ही चलाती हैं. सरकार की व्यवस्था ही ऐसी है कि उसे अपने कमाऊ संस्थानों से लाभ देने की उम्मीद भी कम ही रहती है. दिल्ली परिवहन निगम हमेशा घाटे में चलता है जबकि कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली की खूनी बसें नाम से कुख्यात रही निजी बसों के मालिकों ने बोरे भर कर उन्हीं सड़कों पर रुपए समेटे हैं.
निजी क्षेत्र के होटल जम कर कमाई कर रहे हैं और लगातार अपना विस्तार करने में लगे हैं जबकि कमाऊ क्षेत्र में सेंध लगाने के मकसद से बने सार्वजनिक क्षेत्र के भारतीय होटल निगम यानी एचसीआई लगातार घाटे में चल रहा है, इस के सभी होटल नुकसान में चल रहे हैं.
मोटी तनख्वाह देने वाला यह निगम अच्छी सेवा मुहैया कराने में असफल रहने के कारण सफेद हाथी बना हुआ है. सरकारी बाबुओं और नेताओं की ऐशगाह बने एचसीआई के होटल अब बहुत कम हैं और जो हैं भी उन्हें बंद किया जा रहा है. यही निगम दिल्ली और श्रीनगर में संतूर होटल चलाता है लेकिन दोनों होटलों में घाटा बढ़ा तो सरकार ने इस के प्रबंधन को निजी हाथों में देने का फैसला कर लिया.
दोनों होटल लीज की जमीन पर चल रहे हैं और लाभ देने वाली मुरगियां हैं लेकिन सरकारी कर्मचारियों के निकम्मेपन के कारण दोनों होटलों पर ताला जड़ कर निजी हाथों में सौंपने की खबर सब के लिए कष्टदायी है.
सरकारी क्षेत्र के दिल्ली और मुंबई में ‘सेफ एअर’ नाम से 2 फ्लाइट किचन हैं लेकिन दोनों 1 दशक से अधिक समय से घाटे में हैं. सवाल है कि सरकारी क्षेत्र की कंपनियां फेल क्यों हो जाती हैं? जबकि वही प्रोजैक्ट निजी हाथों में जाते ही सोने के अंडे देने वाली मुरगी साबित होते हैं.
ऐसे उद्योगों में दरअसल, पिछले दरवाजे से बड़े सरकारी हाकिमों और नेताओं तक थैलियां पहुंचती हैं. इसीलिए सरकारी कंपनियों के उच्च अधिकारी मनमरजी से संस्थानों को चलाते हैं. इस में मरता, पिसता छोटा कर्मचारी है. दबता आम आदमी है जिसे कुचल कर हमारे नेता और अफसर अपनी आर्थिक तरक्की के रास्ते निकालते हैं.