पहाड़ के गांव में पहले मोटा अनाज मंड़ुआ, सांवा आदि की पर्याप्त खेती होती थी. कारण, इस मोटे अनाज के लिए सिंचित जमीन की जरूरत नहीं थी. लेकिन खाने में यह ज्यादा स्वादिष्ठ नहीं था तो मां से हमेशा मंड़ुआ की रोटी की जगह गेहूं की रोटी और सांवा की जगह चावल की मांग रहती थी. तब पिताजी कहते थे कि पहाड़ पर तेजी से चढ़ना है और हट्टाकट्टा बना रहना है तो रोज मंड़ुवे की 2 रोटी खाओ.

हाल ही में सरकार ने 2018 को मोटा अनाज का वर्ष घोषित किया है. सरकार का मानना है कि ज्वार तथा बाजरा जैसे मोटे अनाजों में भरपूर पोषण तत्त्व होते हैं और देश के नागरिकों के स्वस्थ पोषण के लिए इन अनाजों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. सरकार स्कूलों में मध्याह्न भोजन में भी मोटे अनाज का इस्तेमाल करेगी ताकि बच्चों को अच्छा पोषण मिल सके.

मोटा अनाज स्वास्थ्य के लिए अत्यधिक उपयोगी है और उस का इस्तेमाल बताया जाना चाहिए. यही स्थिति जौ जैसे अनाज की भी है. पूरे देश में इन अनाजों की बहुत कमी है. इस का बड़ा कारण यह है कि मोटे अनाज की मांग नहीं है. इसलिए इन की खेती नहीं की जा रही है.

मोटे अनाज का रकबा लगातार घट रहा है. खुद कृषि मंत्री राधामोहन सिंह का कहना है कि 2016-17 में मोटे अनाज का रकबा 47.2 लाख हैक्टेयर रहा जो 1965-66 में 3 करोड़ 69 लाख हैक्टेयर था.

देश में मोटे अनाज को बढ़ावा देने के लिए सरकार प्रोत्साहन योजना शुरू करेगी. इस के साथ ही इसे मध्याह्न भोजन में शामिल किया जा रहा है. मोटा अनाज कम मेहनत से तैयार होने वाली फसल है. इस में मेहनत कम है और यह आसानी से पैदा होता है इसलिए इस का महत्त्व कम आंका जा रहा है.

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