Writer-  रोहित

मुंबई के कट्टरपंथी और पुरातनी सिनेमा निर्माता तो सामाजिक चुनौतियों को लेने को तैयार नहीं हैं पर डबिंग के सहारे दक्षिण के निर्माता पिछड़ों व दलितों के इर्दगिर्द बनने वाली फिल्मों को 1970 के दशक के बाद एक बार फिर हिंदी परदे पर ला रहे हैं.

दौर था 70 के दशक का. देश में भारी उथलपुथल की स्थिति थी. लोगों में सरकार के कामकाज को ले कर निराशा थी. एक तरफ कम्युनिस्टों के प्रभाव में शहरों में मजदूर आंदोलन जोर पकड़ रहे थे, दूसरी तरफ कांग्रेस शासित सरकार के विरोधी खेमे लामबंद हो रहे थे.

यह वह समय भी था जब देश के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना की आसमान छूती ऊंचाई का फिल्मी ग्राफ नीचे की तरफ गिर रहा था और सामानांतर रूप से अमिताभ बच्चन का फिल्मी ग्राफ तेजी से ऊपर बढ़ रहा था, क्योंकि उस समय नायक का सौफ्ट रोमांटिक होना काफी नहीं था, बल्कि प्रतिशोध लेना और विद्रोही स्वभाव होना पहली मांग थी. नायक कमजोर तबके का रिप्रैजेंटेशन करे और ताकतवर लोगों से न डरे, यह फिल्म की मूल मांग थी. यही कारण था कि 1972 में आई फिल्म ‘जंजीर’ ने अमिताभ बच्चन को एंग्री यंग मैन का टैग दिलवाया.

अमिताभ की कई फिल्में आईं जिन में नायक निचले तबके से था और फिल्म आम पब्लिक को अपील कर रही थी, उन से जुड़ी थी. ‘दीवार’, ‘नसीब’, ‘काला पत्थर’, ‘लावारिस’, ‘शोले’, ‘मुकद्दर का सिकंदर’, ‘कुली’ जैसी कई फिल्में आईं. इन फिल्मों में अमिताभ बच्चन के एंग्री यंग मैन के कैरेक्टराइजेशन में दर्शकों के गुस्से व हताशा की आवाज थी, मानो निचले, पिछड़े, गरीब, मजदूरों के मनोभावों को डायलौग के रूप में अमिताभ बच्चन के मुंह से कहलवा दिया गया हो. यानी फिल्म देखते हुए दर्शक वह भाव महसूस कर रहे थे जो वे असल जीवन में कभी नहीं कर पाए हों, लेकिन करने की तीव्र उत्तेजना हो.

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