छोटे शहर की मानसिकता और वहां की स्थानीय भाषा के पुट के साथ फिल्मकार सचिन गुप्ता ने एक हास्य फिल्म बनाने का असफल प्रयास किया है. कमजोर पटकथा के चलते एक जानी पहचानी कहानी भी असर नही छोड़ती.

हास्य फिल्म ‘‘मनसुख चतुर्वेदी की आत्मकथा’’ की कहानी  उत्तर प्रदेश के इटावा शहर की है. जहां एक पंडित (सिकंदर खान) के घर जन्में मनसुख चतुर्वेदी (संदीप सिंह) अपने आपको सिनेमा जगत का सुपर स्टार समझते हैं. वह अब तक मुंबई यानी कि बौलीवुड पहुंचे भी नहीं हैं, मगर ईटावा वालों के बीच वह काफी लोकप्रिय हैं. वह वहां स्थानीय थिएटर के साथ जुड़े हुए हैं. उनकी हरकतों से उनके पिता (सिकंदर खान) भी परेशान रहते हैं.

मनसुख मुंबई जाना चाहते हैं, जबकि उनके पिता चाहते हैं कि वह इटावा में रहकर उनका हाथ बटाएं. यहां तक कि मनसुख चतुर्वेदी अपनी प्रेमिका मुनिया पर भी ध्यान नहीं देते. मुनिया (मोनिका) के लिए मनसुख बेकार प्रेमी ही साबित हो रहे हैं. मुनिया एक स्कूल में शिक्षक है और गणित पढ़ाती है. पर मनसुख तो बौलीवुड के सुपर स्टार बनने के सपनों में ही जी रहे हैं.

एक दिन मनसुख के पिता मुनिया को धमकी दे देते हैं कि यदि वह 15 दिन के अंदर मनसुख को सुधारने में सफल नहीं हुई, तो वह मनसुख का विवाह जबरन अपनी पसंद की लड़की से करा देंगे. उसके बाद मुनिया, मनसुख की भगवान कृष्ण के प्रति भक्ति का फायदा उठाते हुए उन्हे सही व गलत का अहसास कराने में सफल हो जाती है.

लेखक व निर्देशक की अपनी कमजोरियों के चलते फिल्म स्तरहीन बनकर रह जाती है. फिल्म की कहानी का आइडिया अच्छा है, मगर पटकथा गड़बड़ा गई. सचिन गुप्ता का निर्देशन भी ठीक नहीं है. फिल्म में तमाम तकनीकी कमियां हैं.

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