इस वर्ष ‘सर्वश्रेष्ठ लद्दाखी फिल्म’, ‘सर्वश्रेष्ठ साउंड डिजाइनिंग’ और ‘सर्वश्रेष्ठ रीमिक्सिंग’इन तीन पुरस्कारों से पुरस्कृत फिल्म ‘‘वाकिंग विथ द विंड’’के लेखक, निर्माता व निर्देशक प्रवीण मोरछले की यह दूसरी फिल्म है. इससे पहले उन्होंने पूरे विश्व में सराही जा चुकी हिंदी फिल्म‘‘बेयरफुट टू गोवा’’का निर्माण किया था. प्रवीण मोरछले उन फिल्मकारों में से हैं, जो कि ईरानियन फिल्मकार स्व.अब्बोस कियरोस्तामी और माजिद मजीदी से प्रेरित होकर यथार्थ परक सिनेमा बनाने में यकीन करते हैं. ईरानियन फिल्मकारों की ही भांति प्रवीण मोरछले की दोनों फिल्मों के नायक बच्चे हैं और उनकी दोनों ही फिल्मों में कम से कम संवाद हैं.
प्रस्तुत है प्रवीण मोरछले से उनके घर पर हुई एक्सक्लूसिव बातचीत के अंश:
अपनी अब तक की यात्रा पर रोशनी डालेंगे?
मैं मूलतः होशंगाबाद से हूं. कालेज की पढ़ाई इंदौर में और गुजरात के आनंद से एमबीए की डिग्री ली. मेरे पिता डाक्टर थे. कालेज के दिनों से मुझे कहानी सुनाने का शौक था. इसी शौक के चलते मैं थिएटर से जुड़ा. थिएटर करते करते मुझे अहसास हुआ कि यह बहुत ही ज्यादा लाउड मीडियम है. जबकि मेरे कथा कथन की शैली बहुत ही सटल है. मैं बहुत शांति से, आराम से काम करना पसंद करता हूं. इसलिए मैं सिनेमा की तरफ मुड़ा. मुंबई पहुंचने के बाद मैंने महसूस किया कि जिस तरह का सिनेमा मैं बनाना चाहता हूं, उस तरह का सिनेमा बनाना आसान नहीं है. क्योंकि बौलीवुड में जिस तरह का कमर्शियल सेटअप में काम हो रहा था, वह मेरे वश की बात नहीं थी. किसी तरह मैंने पैसे इकट्ठा करके पहली फिल्म ‘‘बेयर फुट टू गोवा’’बनायी. मैंने फिल्म मेंकिंग की कोई ट्रेनिंग भी नहीं ली है. मैं खुद को ट्रेंड फिल्म मेकर नहीं मानता. मैं अपने परिवार का पहला इंसान हूं,जो सिनेमा से जुड़ा है.
यानी कि आपने डाक्टर बनने के बारे में कभी नहीं सोचा?
मैंने शुरू से सोच रखा था कि मुझे डाक्टर या इंजीनियर नहीं बनना है. क्योंकि नौकरी करना मेरे टेम्परामेंट में नही है. मैंने बहुत छोटी उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था. इंदौर के कुछ अखबारों में भी लिखा करता था. थिएटर करते हुए मुझे लगा कि इस दिशा में मैं कुछ कर सकता हूं. कुछ भी गलत होते देख मुझे गुस्सा आ जाता है. एक दिन मुझे लगा कि हमारे आस पास, हमारे देश में जो कुछ हो रहा है, जिस तरह की परिस्थितियां हैं, उस पर मुझे कुछ कहना चाहिए. सिनेमा ही ऐसा माध्यम है, जहां हम अपनी बात को सशक्त तरीके से कह सकते हैं. मैंने कई एनजीओ व क्राई सहित कई संगठनों के लिए डाक्यूमेंटरी व छोटी छोटी फिल्में बनायी हैं. मैंने जिनके लिए भी फिल्में बनायीं, वह परोक्ष या अपरोक्ष रूप से गांव या लोगों के साथ जुड़े हुए संगठन रहे. मेरी पहली फीचर फिल्म‘‘बेयर फुट टू गोवा’थी, जिसे कई पुरस्कार मिले थे. अब मेरी दूसरी लद्दाखी भाषा की फिल्म‘‘वाकिंग विथ द विंड’’को तीन राष्ट्रीय पुरस्कार मिले हैं.
पहली फिल्म‘‘बेयर फुट टू गोवा’’को लेकर क्या कहेंगे?
यह एक इमोशनल फिल्म है. यह दो छोटे बच्चों की कहानी है, जो कि नंगे पैर अपनी दादी को लेने गोवा जाते हैं. क्योंकि उनके माता पिता उनकी दादी का ध्यान नहीं रखते हैं. बहुत ही समसामायिक कहानी है. सिर्फ मुंबई जैसे महानगरों में ही नहीं, छोटे शहरों में भी आज की युवा पीढ़ी अपने मां बाप को निगलेट कर रही है. पूरी फिल्म बच्चों के नजरिए से बनायी थी. यह कई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में दिखायी व जबरदस्त सराही गयी. आस्ट्रेलिया, हालैंड, जर्मनी, हैदराबाद सहित 20 – 25 देशों के फेस्टिवल में गयी होगी. मगर इस फिल्म को सिनेमाघरो में रिलीज करना बहुत कठिन रहा. भारत में वैसे भी फिल्म बना लेना आसान है, पर उसे रिलीज करना कठिन. इसके लिए हमें क्राउड फंडिंग से पैसे जुटाने पड़े. 28 देशों के 250 से अधिक लोगों ने पैसे दिए थे, जिन लोगों ने क्राउड फंडिंग में पैसे दिए थे, उन्हें मैंने बाद में वापस कर दिए. भारत की यह पहली फिल्म थी, जो कि कमर्शियली जनता के पैसों से रिलीज हुई थी.
‘बेयर फुट टू गोवा’ की कहानी की प्रेरणा कहां से मिली थी?
यह मेरे आब्जर्वेशन का परिणाम था. मैं अपने आसपास जो कुछ देखता हूं, उसी में कहानी ढूंढ़ लेता हूं. मैं बता दूं कि मैं सिनेमा बहुत कम देखता हूं. सिनेमा नहीं देखते हैं, तो सिनेमा के लिए प्रेरणा कहां से मिलेगी? इसके लिए कुछ तो सोर्स होना चाहिए? तो मेरे लिए सबसे अच्छा सोर्स लोगों को आब्जर्व करना है. आस पास जो चीजें घटित होती हैं, उनसे मैं उद्वेलित होता हूं. इसलिए मैं अपनी फिल्में वास्तविक लोकेशनों पर जाकर ही फिल्माता हूं. आप जानकर हैरान होंगे कि गोवा में कई गांव ऐसे हैं, जहां लोग रह ही नहीं रहे हैं. पूरे गांव में सिर्फ 2-4 बुजुर्ग रहते हैं. मैंने जिस गांव में शूटिंग की, उस गांव में 80 मकान हैं और हर घर में ताला लगा हुआ है. सिर्फ 5 घर ऐेसे हैं, जिनमें 80 वर्ष से अधिक उम्र के बुजुर्ग रहते हैं. तो मैंने वहीं पर जाकर फिल्म की शूटिंग भी की. मेरा मानना है कि फिल्म में, जहां पर आप फिल्म बनाते हैं, वह जगह किरदार के रूप में आनी चाहिए.
आपकी दूसरी फिल्म‘‘वाकिंग विथ द विंड’’क्या है?
यह भी एक स्कूली बच्चे की कहानी है. यह कहानी है लद्दाख के एक गांव में रहने वाले दस वर्षीय बालक की जो कि हर दिन 12 किलोमीटर की यात्रा कर स्कूल पढ़ने जाता है. एक दिन उसके हाथ से उसके सह पाठी की कुर्सी टूट जाती है. बालक को अपनी गलती का अहसास होता है. वह अपने माता पिता सहित हर किसी से छिपाकर चुपचाप अपनी गलती को सुधारने के लिए उस कुर्सी को बनवाने का प्रयास करता है. उसकी इस यात्रा के साथ ही सामाजिक व राजनैतिक स्थितियों का भी चित्रण है. इस फिल्म में दर्शन शास्त्र/फिलौसफी ज्यादा है.
फिल्म की कहानी का बीज कहां से मिला?
यह मेरे आब्जर्वेशन का परिणाम है. मैं जिस समाज में घूमता रहता हूं, वहां कुछ न कुछ मिल ही जाता है. मैं अपने आस पास की परिस्थितियों से परेशान होता हूं और वही सब कुछ मेरी फिल्म का हिस्सा होता है.
आप खुद हिंदी भाषी हैं. आपने पहली फिल्म हिंदी में बनायी. तो फिर दूसरी फिल्म‘‘वाकिंग विद द विंड’’को लद्दाखी भाषा में बनाने की वजह?
यह आपने एक रोचक सवाल पूछा. देखिए, इस फिल्म की कहानी भी एक छोटे बच्चे की है. मेरी फिल्म साधारण होती है, जिस परिवेश की फिल्म होती है, वहीं जाकर फिल्माता हूं, वहीं के लोग फिल्म में अभिनय करते हैं. और वह एक उम्दा फिल्म बनकर उभरती है. मैंने फिल्म को लद्दाखी भाषा में फिल्माने का निर्णय लिया. क्योंकि मुझे लगा कि फिल्म हिंदी की बजाय उनकी भाषा में बनायी जाए. हिंदी में नकली लगेगी. इसलिए मैंने इस फिल्म को लद्दाखी भाषा में बनाया. फिल्म में मैंने उनके रहन सहन, खानपान आदि को एकदम रियल ढंग से पेश किया है. मैने अपनी इस फिल्म को लेह के नजदीक के एक गांव में फिल्माया है. ‘वाकिंग विथ द विंड’के लिए मैने जिस गांव को चुना, उस गांव में सिर्फ 15 घर हैं और 30 लोग रहते हैं. मेरी फिल्म में कोई कलाकार नहीं है. सभी लद्दाख के गांव के ही लोग हैं, जिन्होंने अभिनय किया है. फिल्म का बाल कलाकार भी लद्दाख के गांव का है. एक अंधे का किरदार है, जिसे गांव के ही उस इंसान ने निभाया है, जिसे दिखता नहीं है. कवि वास्तविक हैं. कारपेंटर वही है, जो वहां पर कारपेंटर का काम करते हैं. टूरिस्ट गाइड के किरदार के लिए मैने टूरिस्ट गाइड को चुना. इससे फिल्म में अपने आप बहुत ज्यादा विश्वसनीयता आ जाती है. मेरी फिल्म में किसी ने भी अभिनय नहीं किया है, जो जैसा है, वैसा ही अपने आपको प्रस्तुत किया है. अभिनय करने पर तो बनावटीपन आ जाता है.
आप लद्दाख कब गए थे?
जब मेरे दिमाग में यह कहानी आयी, तो मैं अचानक दिसंबर 2015 में लद्दाख चला गया. उस वक्त वहां माइनस 15 डिग्री का तापमान था. मैं आठ दिन वहां रूका, तो वहां मुझे यह गांव मिल गया, जहां हमने फिल्म की शूटिंग की है. फिर अप्रैल 2016 में मैं दुबारा गया. वहां मैं लोगों के साथ रहा. लोगों से बातचीत की. मैं जिस घर में रहा, उस घर में भी मैंने शूटिंग की. तो जब मैं लोगों से मिला, लोगों की जीवन शैली को समझा. उसके बाद मैंने खुलकर पटकथा लिखी. फिर 2017 में हमने फिल्म की शूटिंग की पूरी फिल्म 18 दिन में फिल्मायी.
लद्दाख में आपने वहां के निवासियों से काफी बात की होगी. लद्दाख के लोग भारत के बारे में क्या सोचते हैं? यह आपकी समझ में आया होगा?
वह अपने देश को लेकर बहुत गंभीरता से सोचते हैं. वह बहुत देशभक्त हैं. आपको पता होना चाहिए कि हमारी सेना में पूरी लद्दाखी रेजीमेंट है. मगर उन्हें सुविधाएं बहुत कम मिल रही हैं. सड़के नहीं है. बिजली व पानी की भी समस्या है. पर वहां जो हालात हैं, जैसी परिस्थितियां हैं, उसमें सड़क पानी वगैरह मोहैय्या कराना भी बहुत दुष्कर काम है. इसके बावजूद मुझे सबसे ज्यादा खुश लद्दाखी नजर आए. ईमानदार व मददगार हैं. उन्हें किसी से कोई शिकायत नही है. दिन हो या रात आप कहीं भी स्वतंत्र होकर घूम सकते हैं. उन्हें सिनेमा से कोई मतलब नहीं होता. वहां सिनेमा घर भी नहीं है. लद्दाखी अपने जीवन से जुड़े रहते हैं, काम करते हैं. बौलीवुड के फिल्मकार अपनी फिल्मों का गाना फिल्माने के लिए लद्दाख जाते हैं अथवा वहां की कमर्शियल खूबसूरती दिखाने के लिए लद्दाख में शूटिंग करते हैं. जबकि मैंने लद्दाख को उसकी खूबसूरती के तौर पर नहीं, बल्कि एक किरदार की तरह लिया है. मेरे लिए लद्दाख पर्यटन स्थल कभी नहीं रहा. हमारी फिल्म तो पहाड़ों के बीच पनपी खूबसूरत आत्मिक फिल्म है.
पूरे लद्दाख में एक भी सिनेमाघर नहीं है, सिर्फ लेह में परदा लगाकर फिल्में दिखायी जाती हैं. पर अब लोग वीडियो पर या आन लाइन फिल्में देखते रहते हैं.
मेरी फिल्म में लड़के के पिता का किरदार निभाने वाले कलाकार फुंनचोक तोल्डन ने फिल्म ‘शोले’ को लद्दाखी भाषा में बनाते हुए उसे नाम दिया है- ‘लद्दाखी शोले.’ फिल्म में घोड़े की गधे और ट्रेन की जगह टैम्पो का उपयोग किया है. पूरी फिल्म शोले की ही कहानी है, पर यह एक फनी फिल्म है. वह अपनी इस फिल्म को गांव गांव ले जाते हैं और परदे पर 5 रूपए लेकर दिखाते हैं. यह उनका सिनेमा के प्रति कमिटमेंट है. उनका कमिटमेंट सिनेमा बनाने और उसे लोगों तक पहुंचाने के प्रति हैं. तो लद्दाखी फिल्में बनती रहती हैं.
आपकी फिल्म में किस तरह के दर्शन शास्त्र की बात है?
हमारी फिल्म हर इंसान को अपने अंदर की यात्रा करने की बात करती है. यह तभी संभव होता है, जब इंसान जागरूक हो. हमारी फिल्म ‘‘वाकिंग विथ द विंड’’ में बच्चा गलती करता है, पर वह किसी को यह बात नहीं बताता. खुद अपनी गलती का अहसास कर चुपचाप उस गलती को सुधारने का प्रयास करता है. वह अपना यह काम बिना किसी शोर शराबे के करता है. जबकि उसे अपने माता पिता की डांट भी खानी पड़ती है. पर वह चुप रहता है, वह किसी को वजह नहीं बताता है कि वह क्या कर रहा है, क्यों कर रहा है?
आपने दोनों फिल्में बच्चों को केंद्र में रखकर बनायी, जिसमें बाल मनोविज्ञान की अहम भूमिका रही है. आपको बाल मनोविज्ञान की समझ कहां से आयी?
बच्चे सच्चे मन के होते हैं. उनकी भावनाएं उनकी सोच सही होती है. दिल से पवित्र होते हैं, जब वह किसी कला से परफार्म करते हैं. तो उसमें सच्चायी होती है. कहीं कोई मैन्यूप्युलेशन नहीं होता. उन पर कभी किसी दूसरी चीज का प्रभाव नहीं होता. जब बच्चे अपने नजरिए से किसी बात को पेश करते हैं, तो उसमें हमें पूरी सच्चाई नजर आती है. हमारी दोनों फिल्मों का विषय बहुत रियल बहुत सच्चा और बहुत ताकतवर है. जब हम इस कहानी को बच्चों के नजरिए से देखते हैं, तो ही वह हमें ताकतवर नजर आती है. मेरी हर फिल्म में बच्चों की भूमिका अहम रहेगी. बच्चों में अभिव्यक्ति की जो नैसर्गिक ताकत है. वह किसी बड़े कलाकार में नहीं हो सकती है. जब हम किसी बड़े कलाकार को फिल्म के किसी किरदार में लेते हैं, तो वह अभिनय करने की कोशिश करते हैं. जबकि बच्चे अभिनय करने की कोशिश नहीं करते हैं, बल्कि वह जो कुछ अंदर से अहसास करते हैं, वही परदे पर पेश करते हैं. बच्चे कभी भी इन चीजों पर ध्यान नहीं देते कि कैमरे के किस एंगल से वह खूबसूरत लगेंगे?
आपको किस तरह का सिनेमा पसंद है?
मैंने पहले ही कहा कि मैं सिनेमा बहुत कम देखता हूं. एक साल में 4 फिल्में देखना मेरे लिए बहुत बड़ी बात होती है. बौलीवुड की कमर्शियल फिल्में तो कभी नहीं देखता. मेरी सोच के अनुसार यदि आप सिनेमा बनाना चाहते हैं, तो आप ज्यादा से ज्यादा यात्राएं करें. ज्यादा से ज्यादा लोगों से मिले. उनके जीवन, उनकी सोच, उनकी समस्याओं को सुने व समझें. यह सोच गलत है कि आप सिनेमा देखकर तकनीक सीख सकते हैं या सिनेमा देखकर ही फिल्म बना सकते हैं. ज्यादा सिनेमा देखने से आप अपने अंदर की मौलिकता खो देते हैं. आपके अपने कथा कथन की जो शैली है, वह आप भूल जाते हैं. अभिव्यक्ति के लिए हर इंसान का अपना अलग तरीका होता है.
सिनेमा की जो स्थितियां हैं, उसको लेकर क्या सोचते हैं?
इसके लिए हमें सिनेमा और फिल्म में अंतर करके देखना होगा. हकीकत यह है कि अब हमारे देश में सिनेमा नहीं रहा. बल्कि सिर्फ मनोरंजन के लिए फिल्में बनायी जा रही हैं. जो चीज मनोरंजन के लिए बनती हैं, वह कौमोडिटी की तरह बनती हैं. आज के फिल्मकार की सोच यह है कि किसी तरह दर्शक को सिनेमा घर के अंदर खीचो. उससे 200 से 500 रूपए तक वसूल करो. फिर घोषित करो कि हमने कितना कमा लिया. अब सिनेमा सिर्फ बिजनेस माडल हो गया है. यह मैन्युप्युलेशन है. मैन्युप्युपुलेट करना बहुत आसान होता है. क्योंकि उसमें आप गाना डालते हैं या कुछ और चीजें जोड़ते हैं. फिर पूरी फार्मूला फिल्म बनती है. इस तरह फिल्म को मैं सिनेमा नहीं मानता. हां! कुछ लोगों की राय में हमारी फिल्म को दर्शक नहीं मिल सकते. क्योंकि लोग वास्तविकता नही देखना चाहते. पर यह हालात इसलिए हैं, क्योंकि फिल्मकार वास्तविकता दर्शाने वाली फिल्म दर्शकों को दिखाना ही नहीं चाहते हैं. यह कहना गलत है कि सिनेमा दर्शकों की मांग पर बनता है. यदि हम दर्शकों को यथार्थप्रद सही सिनेमा दिखाएंगे, तो उन्हें उस तरह का सिनेमा देखने की आदत पड़ेगी.
फिल्म‘‘वाकिंग विथ द विंड’’को तीन राष्ट्रीय पुरस्कार मिल गए?
-जी हां! राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने से पहले हमारी फिल्म पांच बड़े इंटरनेशनल फेस्टिवल में सराही गयी. हमारी फिल्म के बारे में हर जगह अलग अलग ढंग से लिखा गया. फ्रांस के कुछ अखबारों ने हमारी फिल्म को किस तरह ने दर्शनशास्त्र से बनाया गया है, इस पर लंबा चौड़ा लेख छापा. पिछले 25 वर्षो में भारत की यह पहली फिल्म है, जो कि पोलैंड के फिल्म फेस्टिवल में कौपटीशन सेक्शन में गयी. मुझे उस वक्त बहुत गर्व कि अनुभूति हुई थी कि हमारे भारत कि फिल्म प्रतियोगिताका हिस्सा बनी हैं. दस दिन पहले हम लोग स्विटजरलैंड के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल से वापस आए हैं. हमारी फिल्म अभी कुछ अन्य विदेशी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में जाने वाली हैं. कुछ जगह से प्रतियोगी खंड में बुलाया गया है. पर दुःख की बात है कि हमारे अपने देश भारत के कुछ फिल्म फेस्टिवल ने हमारी फिल्म को अस्वीकृत कर दिया. उन्हें इस तरह की फिल्मों में कोई रूचि नही है. उन्हें एक अलग तरह का अर्थपूर्ण सिनेमा कहने का मतलब ही समझ में नहीं आया. इन भारतीय फिल्म फेस्टिवल के आयोजकों को समझना होगा कि दर्शकों को फेस्टिवल में लगाकर उन्हें टिकट बेच कर कमाई करने के अतिरिक्त ऐसी फिल्में भी दिखायी जानी चाहिए, जो कि अर्थपूर्ण हो और कुछ बात कहती हों. मुझे लगता था कि हमारी फिल्म‘‘वाकिंग विथ द विंड’’को केरला, चेन्नई, बंगलोर कोलकाता के फिल्म फेस्टिवल में जरुर शामिल किया जाएगा, पर ऐसा नहीं हुआ.
आपने राष्ट्रीय फिल्म समारोह पुरस्कार का बहिष्कार किया. इसकी नौबत क्यों आयी?
कलाकार के तौर पर हमने अपने आपको अपमानित किया. सरकार के कदम से हम इतना आहत हुए कि हम 60 निर्माता निर्देशक व कलाकारों को मजबूरन समारोह के बहिस्कार का निर्णय लेना पड़ा. राष्ट्रीय पुरस्कार माननीय राष्ट्रपति के हाथों वितरित किए जाने की परंपरा रही है. राष्ट्रपति के हाथों पुरस्कार ग्रहण करने के लिए हमें दिल्ली बुलाया गया था. गुरूवार 3 मई की शाम 5.30 बजे पुरस्कार वितरण समारोह का आयोजन होना था. उससे पहले बुधवार, 2 मई को रिहर्सल के दौरान हमें बताया गया कि राष्ट्रपति महोदय सिर्फ एक घंटे के लिए आएंगे और 11 लोगों को अपने हाथ से पुरस्कृत करेंगे, बाकी कलाकारों को सूचना प्रसारण मंत्री के हाथों पुरस्कृत किया जाएगा. इसके अलावा वह 45-45 लोगों के दो ग्रुप के साथ फोटो खिंचवाएंगे. जबकि 135 लोग पुरस्कार लेने पहुंचे थे. यह पूरी तरह से अपमानजनक बात थी. हम 80 लोगों ने सूचना प्रसारण मंत्री स्मृति इरानी से मुलाकात की और हमने उनके सामने कुछ विकल्प रखे, जिससे किसी भी कलाकार का अपमान न हो और सबको राष्ट्रपति के हाथों पुरस्कार मिल जाते. स्मृति इरानी ने हमें आश्वस्त किया कि वह राष्ट्रपति भवन तक हमारी बात पहुंचाएंगी. फिर हमें कोई जवाब नही मिला. गुरूवार, 3 मई की सुबह सुबह हम सभी को फोन पर संदेश आया कि फिल्म पुरस्कार वितरण समारोह दोपहर 3.30 बजे शुरू होगा और राष्ट्रपति जी 5.30 बजे आएंगे यानी कि हमारी बात को तवज्जों नहीं दी गयी थी. तब हम लोगों ने विरोध स्वरुप समारोह के बहिष्कार का 80 लोगों के हस्ताक्षर वाला एक पत्र भी सौंपा, पर कुछ नहीं हुआ. अंततः मजबूरन हम 60 लोगों ने इस समारोह का बहिष्कार किया. हम सभी का मानना रहा है कि हर कलाकार को एक समान दृष्टि से देखा जाना चाहिए, किसी का भी अपमान नही किया जाना चाहिए. जिन फिल्मकारों व कलाकारों ने इस समारोह में हिस्सा लिया, उनसे हमें कोई शिकायत नहीं. यह उनका अपना निजी मसला है. पर मैं इस तरह के भेदभाव से बहुत आहत व दुःखी हुआ. इसलिए समारोह से दूर रहा. मैं सब कुछ खो सकता हूं, लेकिन मैं हमेशा अपने यकीन/विश्वास के साथ खड़े रहना चाहता हूं. यह अहम का मसला नही है. यह अभिमान या हेकड़ी नहीं बल्कि कंविक्शन है.
आपकी फिल्म ‘‘वाकिंग विथ द विंड’’को लेकर किसी अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में कोई खास प्रतिक्रिया मिली?
हमारी फिल्म पोलैंड के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में गयी थी. जहां के लोगों ने भारत देखा नहीं है. फिल्म फेस्टिवल के डायरेक्टर ने मुझसे मिलने की इच्छा जाहिर की. जब मैं उनसे मिला, तो उन्होंने कहा कि, ‘‘आपने फिल्म को दिल से बनाया है. यह मेरी निजी राय है. मैं पुरस्कार देने वाली ज्यूरी का हिस्सा नही हूं. इसलिए मैं यह नहीं जानता कि आपकी फिल्म पुरस्कृत होगी या नहीं. पर मुझे आपकी फिल्म बहुत पसंद आयी. ’’यह मेरे लिए यह बहुत बड़ा पुरस्कार रहा. क्योंकि उन्होंने अपने इस फिल्म फेस्टिवल में 20 से अधिक आस्कर पुरस्कार से सम्मानित कैमरामैन व फिल्मकारों को अपने इस फिल्म फेस्टिवल में बुलाया था. इसी तरह स्विटजरलैंड के फिल्म फेस्टिवल में मेरी फिल्म को चार थिएटरो में दिखाया गया. जहां सवाल जवाब का सेशन भी चला और एक दर्शक ने मुझसे कहा कि उन्हें फिल्म बहुत पसंद आयी. उसने कहा कि वह दो बार वेनिस फिल्म फेस्टिवल में भी जा चुके हैं,पर उन्होंने कभी इस तरह की बेहतरीन फिल्म नहीं देखी है. उसने बताया कि वह उस गांव में ट्रैकिंग करते हुए गुजरे थे, जहां मैंने अपनी फिल्म की शूटिंग की है. फिर दर्शकों में से एक ने कहा कि मुझे लगता है कि यह फिल्म अभी भी खत्म नही होनी चाहिए थी, चलती रहनी चाहिए थी.
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