लेखिका – सोनाली
भारत की पहली महिला पायलट और करगिल वॉर की हीरो गुंजन सक्सेना की जिंदगी पर आधारित फ़िल्म गुंजन सक्सेना: द करगिल गर्ल रिलीज हो गई है. जान्ह्वी कपूर की लीड भूमिका वाली यह फिल्म एक महिला के साहस, जज्बे और देश सेवा के लिए पायलट बनने की कहानी है.
ये कहानी पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को किस तरह अपने सपने पूरे करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है. साथ ही जिंदगी के हर मोड़ पर उन्हें समझौता करना पड़ता है उस पर आधारित है. लेकिन गुंजन सक्सेना में करगिल वॉर की हीरो गुंजन सक्सेना के जिस जज्बे को दिखाना था उससे ये फिल्म कहीं दूर नजर आती है. इस फिल्म को हर लड़की को जरूर देखना चाहिए. ताकि वो ये समझ पाएं कि ये समाज लड़कियों के बारे में किस तरह की सोच रखता है. साथ ही इसके अलावा ऐसी फ़िल्में हमारे समाज में महिलाओं को किस नजरिए से देखा जाता है. इसके साथ ही ये फ़िल्म एक महत्वपूर्ण बात और बताती है कि महिलाओं की सफलता को उस नजरिए से नहीं देखा जाता जैसा कि पुरूषों की सफलता को देखा जाता है.
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गुंजन ने कारगिल के युद्ध के दौरान जो बहादुरी का कारनामा दिखाया था. उसे इस फिल्म में कहीं दूर छिटक दिया है. फिल्म में युद्ध के शॉट बहुत की ही कम डाले गए हैं. फिल्म में युद्ध की भूमिका बनाए बगैर गुंजन की बहादुरी को दिखा दिया है. मानों एक बच्चे ने शेर के मुह में हाथ डालने जैसा बहादुरी का काम किया हो लेकिन लोगों को ये पता ही न हो कि बच्चे ने किसके मुंह में हाथ डाला- शेर या लोमड़ी? क्योंकि शेर को दिखाया ही नहीं गया. फिल्म का क्लाइमेक्स बहुत ही फीका है. गुंजन सक्सेना फ़िल्म देखकर लगेगा कि औरतों की सबसे बड़ी सफलता इसी में है कि आदमियों से भरी इस दुनिया में उन्हें स्वीकृति मिल जाए. पुरुष ये मान लें कि कोई औरत क़ाबिल हो सकती है. और इसी में उसकी सबसे बड़ी सफलता है.
दरअसल इस फ़िल्म को देखने पर लगता है कि फिल्म जहां ख़त्म हुई दरअसल वहाँ से शुरू होनी चाहिए थी.. !!
मतलब गुंजन सक्सेना ने कारगिल में क्या किया, कितने लोगों की जान बचाई, कितने मिशन लीड किए, कितने मिशन में क्या कुछ किया.. ये सब बताया जाएगा. क्या उसके लिए फ़िल्म में दस मिनट भी नहीं हो सकते थे? गुंजन की सफलता, गुंजन की आईडेंटिटी, उसकी क़ाबिलियत क्या इतनी ही थी कि उसकी ज़िंदगी में और दुनिया के आदमी इस बात को मान जाए कि वो क़ाबिल है.
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फ़िल्म कई स्तरों पर भयानक तौर पर मेल गेज़ और मेल सेवियर कॉम्पैक्स में धंसी हुई है. फ़िल्म जितनी प्रभावशाली ढंग से गुंजन के बारे में होनी चाहिए थी, उससे कहीं ज़्यादा ये उसके जीवन के पुरुषों के बारे में रही. जैसे अगर गुंजन के पिता न होते तो गुंजन कॉलेज ही ना जाती, गुंजन के पिता न होते तो गुंजन सब छोड़कर शादी कर लेती, गुंजन को अच्छा कमांडिंग ऑफ़िसर न मिलता जो आख़िर में उसे मौक़ा देता है तो शायद वो पायलट ही नहीं बनती, उसका ऑफ़िसर उसे कारगिल न भेजता तो वो जा ही नहीं पाती. रेस्क्यू मिशन में भी जब गुंजन को फ़ैसला करना है तो उसके कानों में उसके पिता और कमांडिंग ऑफ़िसर की ही आवाज़ें गूंज रही हैं. मतलब गुंजन के अपने जीवन में उसकी अपनी आवाज़ कहां है? गुंजन के जीवन में गुंजन ख़ुद कहां है?
अगर इस बात को भी मान लिया जाए कि आपके आसपास प्रिवलेज्ड प्रजाति जब आदमियों की है तो वही आपका मार्गदर्शन करेंगे, मौक़ा देंगे,ढाढ़स बँधाएँगे. लेकिन क्या उस सब में एक औरत का अपना कुछ भी नहीं है? क्या एक महिला ऑफ़िसर खुद की कोई सोच-समझ नहीं रखती. ऐसा लगता है यहां गुंजन खुद कुछ सोच ही नहीं सकती है. क्या एक औरत के भीतर कुछ भी करने के लिए, या करते वक़्त सिर्फ़ दो ही प्रभावी तत्व होते हैं… उसके जीवन के अच्छे आदमी या उसके जीवन के बेहद बुरे आदमी? इससे इतर उसकी अपनी चाहतें, फ़ैसले, समझ, ताक़त कुछ नहीं होता?
फ़िल्म में कितनी मूर्खतापूर्ण तरीक़े से उस लड़की के किरदार को बदल दिया है, जिसके जीवन पर आप फ़िल्म बना रहे हैं. ऐसा लगता है जैसे फ़िल्म कह रही है… कि लड़कियों तुम आगे बढ़ तो सकती हो, लेकिन किसी पुरूष की मर्जी और मदद के बिना नहीं.
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फ़िल्म ने मुद्दा ज़रूर ऐसा उठाया जिसमें वो औरत के स्ट्रगल और सक्सेस को दिखाने की कोशिश करते. लेकिन क्या करें, हमारी सोच वहीं तक रह जाती है कि हम सफ़ल औरत पर फ़िल्म बनाना तो चाहते हैं लकिन यहीं तक पहुँच पाते हैं कि जो आदमी उसे तबाह करने पर तुले थे, वो उसके लिए तालीबजाने लगें. इस फिल्म में गुंजन सक्सेना की जिंदगी की शानदार कहानी को पर्दे पर दिखाने में फिल्म निर्माता बिल्कुल फेल होते नजर आए है. एक बेहतरीन कहानी में बॉलीवुड का तड़का डाल कर फिल्म, एयरफोर्स को विलेन बना कर फिल्म में बहुत ज्यादा ड्रामा डाल दिया गया है.
गुंजन सक्सेना के रूप में जाह्नवी कपूर
इस फिल्म में भी जाह्नवी कपूर की बाकि फिल्मों की तरह गुंजन सक्सेना के किरदार को निभाते वक्त उनके चेहरे पर कोई एक्सप्रेशन नहीं दिखता. गुंजन के किरदार ने जाह्नवी कपूर ने बिलकुल भी न्याय नहीं किया है. पूरी फिल्म में वो डरी और सहमी लड़की नजर आ रही है. पूरी फिल्म में इनका चेहरा पीला पड़ा हुआ नजर आता है.
करण जौहर के धर्मा प्रोडक्शंस और जी स्टूडियो के बैनर तले बनी इस फ़िल्म को शरण शर्मा ने डायरेक्ट किया है . गुंजन सक्सेना फ़िल्म 12 जुलाई को नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई है. गुंजन सक्सेना फ़िल्म में जान्ह्वी कपूर के साथ उनके पिता के किरदार में पंकज त्रिपाठी नजर आएंगे. साथ ही इस फिल्म में अंगद बेदी, विनीत कुमार सिंह और मानव विज प्रमुख भूमिका में हैं. धड़क और घोस्ट स्टोरीज के बाद जान्हवी कपूर की यह तीसरी फ़िल्म है. बता दें कि जान्हवी कपूर के लिए यह फ़िल्म उनके करियर की सबसे अहम फिल्म मानी जा रही है, क्योंकि यह वास्तविक किरदार और वास्तविक घटनाओं पर आधारित है.
कौन हैं कारगिल गर्ल गुंजन सक्सेना
गुंजन सक्सेना भारतीय वायुसेना में फ्लाइट लेफ्टिनेंट रह चुकी हैं. उन्हें कारगिल गर्ल के नाम से जाना जाता है. गुंजन को उनकी वीरता, साहस और देशप्रेम के लिए शौर्य पुरस्कार से नवाजा जा चुका है. गुंजन वो महिला है जिन्होंने डंके की चोट पर साबित किया कि महिलाएं न सिर्फ पायलट बन सकती है बल्कि जंग के मौदान में अपना लोहा भी मनवा सकती है.
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कारगिल युद्ध के दौरान गुंजन सक्सेना ने युद्ध क्षेत्र में निडर होकर चीता हेलीकॉप्टर उड़ाया था. इस दौरान वह सैनिकों को द्रास और बटालिक की ऊंची पहाड़ियों से उठाकर वापस सुरक्षित स्थान पर लेकर आईं. पाकिस्तानी सैनिक लगातार रॉकेट लॉन्चर और गोलियों से हमला कर रहे थे. गुंजन के एयरक्राफ्ट पर मिसाइल भी दागी गई लेकिन निशाना चूक गया और गुंजन बाल-बाल बचीं. इस दौरान गुंजन ने बिना किसी हथियार के पाकिस्तानी सैनिकों का मुकाबला किया. इसके अलावा कई जवानों को वहां से सुरक्षित भी निकाला. बता दें कि जब गुंजन हंसराज कॉलेज से ग्रेजुएशन कर रही थी तब उन्होंने दिल्ली का सफदरगंज फ्लाइंग क्लब ज्वाइन कर लिया था. उस समय उनके पिता और भाई दोनों ही भारतीय सेना में कार्यरत थे.
इसी ट्रेनिंग के दौरान गुंजन को पता चला कि IAF में पहली बार महिला पायलटों की भर्ती की जा रही है. फिर उन्होंने SSB परीक्षा पास की और भारयीय वायुसेना में बतौर पायलट शामिल हो गईं. उस वक्त सुरक्षा बलों में पुरुष अधिकारियों का ही वर्चस्व था और भारतीय वायुसेना में महिला अधिकारियों को पुरुषों के बराबर उड़ान भरने का मौका नहीं दिया जाता था. उस समय महिला अधिकारियों को लड़ाकू जेट उड़ाने की अनुमति नहीं थी, लेकिन उनके बैच की महिलाओं ने भारतीय वायुसेना में पहली बार विमान उड़ाकर इतिहास तो रच ही दिया था. हालांकि उस वक्त भारतीय वायुसेना में महिला पायलटों के लिए आरक्षण था.