बौलीवुड से दिल्ली आ कर फिल्म की शूटिंग करना मुंबई के निर्माता, निर्देशकों को बहुत रास आ रहा है. पिछले दिनों ब्लैक पर्ल मूवीज ऐंटरटेनमैंट और कल्पतरू फिल्म प्राइवेट लिमिटेड के तहत बनने वाली फिल्म ‘जब तुम कहो’ की शूटिंग दिल्ली के आलीशान लोकेशन पर हुई. पेश हैं, इस फिल्म के प्रमोशन पर आए प्रोड्यूसर व डायरैक्टर राजीव कुमार और विक्रम शंकर से हुई बातचीत के कुछ खास अंश:

आप की फिल्म की कहानी में डिफरैंट क्या है?

‘जब तुम कहो’ एक रोमांटिक, कौमेडी मूवी है, जिस में इमोशन भी है. यह फिल्म ब्लाइंड डेटिंग और डेटिंग पर आधारित है. ब्लाइंड डेटिंग का कौंसैप्ट आज के युवाओं में बेहद लोकप्रिय हो रहा है. 1 दशक में मैट्रो सिटीज में काफी बदलाव आए हैं. मैट्रो सिटीज में बाहर से आए लड़केलड़कियां अकेले रहते हैं. वे साथ घूमते हैं. खातेपीते हैं. मगर हम इस से एक कदम आगे जा रहे हैं. वे सोशल मीडिया और इंटरनैट के जरीए मिलते हैं, फोन पर बात करते हैं और बात करतेकरते एकदूसरे पर विश्वास बना लेते हैं. उस अटैचमैंट का क्या रूप निकलता है, उसे दर्शक हमारी फिल्म में देखेंगे.

बतौर निर्देशक फिल्म की कहानी या स्क्रिप्ट का चयन कैसे करते हैं और ऐसी स्टोरी का आइडिया कहां से आया?

मैं अपनी फिल्म की कहानी अभी भी खुद लिखता हूं और भविष्य में भी यही कोशिश रहेगी किखुद लिखूं. मैं अपनी फिल्म की कहानी अपने आसपास के लोगों की रियल लाइफ के आधार पर बनाता हूं. मेरी फिल्म की कहानी का जो पात्र कुमार है, उस का किरदार मेरे करीबी फ्रैंड की कहानी थी, जिसे कालेज लाइफ में एक लड़की से प्यार हो जाता है. पर उस समय टाइम मैनेजमैंट नहीं था. वह जौब के लिए स्ट्रगल करे या गर्लफ्रैंड को टाइम दे. ऐसे में उस की गर्लफ्रैंड की शादी किसी और से हो गई. मेरा दोस्त उस से बहुत प्यार करता था. वह उसे भूल नहीं पा रहा था तो मैं ने उस से कहा कि दूसरी देखो. उस के पीछे भागने से कोई फायदा नहीं  कुछ दिनों बाद वह मुझे मिला तो उस ने बताया कि उसे एक और अच्छी लड़की मिल गई. अब वह बहुत खुश है. यहीं से मैं ने सोचा कि इतना हैपी ऐंडिंग तो हो ही नहीं सकता. मैं ने भी इसी कहानी को आधार बना कर अपनी फिल्म में लिया है.

इस फिल्म से जुड़े कलाकार नए हैं. बड़े कलाकारों का चयन न करने की क्या वजह है?

एक बार फिर कम बजट की फिल्में बन रही हैं. अगर आप का कंटैंट अच्छा है, म्यूजिक अच्छा है तो फिल्म जरूर सफल होगी. हमारे पास उस समय जो बजट था, उस में हमें एक ऐसा जानापहचाना चेहरा चाहिए था, जो अच्छा भी हो और मेरी फिल्म में फिट भी बैठे. ऐसे में प्रवीन डबास फिट बैठ रहे थे. हमारे पास जो धन की व्यवस्था थी उस में अगर हम कोई दूसरा नया चेहरा लेते तो दिक्कत होती.

आजकल प्रमोशन फिल्म के कंटैंट पर हावी हो चुका है. आप इस से कितना सहमत हैं?

आप चाहे 100 करोड़ की फिल्म बनाएं या 1 करोड़ की अथवा 15 लाख की, आप को कंटैंट स्ट्रौंग रखना ही पड़ेगा. तभी आप की फिल्म चलेगी और तभी दर्शक आप की फिल्म देखने आएंगे. आप चाहे कितने भी बड़े सुपरस्टार को ले लें, अगर आप की फिल्म में दम नहीं है तो आप चीट कर के लोगों को प्रमोशन के तहत ले तो आएंगे पर 2 दिन में उस का रिजल्ट मिलना ही मिलना है. मेरे जितने भी कुलीग हैं, मैं उन से बस इतना कहना चाहूंगा कि मनीपार्ट के अलावा स्टोरी पर जरूर फोकस करना चाहिए. इस की कमी खलेगी तो हिंदी सिनेमा की हिस्ट्री आगे जा कर खराब हो जाएगी. हम आने वाली पीढ़ी को कुछ अच्छा नहीं दे सकेंगे. इसलिए सब कुछ ध्यान में रख कर फिल्म बनाएं.

फिल्म के म्यूजिक में क्या खास है?

मेरी फिल्म का म्यूजिक फिल्म का यूएसपी है. अपनी फिल्म में मैं ने मोहित और शंकर महादेवन जैसे बड़े गायकों को बहुत अप्रोच कर के इंप्रैस किया. शंकरजी ने कहा था कि तुम्हारी पहली फिल्म है, अगर तुम्हें लगता है कि कुछ दोबारा करना है, तो मैं कर लूंगा.

आजकल वूमन ओरिऐंटेड विषय चल रहे हैं. आप की फिल्म में महिला किरदार कितने सशक्त हैं?

अगर आप फिल्म देखेंगी तो आप को लगेगा कि हर महिला का किरदार कितना सही है. मेरी फिल्म में 3 महिला किरदार हैं. एक लड़की वह है जिस का कहना है कि उसे प्यार, पैसा दोनों चाहिए तो दूसरी कहती है कि प्यार की ऐसी तैसी, सब से पहले उसे नेम, फेम और पैसा चाहिए. वहीं तीसरी लीड हीरोइन कहती है कि प्यार, नाम और पैसा तीनों अपनी जगह सही हैं. इन तीनों के साथसाथ टाइम मैनेजमेंट आना चाहिए.

इस फिल्म को देखने दर्शक क्यों जाएं, कोई खास वजह बताएं?

हमारी फिल्म न्यूकमर होने के बावजूद कुछ डिफरैंट है. इस में क्यूरीज हैं, क्योंकि हमारी फिल्म का पोस्टर अट्रैक्टिव और डिफरैंट है. हम ने इस तरह की डिजाइन व प्रमोशन किया है कि यूथ कनैक्ट हो सकें. हमारी फिल्म कमर्शियल होते हुए भी उस की खासीयत यह है कि वह क्रिएटिव है. आप जैसा देख रही हैं. हमारे पोस्टर में लड़का लड़की से मिलने जाता है. उस के बाएं हाथ में कंडोम है, क्योंकि उस के दिमाग में सैक्स प्ले हो रहा होता है और लड़की के दिमाग में इमोशन. एक फिजिकल होना चाहता है तो एक इमोशनल. मेरी फिल्म में कौमेडी पंचेस भी हैं.

किसी भी फिल्म के प्रमोशन में सोशल मीडिया क्या रोल निभाता है?

आज के समय में सोशल मीडिया स्मौल बजट फिल्म वालों के लिए बहुत बड़ा रोल निभा रहा है. यह अपनी फिल्म को यूथ तक पहुंचाने का बहुत बड़ा प्लेटफौर्म है. आज हरेक के हाथ में मोबाइल है. उस में नैट भी है, जिस से आप आसानी से कनैक्ट हो रहे हैं.

सैंसर बोर्ड फिल्मों में किस तरह राजनीति कर रहा है?

सैंसर बोर्ड गवर्नमैंट बौडी है, लेकिन गवर्नमैंट की बौडी होते हुए भी आप मीडिया, राइटर जितने भी फोर्थ पिलर्स हैं उन पर दबाव देंगे तो काम ठीक से नहीं हो पाएगा. हमारी, आप की अपनीअपनी भूमिका है, क्योंकि दबाव में फ्रीमाइंड हो कर काम नहीं हो पाएगा और रिजल्ट भी सही नहीं होगा. एक ही चीज रोज करने से नई चीजें नहीं आ पाएंगी. सैंसर बोर्ड को सपोर्टिव होना चाहिए.

अधिकतर फिल्मों में एक आइटम सौंग जरूर होता है. क्या आप की मूवी में भी कोई ऐसा सौंग है?

मेरी फिल्म में एक क्लब सौंग है. क्लब सौंग और आइटम सौंग में डिफरैंस यह है कि आइटम सौंग प्रमोशन को बढ़ावा देने के लिए अलग से डाला जाता है. उस का फिल्म से कोई लेनादेना नहीं होता है, जबकि क्लब सौंग स्टोरी की डिमांड पर डाला गया है.

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