दक्षिण भारत के तेलुगूभाषी नौसेना औफिसर व रक्षा विशेषज्ञ उदय भास्कर और ईरा भास्कर की बेटी स्वरा भास्कर ने दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से शिक्षा ग्रहण की है. उन की मां ईरा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफैसर हैं. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में एमए करने वाली स्वरा भास्कर एक बेहतरीन अदाकारा हैं. उन्होंने शिक्षा के महत्त्व पर बात करने वाली फिल्म ‘निल बटे सन्नाटा’ में अभिनय कर काफी पुरस्कार बटोरे. फिलहाल उन की फिल्म ‘अनारकली औफ आरा’ प्रदर्शित हुई है और अपने सामाजिक व बोल्ड कथानक के चलते चर्चा में हैं.

स्वरा की प्रदर्शित फिल्म ‘निल बटे सन्नाटा’ के प्रदर्शन से पहले जेएनयू में कन्हैया कुमार व उमर खालिद का मुद्दा गरमाया था. तब स्वरा भास्कर ने उमर खालिद के पक्ष में खुलापत्र लिखा था. उस समय स्वरा भास्कर ने भाजपा सरकार व भाजपा के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद यानी एबीवीपी के खिलाफ मोरचा खोला था. अब जबकि उन की फिल्म ‘अनारकली औफ आरा’ रिलीज हुई है, तो दिल्ली विश्वविद्यालय फिर से सुर्खियों में है.

एक बार फिर स्वरा भास्कर ने छात्र संगठन एबीवीपी के खिलाफ और छात्र संगठन आइसा के पक्ष में मुहिम चला रखी है. जेएनयू की छात्रा रही स्वरा भास्कर के दिमाग में यह बात बैठी हुई है कि जेएनयू से जुड़ा कोई भी शख्स या छात्र गलत बात नहीं कह सकता. वे छात्र संगठन आइसा को सब से ज्यादा ईमानदार व संस्कारी मानती हैं. जबकि उन की नजर में एबीवीपी छात्र राजनीति के नाम पर महज गुंडई करता है. हाल ही में स्वरा भास्कर से मुलाकात हुई. पेश हैं उन से हुई बातचीत के अंश:

शिक्षा पर आधारित फिल्म ‘निल बटे सन्नाटा’ के प्रदर्शन के बाद आप को किस तरह की प्रतिक्रियाएं मिलीं?

बौक्स औफिस के साथसाथ लोगों की तरफ से भी बहुत अच्छा रिस्पौंस मिला. फिल्म हिट रही. फिल्म 10 सप्ताह चली, लोगों ने कल्पना नहीं की थी कि लोगों के घरों में काम करने वाली बाई और शिक्षा को ले कर इस तरह की फिल्म भी बन सकती है. यह मां व बेटी की कहानी लोगों के दिल में बसने के साथ ही एक मिसाल बन गई है. कुछ लोगों ने पत्र लिख कर कहा कि फिल्म ‘निल बटे सन्नाटा’ देखने के बाद उन की बेटी ने आईएएस बनने के लिए इंटरनैट से लोक सेवा आयोग का फौर्म निकाल कर भरा और परीक्षा की तैयारी कर रही है. इस तरह के कम से कम 2 पत्र तो मुझे याद हैं. अभी कुछ दिन पहले मैं दिल्ली हाट बाजार में खरीदारी कर रही थी, तब एक पिता ने अपनी बेटी से मिलवाते हुए बताया कि मेरी फिल्म देख कर उन की बेटी आईएएस बनने के लिए पढ़ाई कर रही है. जब हम छोटे थे, तब मेरे घर में काम करने आती थीं चंद्रा, अब वे काम नहीं करती हैं, मैं ने दिल्ली में दूसरी महिलाओं के साथ उन्हें भी बुला कर अपनी यह फिल्म दिखाई. फिल्म देखने के बाद 5 मिनट तक मुझ से चिपक कर वे रोईं. इन दिनों दिल्ली में मेरे घर पर गीता दीदी काम करती हैं. उन्होंने मुझ से कहा कि उन्हें यह बात अच्छी लगी कि हम ने उन की कहानी को फिल्म में दिखाया.

फिल्म ‘निल बटे सन्नाटा’ शिक्षा और अपने को कुछ बनाने के सपनों की बात करती है. इन दिनों जो कुछ विश्वविद्यालयों में हो रहा है, क्या उस से लोगों के सपने पूरे होंगे, क्या यही सही शिक्षा है?

मुझे लगता है कि विश्वविद्यालयों में लोगों का आपस में वादविवाद होना, उन का आपस में राजनीतिक मतभेद होना बुरी बात नहीं है. विश्वविद्यालय इसी के लिए बनते हैं मगर हिंसा का होना बहुत बुरी बात है. एक खास गुट का दूसरे छात्रों पर अपनी सोच, अपने एजेंडे को लागू करना, अपनी विचारधारा को थोपना ठीक नहीं है. मैं एबीवीपी की बात कर रही हूं. एबीवीपी संगठन हमेशा गलत ढंग से लोगों को बरगलाता और धमकाता है. इस मसले पर दिल्ली पुलिस का मूकदर्शक बने रहना गलत है.

सरकार का इस पर प्रतिक्रिया न देना और जो पिट रहे हैं, उन्हीं पर आरोप लगाना भी गलत है. मैं तो एबीवीपी की कही हुई किसी भी बात पर यकीन नहीं करती. मेरी राय में एबीवीपी के लोग सिर्फ झूठ बोलते हैं. मेरी समझ में नहीं आता कि जब से इन की सरकार आई है, तभी से सारे भारतविरोधी नारे लग गए. इस सरकार से पहले भी वामपंथी, कांग्रेसी, कश्मीरी लोग जेएनयू में पढ़ते रहे हैं.

पर हाल में दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कालेज में जो कुछ हुआ, उस में एबीवीपी और आइसा दोनों ने एकदूसरे पर लड़कियों के साथ छेड़छाड़ करने को ले कर कई तरह के आरोप लगाए हैं?

मैं एबीवीपी की किसी भी बात पर यकीन नहीं करती हूं. उस संगठन से जुडे़ छात्र जहां भी जाते हैं, मारपीट ही करते हैं. मेरी समझ में नहीं आता कि जहांजहां भारत के खिलाफ नारे लग रहे हैं, वहां एबीवीपी कैसे पहुंच जाता है. यह आश्चर्यजनक बात है. जहांजहां हिंसा शुरू होती है, वहां भी एबीवीपी पहुंच जाता है. ऐसा कैसे संभव है? आइसा की तरफ से हैदराबाद में कार्यक्रम कराया गया, वहां भी एबीवीपी की वजह से पुलिस को हाथ उठाना पड़ा.

मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि किसी भी पक्ष को लड़कियों के साथ छेड़खानी करने की जरूरत क्यों पड़ जाती है?

यह एबीवीपी की मानसिकता है. 2 साल में एबीवीपी की तरफ से यह चौथा घटनाक्रम है. इस से पहले दिल्ली में महिलाएं एक आंदोलन चला रही थीं, जिस में दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्राएं नुक्कड़नाटक कर रही थी, उन पर भी एबीवीपी ने ही हमला किया था. हमारे देश में जब से भारतीय जनता पार्टी की सरकार आई है, तब से तमाम छोटेछोटे गुट उभर कर आ गए हैं. फिर चाहे वह बजरंगदल हो या गोरक्षक संगठन हो या संजय लीला भंसाली की पिटाई करने वाली राजपूत करणी सेना हो.

मेरा सवाल है कि आइसा छात्र संगठन हो या एबीवीपी क्या विश्वविद्यालय के अंदर हिंसा करना या लड़कियों के साथ छेड़खानी करना जायज है?

मैं ने कब कहा कि जायज है. अगर दिल्ली पुलिस एबीवीपी के खिलाफ एफआईआर लिखने से मना कर दे तो क्या करें. हो यह रहा है कि जो लोग गुंडागर्दी कर रहे हैं, आप उन्हें जाने दे रहे हो. उस के बाद आप लोग गुरमेहर सहित दूसरे मुद्दों पर सोशल मीडिया व टीवी चैनलों पर बहस छेड़ते हैं, जिस का इस घटनाक्रम से कोई लेनादेना नहीं है.

मजेदार बात यह है कि बहस में कौन किस का पिता था, किस ने क्या किया, जैसी चर्चाएं शुरू कर दीं और जिस ने गुंडागर्दी की उस के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं की. इस से आप क्या संदेश दे रहे हैं. आप खुद हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं. दिल्ली पुलिस उन्हें पूरी छूट देते हुए कह रही है कि आओ, आप को जो कुछ करना हो, करो, आप की सरकार है. हम दिल्ली पुलिस के लोग चुपचाप खड़े रहेंगे. इस से आप विश्वविद्यालय में किस तरह की शिक्षा को बढ़ावा देंगे?

आप भूल जाते हैं, जेएनयू का 3 माह से नजीब नामक छात्र गायब है. उसे एबीवीपी के लोगों ने मारा. आज तक मिला नहीं. इस का जवाब दिल्ली पुलिस या दिल्ली की सरकार के पास नहीं है. एबीवीपी के लोग ‘भारतमाता की जय’ चिल्लाने के अलावा कोई जवाब नहीं दे सकते.

यह बहुत चिंताजनक स्थिति है. यदि आप को लगता है कि मैं जानबूझ कर किसी खास पक्ष की बात कर रही हूं, तो आप सोचते रहिए, मुझे फर्क नहीं पड़ता.

नजीब को ढूंढ़ने के लिए जेएनयू के छात्र लगातार आंदोलन व मुहिम चला रहे हैं. लेकिन हमारे देश का मीडिया भी इस मुहिम की चर्चा नहीं कर रहा है. यह छात्र सोशल मीडिया पर नजीब की तलाश की मुहिम चला रहे हैं. पर छात्रों के पास इतना धन नहीं होता कि वह कुछ कर सकें . उन के पास मीडिया की तरह कलम की ताकत नहीं है. जिस ढंग की शक्ति एबीवीपी के पास है, वैसी शक्ति भी उन के पास नहीं है. पर वह सब जगह सवाल कर रहे हैं.

मेरा सीधा सवाल यह है कि विश्वविद्यालयों में क्या हो रहा है?

मैं यह कहूंगी कि यदि आप विश्वविद्यालयों में सवाल पूछने की आजादी खत्म कर देंगे, तो शिक्षा अपनेआप बंद हो जाएगी.

आखिर क्या वजह है कि छात्र आंदोलन व हिंसा की घटनाएं जेएनयू व दिल्ली विश्वविद्यालय में ही होती हैं. मुंबई विश्वविद्यालय में इस ढंग की घटनाएं क्यों नहीं सुनाई देतीं?

आप जेएनयू को दोष न दें. हैदराबाद विश्वविद्यालय में बहुत बड़ा कांड हुआ. एक छात्र ने आत्महत्या कर ली. जिस को ले कर बवाल भी हुआ पर कोई परिणाम नहीं निकला. मुझे मुंबई विश्वविद्यालय के बारे में जानकारी नहीं है. शायद मुंबई में बौलीवुड, मीडिया व कौर्पारेट हावी हैं. दूसरी बात मुंबई विश्वविद्यालय में लिबरल आर्ट के बजाय सब से ज्यादा कौमर्स पढ़ाया जाता है, फिर विज्ञान पढ़ाया जाता है. जबकि दिल्ली विश्वविद्यालय व जेएनयू लिबरल आर्ट के केंद्र हैं. यहां इतिहास, समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान पढ़ाया जाता है. हैदराबाद व इलाहाबाद में भी यही विषय ज्यादा पढ़ाएं जाते हैं. इलाहाबाद में भी बड़ेबड़े कांड हुए हैं पर जेएनयू बदनाम है.

तो आप भारतविरोधी नारों को जायज ठहराती हैं?

मेरी नजर में जब भारतविरोधी नारे लगते हैं, तो उस से बातचीत शुरू होती है, जिस से नई बातें सामने आती हैं. जब वार्त्तालाप होगा, बहस होगी, तभी समाज व देश प्रगति करता है. गांधीजी ने बात करकर के देश को आजाद कराया था. गांधीजी को हिंसा का रास्ता अपनाने की जरूरत नहीं पड़ी. देखिए, उस जमाने में भगतसिंह जैसे हिंसावादी नेता भी थे पर सफलता तो अहिंसावादी बातचीत करने वाले गांधीजी ने ही दिलाई.

आप को नहीं लगता कि एबीवीपी को उन लोगों से समस्या है, जो आम जगहों यानी कि पब्लिक प्लेस पर द्विअर्थी गाने गाते हैं या अश्लील बातें करते हैं?

क्या समाजसुधार का ठेका एबीवीपी को मिला है? आप समाज के ठेकेदार नहीं हैं. देश कानून व संविधान से चलता है. देश के कानून ने ही तय किया है कि पब्लिक प्लेस में क्याक्या किया जा सकता है. कानून में कहीं नहीं लिखा है कि 2 लोग हाथ पकड़ कर पब्लिक प्लेस में साथ में नहीं चल सकते. यदि आप को किसी के किसी काम से समस्या है, तो आप उस के खिलाफ कानून का सहारा लीजिए.

उमर खालिद के पक्ष में आप ने खुलापत्र लिखा था. इस बार आप ने कोई पत्र नहीं लिखा?

पिछली बार मेरे खुलेपत्र को ले कर बहुत बवाल हो गया था. इस बार भी लिखना चाहती थी पर समय नहीं मिला. मैं फिल्म के प्रमोशन में व्यस्त रही.   

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