फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ से चर्चा में आयी अदाकारा हुमा कुरैशी ने अच्छी खासी शोहरत बटोर ली है. उनकी ‘एक थी डायन’ जैसी इक्का दुक्का फिल्मों को नजरंदाज कर दें, तो अब तक प्रदर्शित सभी फिल्में सुपरहिट रही हैं. हुमा इन दिनों जोश खरोश से भरी नजर आती हैं. इसकी वजह भी है. हुमा कुरैशी की अक्षय कुमार के साथ आने वाली फिल्म ‘जॉली एलएलबी 2’ 17 फरवरी को प्रदर्शित होने जा रही है. जबकि उनकी पहली अंतरराष्ट्रीय फिल्म ‘वायसराय हाउस’ मार्च माह में प्रदर्शित हो रही है.
अब तक के अपने करियर की यात्रा को किस तरह से देखती हैं?
बहुत ही अच्छा लग रहा है. मैंने कभी सोचा नहीं था कि बॉलीवुड में मुझे इतनी जल्दी इतनी सफलता मिल सकेगी. पर पांच साल के अंदर बहुत कुछ रोचक तरीके से बदल गया है. सबसे बड़ी बात यह है कि मुझे हर फिल्म में एकदम अलग तरह के किरदार निभाने के मौके मिले और हर बार लोगों ने मुझे पसंद किया. यूं तो काम करते हुए मजा आ रहा है. लेकिन जब भी मेरे पास नयी फिल्म का ऑफर आता है, तो मुझे इस बात का ख्याल रखना पड़ता है कि मैं कुछ नया कैसे करूंगी. वैसे भी अब सिनेमा काफी बदल चुका है. एक कलाकार के तौर पर मैं इस बात में यकीन करती हूं कि वह काम करो, जो आपको चुनौती दे. मैंने हमेशा नई नई चुनौतियां स्वीकार की है. मेरे लिए हर दिन रोचक होना जरुरी है.
संघर्ष के दिन तो याद आते ही होंगे?
आज मैं जिस मुकाम पर पहुंची हूं, वहां तक पहुंचने के लिए मुझे बड़ी मेहनत करनी पड़ी है. मुझे अच्छी तरह से याद है कि मुझे मुंबई में अपने करियर को बनाने के लिए मेरे पिता ने मुझे सिर्फ एक वर्ष का समय दिया था. बॉलीवुड के बारे में सभी को पता है कि यहां किस ढंग से काम होता है. मैंने तमाम रिजेक्शन सहे. ऑडिशन के लिए लंबी कतारों में खड़ी हुई हूं. पर मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है. अंततः मेरी मेहनत मेरे अंदर के अभिनय क्षमता ने मुझे सफलता दिला दी.
आपको नहीं लगता कि ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ से जिस अंदाज में आपका करियर शुरू हुआ था, उसे देखते हुए तो आपका करियर काफी आगे जाना चाहिए था?
पता नहीं, सर! पर यदि आपको ऐसा लगता है, तो मैं इससे बहुत खुश हूं. आपकी बातों से यह जाहिर होता है कि मेरी क्षमता में आपको विश्वास है. मैंने भी अपनी तरफ से बेहतर काम करने की कोशिश की. मैं किसी भी तरह की प्लानिंग करने में यकीन नहीं करती. मेरे पास जिन फिल्मों के ऑफर आते हैं, उनमें से जो फिल्में मुझे पसंद आती हैं, वह मैं कर लेती हूं. जिनका कथानक मुझे पसंद नहीं आता, उन्हें मैं नहीं करती. मुझे उम्मीद है कि ‘जॉली एलएलबी 2’ के प्रदर्शन के बाद स्थितियां बदलेंगी.
‘जॉली एलएलबी 2’ करने के लिए किस बात ने आपको इंस्पायर किया?
इसकी कहानी बहुत अच्छी है, फिर मुझे सुभाष कपूर के साथ काम करना था. इस फिल्म के हीरो अक्षय कुमार हैं, जिनके साथ मुझे काम करना था. मैं अक्षय कुमार से काफी प्रभावित हूं. वह पिछले कुछ वर्षों से एक के बाद एक बहुत ही अच्छी अलग तरह की फिल्में कर रहे हैं. वह चरित्रों को पकड़ कर उन्हें बाखूबी निभा रहे हैं. मैंने उनके अनुशासन और उनके फोकस को लेकर भी कई कहानियां सुनी थी. इसलिए भी मैं उनके साथ काम करना चाहती थी. मैंने जितना सोचा था, इस फिल्म को करते हुए उससे कही ज्यादा बेहतर अनुभव हुए फिल्म के दो टे्लर और तीन गाने बाजार में आ चुके हैं, जिनका बहुत अच्छा रिस्पांस मिला है.
आपके अनुसार ‘जॉली एलएलबी 2’ है क्या?
लोग इसे कोर्ट रूम ड्रामा कह रहे हैं. मैं भी मानती हूं कि यह कोर्ट रूम ड्रामा है. पर बहुत अलग तरह का है. इस फिल्म में ऐसा कोर्ट रूम ड्रामा है, जो बहुत अलग है. इससे पहले ‘जॉली एलएलबी’ में कोर्ट रूम ड्रामा एक लैंड मार्क था. मगर हमारी फिल्म की कहानी का जॉली एलएलबी से कोई संबंध नहीं है. उस फिल्म में अलग जॉली था, अलग कहानी थी. इस फिल्म में अलग जॉली है. अलग कहानी है. हम लोग एक विचार को आगे लेकर जा रहे हैं, अब फिल्म में अक्षय कुमार हैं. इसलिए कहानी थोड़ी बड़ी और बेहतरीन हो गयी है. फिर मैं इस फिल्म का हिस्सा हूं. फिल्म में मनोरंजन के साथ साथ संदेश भी है.
फिल्म का संदेश या विचार क्या है?
इस फिल्म में कोर्ट रूम ड्रामा तो कोर्ट रूम के अंदर होता है, पर किसी मुकदमे को लेकर अदालत से बाहर जो ड्रामा चलता है, उसका भी चित्रण है. फिल्म की कहानी में कुछ रहस्य भी है.
आपने ‘जॉली एलएलबी’ देखी होगी. ‘जॉली एलएलबी 2’ उसी का सिक्वअल है, तो दोनों फिल्मों में क्या फर्क पाती हैं?
बहुत फर्क है. कहानी में अंतर है. यह बड़े बजट की फिल्म है. इसका कैनवास बड़ा है. इसमें कॉमेडी, ड्रामा, ह्यूमर, सब कुछ बहुत अलग स्तर पर है. इसके साथ ही इस बार तो इस फिल्म में मैं हूं.
इसके अलावा क्या कर रही हैं?
मैंने गुरिंदर चड्ढा के निर्देशन में एक अंतरराष्ट्रीय फिल्म ‘वायसराय हाउस’ की है, जिसमें वायसराय हाउस के अंदर कार्यरत एक हिंदू लड़के व एक मुस्लिम लड़की की प्रेम कथा है. मैंने इसमें मुस्लिम लड़की आलिया नूर का किरदार निभाया है, जो कि उर्दू अनुवादक है. यह फिल्म 1947 के देश के बंटवारे से पहले के चार पांच माह की कहानी है.
‘वायसराय हाउस’ तो पीरियड व ऐतिहासिक फिल्म है. इसके लिए आपने कोई शोधकार्य किया था?
जी हां! इतिहास मेरा प्रिय विषय रहा है. मैंने इतिहास में ऑनर्स किया है, जब मैं इस फिल्म का हिस्सा बनी, तो शूटिंग करने से पहले मैंने काफी पढ़ाई की. काफी रिसर्च किया. ‘इंडिया रिमेंम्बर्ड’, ‘चिल्ड्रेन इन द मिड नाइट’ सहित कई किताबें पढ़ी. उस दौर के कुछ लोगों से मिली, बातचीत की. उस दौर में जब एक कैबिनेट मंत्री थी, राजकुमार निर्मित कौर उनकी नीस ही उर्दू अनुवाद थी, जो कि अब 98 साल की हैं, उनसे मिली बहुत कुछ उनसे जानने का मौका मिला. लंदन में गुरिंदर ने ही उनसे मेरी मुलाकात करवायी, मुझे यह जानना था कि उस वक्त यह टीनएजर लड़की कैसी होती है, किस तरह से बात करती है.
इस फिल्म में तमाम विदेशी कलाकारों के साथ आपने काम किया है, क्या अनुभव मिले?
मुझे लगा कि कलाकार कलाकार होता है, फिर चाहे वह भारतीय हो या विदेशी. हां! बहुत अनुशासन प्रिय होते है. मैंने देखा कि उनके अंदर भारत को लेकर जानने की इच्छा है. उनके अंदर भारत को लेकर बहुत उत्सुकता है.
फिल्म ‘वायसराय हाउस’ को कहां फिल्माया गया है?
जोधपुर और दिल्ली में इसे फिल्माया है. फिल्म देश के बंटवारे की पृष्ठभूमि में भारत की कहानी है. इस फिल्म को करना बहुत कठिन था, फिल्म बहुत निजी भी है. इस फिल्म को करके मैं उत्साहित भी हूं. मुझे गर्व हैं कि मैंने ‘वायसराय हाउस’ जैसी फिल्म की है.
गुरिंदर चड्ढा को लेकर क्या कहेंगी?
गुरिंदर चड्ढा से मिलने के बाद मैंने सीखा कि एक पंजाबन को कही भी ले जाओ, वह हमेशा पंजाबन रहेगी. गुरिंदर चड्ढा के माता पिता भारतीय पंजाबी हैं, पर उनका जन्म ब्रिटेन के साउथ हॉल में हुआ, जहां उनके पिता काम करते थे, तो वह पूरी तरह से ब्रिटिश हैं. पर वह बहुत देशी हैं, भारतीय हैं, दिल से तो वह पंजाबन ही हैं. मैं भी पंजाबन हूं. मैं पंजाबी समझ लेती हूं. पर बोल नहीं पाती. पर पता नहीं क्यों गुरिंदर को लगता था कि मैं पंजाबी बहुत अच्छा बोलती हूं, तो वह मुझे हमेशा पंजाबी में ही बात करती थीं. उनके साथ काम करते हुए मैंने पाया कि गोरों के बीच वह मेरे अंदर अपना घर पाती थी. फिल्म भी खूबसूरत बनी है. आप यह मान लें कि यह फिल्म एक ब्रिटिश पंजाबी भारतीय देश के बंटवारे को किस नजरिए से देखे, उसकी कथा हैं. उन्होंने इस मुद्दे पर बहुत ही बैलेंस्ड नजरिया पेश किया है. किसी एक देश या भावना पर आधारित यह फिल्म नहीं है. उन्होंने किसी को अच्छा बुरा दिखाने की बजाए, जो वास्तव में घटित हुआ था, उसको उसके सही परिप्रेक्ष्य रूप में पेश किया है.
तमाम कलाकार वेब सीरिज कर रहें हैं और आप?
जो वेब सीरिज कर रहे हैं, उन्हें मैं बधाई देती हूं. पर फिलहाल मैं उससे दूर हूं.
आपने गौहर खान के साथ एक लघु फिल्म ‘एक दोपहर’ की है. क्या कहेंगी?
इस फिल्म की निर्देशक स्वाती, हबीब फैजल की सहायक हैं. एक दिन हबीब फैजल ने मुझे फोन किया कि उनकी सहायक एक फिल्म बना रही हैं, और वह चाहती हैं कि मैं यह फिल्म करूं. जब कोई मुझसे कहता है कि वह फिल्म मैं ही करूं, तो मेरी उत्सुकता बढ़ जाती है कि आखिर इस फिल्म में ऐसा क्या है? इसी उत्सुकता के साथ जब मैं स्वाती से मिली, तो उसमें मुझे जोश नजर आया. कहानी अच्छी लगी. हमने एक दिन में ही पूरी फिल्म की शूटिंग पूरी की.
अब तक आपने जो किरदार निभाए हैं, उनमें से किस किरदार ने आपकी निजी जिंदगी पर प्रभाव डाला है?
किसी किरदार ने मेरी जिंदगी पर असर डाला या नहीं डाला, यह तो नहीं बता सकती. पर ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ मेरे करियर की बहुत खास फिल्म है. इसी फिल्म से मैंने अपनी जिंदगी व करियर में बहुत कुछ पाया है. इस फिल्म से पहले मुझे भी नहीं पता था कि मैं किस तरह का अभिनय कर सकती हूं. मुझे सिर्फ यह पता था कि मुझे अभिनय करना है. पर मेरे अंदर अभिनय की गुणवत्ता को इस फिल्म ने उजागर किया, इस फिल्म ने मुझे अपने अंदर के कलाकार को जानने पहचानने का मौका दिया. वहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति भी दिलायी.
आपके सपने क्या हैं?
कई सपने हैं. एक बायोपिक फिल्म करनी है. एक्शन फिल्में करनी हैं. एक मेंटल लड़की का किरदार निभाना चाहती हूं. क्षेत्रीय फिल्मों में भी काम करना चाहती हूं. मैं अच्छा काम करना चाहती हूं और इंज्वॉय करना चाहती हूं. मेरे सपनों का कोई अंत नहीं है.
आइटम नंबर को लेकर आपकी क्या सोच है?
मेरा मानना है कि यदि फिल्म में आइटम नंबर की जरूरत है, तो आइटम नंबर होने चाहिए. कुछ लोग आरोप लगाते हैं कि आइटम नंबर की वजह से नारियों के साथ हिंसा हो रही है, नारियों के साथ बलात्कार हो रहे हैं, तो यह गलत है.