एकता कपूर, जो अपनी हर फिल्म, हर धारावाहिक में अंधविश्वासों का प्रचारप्रसार करती रहती है, अपनी इस फिल्म में भी इसी तरह के एक बाबा द्वारा एनलाइटन्मैंट की बात करते दिखाया है. बाबा को दरवाजा बंद कर के अपने कमरे में मस्त बैठा दिखाया गया है.
‘कुक्कू माथुर की झंड हो गई’ एक लाइट कौमेडी फिल्म है जिस में नायक को एनलाइटन्मैंट प्राप्त होती है जो उस का जीवन सुखद बना देती है, मगर दर्शकों की झंड जरूर हो जाती है.
कुक्कू माथुर (सिद्धार्थ गुप्ता) एक साधारण परिवार का युवक है. वह खाना अच्छा बना लेता है. उस का एक दोस्त रोनी गुलाटी (आशीष जुनेजा) है. वह अपनी कपड़े की दुकान चलाता है. कुक्कू एक प्रोडक्शन कंपनी में स्पौट बौय बन जाता है. कुक्कू की अपने दोस्त से अनबन हो जाती है. वह रोनी से बदला लेना चाहता है. अपने कजिन प्रभाकर भैया (अमित सियाल) के कहने पर वह रोनी के गोदाम से 15 लाख रुपए के कपड़े निकाल कर दुकान में आग लगा देता है. उन पैसों से वह एक रैस्टोरैंट खोल लेता है. जिंदगी चल निकलती है. पर एक दिन सबकुछ बदल जाता है.
कुक्कू एक बाबा से मिलता है जो उसे एनलाइटन्मैंट होने की बात कहता है. अचानक एक दिन कुक्कू को लगता है कि उसे एनलाइटन्मैंट हुआ है. वह रौनी को सब सच बता देता है और उसे चोरी किए कपड़ों से मिले रुपए लौटा देता है. उधर, रौनी के परिवार वालों को इंश्योरैंस का पैसा मिल जाता है तो वह कुक्कू की मदद कर के उस के साथ मिल कर कैटरिंग का बिजनैस खोलता है.
मध्यांतर से पहले तक फिल्म फनी मगर स्लो है, मध्यांतर के बाद सीरियस हो जाती है. फ्रौडी बाबा की भूमिका में बृजेंद्र काला ने अच्छा अभिनय किया है. अमित सियाल का कनपुरिया लहजे में बोलना अच्छा लगता है. बाकी सभी कलाकार नए हैं. उन्होंने कुछ खास नहीं किया है.
निर्देशन साधारण है. निर्देशक ने ‘माता’ के जागरण को जबरदस्ती फिल्म में डाला है और उसे काफी लंबा भी खींचा है. गीतसंगीत बेकार है.