शेक्सपियर के नाटक ‘हेमलेट’ से प्रेरित और कश्मीर की पृष्ठभूमि पर बनाई गई फिल्म ‘हैदर’ काफी सीरियस फिल्म है. फिल्म 90 के दशक में कश्मीर घाटी में फैले आतंकवाद के हालात को बयां करती है, साथ ही घाटी में लंबे समय तक फौजों की मौजूदगी, नागरिकों की तलाशी और हर वक्त उन के पास आइडैंटिटी कार्ड होने की अनिवार्यता के बावजूद वहां के हजारों नौजवानों का गायब हो जाना और फिर उन की लाशों का झेलम में मिलना जैसे मुद्दों को भी ईमानदारी से उठाती है. निर्देशक विशाल भारद्वाज इस से पहले शेक्सपियर के ही नाटकों ‘मैकबैथ’ और ‘ओथेलो’ पर क्रमश: ‘मकबूल’ और ‘ओमकारा’ जैसी फिल्में बना चुके हैं. ‘हैदर’ की पृष्ठभूमि एक ज्वलंत क्षेत्र की है जबकि ‘मकबूल’ और ‘ओमकारा’ की पृष्ठभूमि में अपराधजगत था. यह जोखिम का काम था और निर्देशक ने बखूबी उसे निभाया है
‘हैदर’ की विशेषता है शाहिद कपूर का अभिनय. शाहिद को इस फिल्म में अलगअलग अंदाज में देखा जा सकता है. अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से पढ़ कर लौटा सीधासादा शाहिद, लाल चौक पर राजनीति की खिल्ली उड़ाता शाहिद, अपने पिता से प्यार करता शाहिद, अपनी मां और चाचा से नफरत करता शाहिद, साथ ही अपनी प्रेमिका अर्शिया को पाने के लिए कुछ भी कर गुजरने वाला शाहिद. शाहिद कपूर ने एकएक सीन में जान डाल दी है. इस के अलावा ‘हैदर’ के अन्य किरदार, चाहे वह हैदर की मां गजाला (तब्बू) का किरदार हो या चाचा खुर्रम (के के मेनन) का या फिर हैदर की प्रेमिका अर्शिया (श्रद्धा कपूर) का, सब के सब बिना बोले ही अपनी मौजूदगी का एहसास करा देते हैं.
फिल्म की पटकथा जबरदस्त है. इसे विशाल भारद्वाज ने कश्मीर के पत्रकार बशारत पीर की किताब ‘कर्फ्यूड नाइट्स’ से प्रेरित हो कर लिखा है. विशाल भारद्वाज ने ‘हेमलेट’ की कहानी में कुछ बदलाव कर उस में बदले की कहानी को भी जोड़ा है.
कहानी अलीगढ़ में पढ़ कर अपने घर लौटे युवक हैदर (शाहिद कपूर) की है. हैदर को पता चलता है कि उस के पिता को सुरक्षा एजेंसियों वाले जांच के लिए पकड़ कर ले गए हैं और उस की मां गजाला (तब्बू) पर उस का चाचा खुर्रम (के के मेनन) डोरे डाल रहा है. अपने पिता की तलाश में हैदर का मानसिक संतुलन गड़बड़ा जाता है. इसी दौरान उसे पता चलता है कि उस के पिता की मौत हो चुकी है और उस की मां उस के चाचा से निकाह करने वाली है. उसे यह भी पता चलता है कि उस के पिता की गिरफ्तारी और मौत के पीछे अब नेता बन चुके उस के चाचा खुर्रम की ही साजिश थी. वह अपने चाचा से इंतकाम लेना चाहता है. उधर, उस की प्रेमिका अर्शिया का पुलिस कप्तान पिता डबल गेम खेल कर शाहिद को मरवाना चाहता है परंतु शाहिद उसे मार डालता है. खुर्रम अपने लावलश्कर के साथ हैदर को मारने के लिए पहुंचता है परंतु गजाला वहां पहुंच कर खुद को बम से उड़ा लेती है. बम धमाके में खुर्रम भी गंभीर रूप से घायल हो कर मर जाता है.
फिल्म में नायक का अपनी मां के प्रति अगाध प्रेम दिखाया गया है जो मनोवैज्ञानिकों की भाषा में ओडीपस कौंप्लैक्स कहा जाता है. नायक अपने पिता के हत्यारे से तो बदला लेना चाहता ही है, साथ ही पिता के अलावा किसी और की बांहों में मां को देख नहीं सकता. इसलिए उस ने चाचा को मार कर दोनों बदले लेने की कोशिश की है. यह एक अछूता विषय है और हमारे यहां इस पर फिल्म बनाने की बात तो दूर, कहानी लिखने की हिम्मत भी कम ही लोग कर पाएंगे. अच्छी कहानी के साथ फिल्म में शूटिंग का जबरदस्त योगदान है. कश्मीर की छवि भी जोरदार है. फिल्म की लंबाई ज्यादा है. श्रद्धा कपूर और शाहिद कपूर के रोमांस के दृश्यों ने ही थोड़ी राहत दी है वरना फिल्म शुरू से आखिर तक दर्शक के मन पर अपने सीरियसपन के साथ छाई रहती है.
फिल्म का निर्देशन बढि़या है. विशाल भारद्वाज ने कश्मीर घाटी की सुंदरता को सुंदर तरीके से दिखाया है. बहुत दिनों बाद किसी फिल्म में कश्मीर में बर्फ से ढकी घाटियां देखने को मिलीं. क्लाइमैक्स में बर्फ से ढके कब्रिस्तान में खूनी होली का खेल काफी खूंखार बन पड़ा है. फिल्म के बहुत से सीन डार्क हैं तो बहुत से सीन जगमग करते हुए दिखते हैं. फिल्म के संवाद अच्छे हैं. फिल्म के गीत गुलजार ने लिखे हैं. एक गीत ‘बिस्मिल बिस्मिल बुलबुल’ अच्छा बन पड़ा है, बाकी कोई गाना याद नहीं रहता. फिल्म का छायांकन अच्छा है. फिल्म देखने पर ही पता चलता है कि आखिर शेक्सपियर को क्यों महान नाटककार माना गया है.