जाति उत्पीड़न, भ्रष्ट आचरण और लालच के इर्द गिर्द घूमते कथानक वाली फिल्म ‘‘चौरंगा’’ में नवोदित निर्देशक बिकास रंजन मिश्रा ने सब कुछ बहुत ही ज्यादा सतही स्तर पर पेश किया है. गांव के अंदर रोजमर्रा की जिंदगी में जातिगत भेदभाव, नारी शोषण, गरीबों के अपमान का भी चित्रण है. मगर जाति उत्पीड़न के मुद्दे को अपने कंधे पर ढोने के लिए संतू बहुत ही ज्यादा छोटा है.
जाति उत्पीड़न को दर्शाने की बजाय इस फिल्म में उंची जाति के जमींदार पुरूष को नीची जाति की औरत के साथ सेक्स/मैथुन करते हुए ही ज्यादा दिखाया गया है. फिल्म में जमींदार व भूमिहीन मजदूरों के बीच का अंतर, अमीरी व गरीबी के बीच विभाजित समाज का चित्रण करने का प्रयास किया गया है, पर सब कुछ बहुत ही सतही स्तर पर है. फिल्म में मंदिर के अंधे पुजारी (ध्रतमान चटर्जी)के माध्यम से धार्मिकता की आड़ में पनप रही बुराई का नग्न चित्रण भी है.
‘‘चौरंगा’’कहानी एक युवा 14 वर्षीय दलित किषोर संतू (सोहम मैत्रा) के गुस्से की है. संतू का गुस्सा इस बात को लेकर है कि उसकी मां धनिया (तनिष्ठा चटर्जी) उसे उसके बड़े भाई बजरंगी (रिधि सेन) की तरह स्कूल पढ़ने के लिए नहीं भेजती है. धनिया का गांव के जमींदार धवल (संजय सूरी) के साथ गुप्त रूप से सेक्स संबंध चल रहे हैं. संतू दिन भर पेड़ पर चढ़कर धवल की बेटी मोना (इना झा) को स्कूटर पर स्कूल जाते हुए देखता रहता है और उससे प्रेम कर बैठता है. बजंरगी स्कूल की छुट्टियों में गांव आता है, तो गांव की उंची जाति के दो युवक उसे बेमतलब पीटते हैं. इनमें से एक युवक रघु (अंषुमन झा) है. एक युवक को संतू थप्पड़ मार देता है. एक तरफ धनिया व धवल की रात के अंधेरे में गौशाला के अंदर मैथुन लीला चल रही है, तो दूसरी तरफ दिन में पेड़ पर चढ़े संतू की नजरें मोना का पीछा करती रहती है.