मराठी फिल्म ‘‘धग’’ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म निर्देशक शिवाजी लोटन पाटिल से कुछ दिन पहले जब उनकी 1984 के सिख विरोधी दंगों पर आधारित फिल्म ‘‘31 अक्टूबर’’ को लेकर चर्चा हुई थी, तो उस वक्त शिवाजी लोटन पाटिल ने अपना दर्द बयां करते हुए कहा था कि, ‘‘सेंसर बोर्ड ने हमारी फिल्म के 40 दृश्य काट दिए.

उन्होंने बीच बीच में दृश्य काटे हैं, अब जो दृश्य हटा, उसकी जगह खालीपन आ गया, उसे भरने के चक्कर में आस पास के दृश्य भी हटाए, तो राजनीति के सारे  दृश्य हट गए.

आपके पास 12 पत्ते हैं, उसमें से दो पत्ते निकाल दें, तो वह जगह तो खाली हो ही जाएगी. फिल्म की आत्मा तो रही नहीं. हम उस वक्त की घटना की वास्तविकता को दिखाना चाहते थे, पर अब यह एक परिवार की भावानात्मक कहानी रह गयी है.’’

शायद इसी के चलते 31 अक्टूबर 1984 को पूर्व प्रधानमंत्री स्व.इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जिस तरह की घटनाएं हुई थीं, जिस तरह से सिस्टम व राज्य प्रायोजित कारनामे हुए थे, उनसे वाकिफ लोगों को फिल्म ‘‘31 अक्टूबर’’ देखकर इस बात का अहसास होना स्वाभाविक है कि फिल्म में हकीकत नहीं बयां की गयी है.

फिल्म ‘‘31 अक्टूबर’’ की शुरूआत 31 अक्टूबर 1984 की सुबह सात बजे से होकर देर रात तक चलती है. कहानी के केंद्र में सरदार देवेंद्र सिंह (वीर दास), उनकी पत्नी तेजेंदर कौर(सोहा अली खान) और उनके तीन छोटे बच्चे हैं.

फिल्म की शुरूआत में दिखाया गया है कि देवेंद्र सिंह व उनकी पत्नी तेजेंदर सिंह कितने भले लोग हैं. हर इंसान की मदद की ही बात सोचते हैं.

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