दो राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता अभिनेता मनोज बाजपेयी हाल ही में व्यावसायिक फिल्म‘‘सत्यमेव जयते’’ में जौन अब्राहम के साथ नजर आए, तो तमाम आलोचकों ने सवाल उठाया कि मनोज बाजपेयी जैसे समर्थ व प्रतिभावान अभिनेता को ‘सत्यमेव जयते’ जैसी फिल्म करने की क्या जरुरत पड़ी? मगर मनोज बाजपेयी का मानना है कि यह फिल्म सफल है और फिल्म का मकसद पूरा हुआ. वैसे वह यह भी दावा करते हैं कि उन्होंने दोस्ती निभाने के लिए यह फिल्म की.
जी हां! मनोज बाजपेयी उन कलाकारों में से हैं, जो हर फिल्म में अपने अभिनय से दर्शकों को आश्चर्यचकित करते रहते हैं. वह बड़े बजट की फिल्मों के बनिस्बत अपनी मन पसंद छोटे बजट व कंटेट प्रधान फिल्मों को प्राथमिकता देते आ रहे हैं.. फिर चाहे वह 1994 की फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ में डाकू मान सिंह का किरदार हो या 1998 की फिल्म ‘‘सत्या’’ का भीखू म्हात्रे का किरदार हो. या 2003 में आयी फिल्म ‘पिंजर’ का राशिद, जिसने उन्हे राष्ट्रीय पुरस्कार दिलाया. या फिर हंसल मेहता की 2016 में आयी फिल्म ‘‘अलीगढ़’’ में प्रोफेसर रामचंद्र सिरस का किरदार हो. या अब सात सितंबर को प्रदर्शित होने वाली फिल्म ‘‘गली गुलियां’ का खुदोस हो.
वैसे तो वह दो विचारोत्तजेक और अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में पुरस्कार जीत रही फिल्मों ‘लव सोनिया’ व ‘गली गुलियां’ को लेकर चर्चा में हैं. जिसमें से ‘लव सोनिया’ में मनोज बाजपेयी का एक छोटा सा किरदार है, मगर ‘गली गुलियां’ के वह नायक हैं. हाल ही में ‘‘मेलबार्न इंडियन फिल्म फेस्टिवल’’ में फिल्म ‘गली गुलियां’ के लिए मनोज बाजपेयी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के पुरस्कार से नवाजा गया.
फिल्म ‘‘गली गुलियां’’ में मनोज बाजपेयी ने खुदोस का अति कठिन किरदार निभाया है, जो कि शारीरिक व मानसिक रूप से पुरानी दिल्ली की गलियों में फंसा हुआ है. मनोज बाजपेयी इस फिल्म को अपनी अब तक की सर्वश्रेष्ठ फिल्म के साथ साथ अति बेहतरीन परफार्मेंस मानते हैं.
फिल्म ‘‘गली गुलियां’’ और इसमें आपका अपना किरदार क्या है?
यह फिल्म खुदोस नामक एक ऐसे आदमी की कहानी है, जो कि पुरानी दिल्ली की गलियों में फंसा हुआ है. मानसिक और शारीरिक रूप से वह वहां से बाहर निकलना नहीं चाहता. वह अपने आंतरिक अंर्जद्वंदों से लड़ रहा है. वह पेशे से इलेक्ट्रीशियन है. दूसरों के घरों में क्या चल रहा है, इसे जानने के लिए उसने चोरी से लोगों के घरों में कैमरे लगा रखे हैं और अपने घर में बैठकर वह सब कुछ देखता रहता है. दूसरों की कहानी, उनकी जिंदगी पर नजर महज इस सुख को पाने के लिए रखता है कि उसकी जिंदगी उन सभी से बेहतर है. उसके दोस्त घर की चारी दीवारी और सीसीटीवी कैमरे हैं. उसे अब घर से बाहर निकलने में डर लगता है. उसे जब एक छोटे बच्चे की चीख सुनाई देती है, जो कि पड़ोस में है और अपने पिता से हर दिन मार खाता रहता है. वह इस बच्चे को बचाना चाहता है.
पूरी फिल्म में वह इस बच्चे की तलाश करता रहता है. अब सवाल है कि उसे बच्चा मिलता है या नहीं मिलता है? उन गलियों में यह रह पाता है या नहीं रह पाता है. लोग जिंदगी में जो कुछ देखते हैं, उससे हासिल क्या होता है? इन सभी की कहानी है फिल्म‘‘गली गुलियां’’. कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में पुरस्कृत होने के बाद अब यह फिल्म 7 सितंबर को भारतीय सिनेमाघरों में प्रदर्शित हो रही है. मेरे अनुसार मेरे जीवन का सबसे बेहतरीन काम फिल्म ‘गली गुलियां’ में है. मेरे मापदंडों के अनुसार यह मेरे जीवन की बेहतरीन परफार्मेंस है. बेहतरीन फिल्म है.
आपके लिए सबसे बड़ी चुनौती क्या रही?
खुदोस के चरित्र में कई परते हैं. इन परतों को समझने के अलावा खुदोस के दिमाग और उसकी जटिलता को समझना सबसे बड़ी चुनौती रही.
अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में ‘‘गली गुलियां’’ पर लोगों की क्या प्रतिक्रिया रही?
मैं हाल की ही बात लेता हूं. जब मेलबार्न फिल्म फेस्टिवल में मुझे इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला. वहां की ज्यूरी के सभी विदेशी सदस्यों ने पुरस्कार देने के बाद मुझसे बात की. सभी ने एक ही बात कही कि, ‘एक लाइन में पांच बातें कहना अमूमन होता नहीं है, पर इस फिल्म में ऐसा है.’ देखिए, जब किसी फिल्म में लेखक या किरदार एक ही लाइन में पांच महत्वपूर्ण बातें कहता है, तो वह लोगों को बहुत भाता है. फिल्म में बच्चे इदरीस और खुदोस की आपस में मुलाकातें न होने के बावजूद जो रिश्ता है, वह लोगों के दिलों को छू गया.
लोग इस फिल्म के साथ इसलिए रिलेट कर रहे थे, क्योंकि बच्चे का दुःख, बच्चे का दर्द तो युनिवर्सल है. वह असल है. इस दुःख व दर्द को भारतीय हो अमरीकन हो या इराकी हो, सभी समझते हैं. बच्चे का दर्द, खुदोस की उस बच्चे की तलाश यह बात हर किसी को बहुत अच्छी लगी. दिल्ली के माहौल में अपने आप में घुटन महसूस करना भी कमाल की बात लगी. यह बात लोगों के दिलो को अंदर तक छू गयी.
जब आपके पास इस फिल्म का औफर आया, तो क्या इस किरदार के लिए आपको कोई तैयारी करनी पड़ी?
जी नहीं. मैं किसी से नहीं मिला. मैं नहीं चाहता था कि मैं किसी डाक्टर से मिलूं और उससे रोग के बारे में चर्चा करुं. मुझे रोग नहीं, इस इंसान के बारे में जानना था. हमारे यहां जब कोई इंसान किसी अन्य तरह से सोचता है, तो हम उसे रोगी मान लेते हैं. पर मैं खुदोस को मनोरोगी नहीं मानना चाहता था. मैं जानना चाहता था कि यह इंसान इस तरह का है, तो क्यों है? वह जो कुछ कह रहा है, उसकी वजहें क्या हैं? उसकी प्रताड़ना व दुःख क्या है? इसकी खोज क्या है? उसके रिश्ते क्या हैं?
कहा जा रहा है कि यह वास्तविक कहानी है? तो क्या ऐसे किसी इंसान से आपकी मुलाकात हुई?
किसी किरदार की तैयारी के लिए मैं किसी इंसान से मिलने में यकीन नहीं करता. देखिए, गांव से लेकर यहां तक मैने अपनी जिंदगी जी है. इस दौरान मेरा साबका कई तरह के लोगों से निरंतर पड़ता रहा है. मेरी यात्रा के दौरान खुदोस जैसे लोग भी मुझे मिले. मगर यह रिकार्ड है कि किसी किरदार को निभाने के मकसद से मेरी किसी से मुलाकात नहीं हुई. अगर आप यह कहते हैं कि किरदार को निभाने से पहले होमवर्क के लिए ऐसे इंसान से मैं नहीं मिला, इसलिए मैं बुरा कलाकार हूं, तो मैं इस बात को भी मानने के लिए तैयार हूं. मैं तमाम कलाकारों के इंटरव्यू देखता व पढ़ता रहता हूं, जो दावा करते हैं कि किस किस इंसान से मिले, पर मैं नहीं मिलता, यह सच है. ईश्वर की दया से आज तक नहीं मिला. मैंने जीवन इस तरीके से जिया है और हजारों लोगों से मिला हूं कि मुझे हर किरदार जाना पहचाना लगता है. हर इलाका, हर गली मुझे देखी व जानी पहचानी लगती है. इसके लिए मुझे कहीं जाने की जरुरत महसूस ही नहीं होती. सिर्फ मुझे अपनी याददाश्त को तेज करने व कल्पना शक्ति को बढ़ाने की जरुरत होती है, वही मैं करता हूं.
जो कलाकार दावा करते हैं कि उन्हे फलां किरदार के लिए फलां से मिलना पड़ा. तो क्या आप मानते हैं कि वह अपने आब्जर्वेशनमें कमजोर रहे हैं?
मेरा हमेशा से मानना है कि किसी किरादार को निभाने के लिए किसी से मिलना जरुरी नही है. कुछ लोग किरदार को निभाने से पहले कुछ लोगों से मिलने जाते हैं, शायद इससे उनकी जिंदगी आसान होती होगी. पर मेरे जैसे कलाकार नहीं जाते. देखिए, किरदार को लेकर तैयारी के संदर्भ में शेखर कपूर ने बहुत पहले कहा था कि, ‘मुझे नहीं जानना कि आप किरदार को निभाने के लिए क्या करते हैं. मुझे तो कैमरे के सामने परिणाम चाहिए, परफार्मेंस चाहिए.’’ हर निर्देशक को परफार्मेंस/परिणाम ही चाहिए, वह आप चाहे जैसे करके लाइए. हर कलाकार का काम करने का ढंग रहा है. मेरा अपना ढंग रहा है. मैं लोगों से अपनेपन के साथ मिलता हूं.
मुलाकात के दौरान यह जानने की कोशिश करता हूं कि वह कहां से आए हैं, उनके संघर्ष क्या रहे हैं, उनकी उपलब्धियां और उनके जीवन के उतार चढ़ाव क्या रहे. जिससे जब मुझे वैसा किरदार निभाने का मौका मिले, तो मैं अपनी याददाश्त को टटोलकर उस तरह के किरदार को कैमरे के सामने बड़ी सहजता के साथ पेश कर सकूं. मिलनसार स्वभाव के चलते मैं लोगों को अपना दोस्त बनाता रहता हूं. इससे मेरे कलाकार को फायदा मिलता है.
मगर समय के बदलाव के साथ अक्सर कलाकार बताते हैं कि उन्होंने अमरीका जाकर फलां फिल्म इंस्टीट्यूट से अभिनय का चार वर्ष का प्रशिक्षण लेकर आए हैं. क्या अभिनय का यह प्रशिक्षण लाभदायक होता है?
मैं नहीं मानता. आप अमरीका जाकर तकनीक सीखते हैं, तो यह बात मेरी समझ में आती है. मगर अभिनय का प्रशिक्षण अमरीका या किसी अन्य देश में जाकर लेने की बात मेरी समझ से परे है. जब आपको हिंदी व भारतीय फिल्मों में अभिनय करना है, तो फिर आपको अमरीका जाने की जरुरत क्या है? भारत में ‘राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ , ‘पुणे फिल्म संस्थान’ के अलावा कुछ निजी प्रशिक्षण संस्थान हैं. अब तो भोपाल, लखनऊ में भी कुछ अच्छे प्रशिक्षण संस्थान हैं. इसके अलावा लगभग हर शहर में अभिनय के वर्कशाप होते रहते हैं. मेरा मानना है कि आप तीन नाटकों में अभिनय करोगे, तो ज्यादा बेहतर तरीके से अभिनय सीख जाओगे. अमरीका या दूसरे देश में अंग्रेजी में अभिनय सीखने की बनिस्बत अच्छा है कि आप हिंदुस्तान के भ्रमण पर निकल जाएं, विदेश जाकर अभिनय सीखने का कांसेप्ट गलत है. यह बात मेरी समझ में नहीं आती, हो सकता है कि जो वहां जा रहे हैं, उन्हे कोई फायदा हो रहा हो.
जब लोग आपसे आपकी असफल फिल्मों की चर्चा करते हैं, तो आपको गुस्सा आता है?
किसने कहा? पर सच यह है कि यहां लोग मेरी सफल फिल्मों की बजाय असफल फिल्मों की ही चर्चाएं करते हैं. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जो लोग मेरी फिल्म ‘‘अलीगढ़’’ को सिनेमाघरों में देखने में हिचकिचा रहे थे, वही अब इसे क्लासिक फिल्म की संज्ञा दे रहे हैं. देखिए, आम दर्शक मुझे अपने बीच का इंसान मानते हैं. वह मेरे किरदारों के साथ खुद को जोड़ पाते हैं. जब मैं अलग अलग तरह की फिल्में दर्शकों के सामने रखता हूं, तो उनकी तरफ से मुझे जो प्यार मिलता है, उसे मैं अहसास करता हूं. आम दर्शकों को मेरी फिल्में याद रहती हैं. वह मेरे किरदारों पर आपस में चर्चा करते हैं. यही मेरी सफलता है. इसीलिए मैं बड़े बजट की बजाय छोटे बजट की कंटेंट प्रधान फिल्में करने में यकीन रखता हूं.
मगर ‘‘सत्यमेव जयते’’ तो पूरी तरह से व्यावसायिक फिल्म है?
देखिए, फिल्म के निर्माता और निर्देशक लंबे समय से मेरे साथ काम करना चाहते थे. वह मेरे दोस्त भी हैं. तो दोस्ती के लिए यह फिल्म की. इससे पहले मैंने दोस्ती के लिए ही ‘‘बागी 2’’ भी की थी. दूसरी बात जौन अब्राहम बहुत अच्छे इंसान हैं. उनका साथ मुझे अच्छा लगा. इस फिल्म में इमोशंस के साथ टकराव भी था. हमारे देश के भ्रष्टाचार जैसे अहम मुद्दे पर यह फिल्म बहुत कुछ कहती है.
इसके बाद क्या करने वाले हैं?
‘‘सोन चिरैया’’ सहित कुछ फिल्में कर रहा हूं. उचित समय पर उनके बारे में बातें होंगी.