पिछले 11 वर्षों से “सब टीवी” पर प्रसारित हो रहे सफलतम सीरियल “तारक मेहता का उल्टा चश्मा” के क्रिएटिव कंसलटेंट और सीरियल में इंस्पेक्टर चालू पांडे के किरदार को निभाते हुए शोहरत बटोर रहे अभिनेता दयाशंकर पांडे किसी परिचय के मोहताज नहीं है. लोग उन्हें फिल्म “लगान” के गोली, “मकड़ी” के स्कूल टीचर, ” गंगाजल” के सब इंस्पेक्टर मगनीराम,” मकबूल” के मास्टर जी ,”अपहरण” के दयाशंकर, ” एक अजनबी”के कृपा, ” राजनीति” के रामचरित्र, “जंजीर”के इंस्पेक्टर प्रेम ,”जाने क्यों दें यारों ” के आकाश दुबे के रूप में बेहतर तरीके से पहचानते हैं. दया शंकर पांडे ने पिछले 28 वर्षों के दौरान सिर्फ फिल्मों में ही नहीं ,बल्कि टीवी सीरियल और थिएटर पर भी अपने अभिनय से लोगों का मन मोहते आए हैं. वह एक पात्रीय नाटक “पॉपकॉर्न विथ हरिशंकर परसाई”के माध्यम से भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाते रहे हैं .
इन दिनों वह 7 अगस्त को ओटीईटी प्लेटफार्म “शेमारू बॉक्स ऑफिस” पर आ रही फिल्मकार मनीष वात्सल्य की फिल्म “स्कॉटलैंड” को लेकर काफी उत्साहित हैं. इस फिल्म में हरिराम पांडे के किरदार को निभाना उनके लिए भावनात्मक रूप से काफी चुनौतीपूर्ण रहा.
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प्रस्तुत है दया शंकर पांडे से हुई एक्सक्लूसिव बातचीत के अंश:
4 माह बाद ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा‘ की शूटिंग करने के अनुभव?
-जी हां !काफी लंबे समय बाद पुनः कैमरे का सामना किया .देखिए, डर का माहौल तो है. मगर सेट पर सुरक्षा के काफी उपाय किए गए हैं. लाइट मैन से लेकर कलाकार सभी के मन में भय है. पर अब काम तो करना ही है .धीरे-धीरे यह डर भी खत्म हो जाएगा. लोग खान-पान पर, इम्यूनिटी बूस्टर पर ध्यान दे रहे हैं.सेट पर सैनिटाइजर का उपयोग कर रहे हैं . सच कहूं तो बहुत दिनों से टैलेंट दबा हुआ था, तो 4 माह बाद वाले दिन सिर्फ कैमरे के सामने पहुंचते ही भड़ास निकल गयी. ओवरएक्टिंग भी कर गया.
लॉकडाउन के 4 माह कैसे बीते?
– कुछ दिन किताबें पढ़ी, फिल्में देखी, कुछ पूजा-पाठ किया। अप्रैल, मई-जून इन माह में ऐसा लग रहा था कि मौत का जहाज खड़ा है और लोग लाइन में खड़े हैं. ऐसे समय में मुझे फिल्म ‘हिटलर’ के कुछ दृश्य भी याद आए. सभी कतार में खड़े हैं और इंतजार कर रहे हैं कि हम कब मरेंगे .तो इन चार माह के दौरान हमें भी लग रहा था कि हम नौका पर बैठे हुए हैं. तो हम सभी मौत के भय से ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे.
कैरियर के टर्निंग प्वाइंट क्या रहे हैं?
– मेरे कैरियर का पहला टर्निंग प्वाइंट तो आमीर खान के साथ फिल्म “गुलाम” का मिलना ही रहा. दूसरा टर्निंग प्वाइंट ‘लगान’ थी. वैसे तो भारतीय सिनेमा जगत के लिए भी यह फिल्म भी एक टर्निंग प्वाइंट थी. इस फिल्म के बाद निर्माता-निर्देशक से मेरा मिलना आसान हो गया. वरना फिल्मकारों से मिलना आसान नहीं होता था. उन दिनों मोबाइल , व्हाट्सएप, इंटरनेट, ईमेल, सोशल मीडिया , नही था, जिनके उपयोग से हम अपनी प्रतिभा के बारे में लोगों को बता सकते. ‘लगान’ के बाद जैसे ही मैं लोगों से कहता कि फिल्म ‘लगान’ वाला कलाकार दयाशंकर पांडे हूं, तो लोग तुरंत मिलने के लिए बुला लेते.जबकि ‘लगान’ से पहले काफी सवाल पूछे जाते थे. पर अब सवालों की बौछार कम हो गयी. ‘लगान’ के बाद लोगों ने हमें अच्छा कलाकार मानना शुरू कर दिया था. फिर ‘गंगाजल’, ‘स्वदेश’ जैसी फिल्में मिली.बड़े बड़े निर्देशकों को मेरी प्रतिभा पर यकीन हुआ. यह एक बड़ा बदलाव रहा. इसके बाद 2008 में टीवी सीरियल” महिमा शनिदेव की” भी आया. यह ऐसा किरदार रहा, जिसने कलाकार व इंसान के तौर पर काफी संतुष्ट दी. सीरियल का फॉर्मेट ऐसा है कि हर एपिसोड में मुझे अलग किरदार निभाने को मिल रहा था. यह मेरे लिए चुनौती थी. आज जब ‘दंगल’ पर इसका पुनः प्रसारण हो रहा है, तो लोग हमें फिर याद कर रहे हैं. अब जब लोग फोन पर या सोशल मीडिया पर कहते हैं कि उन्होंने मेरा सीरियल ‘महिमा शनिदेव’ देखा, तो सुनकर खुशी होती है. हमें यह अहसास होता है कि हमारी मेहनत बेकार नहीं गयी. इस तरह से यह कैरियर का बड़ा टर्निंग प्वाइंट था. फिर सीरियल ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ में मेरा चालू पांडे का किरदार भी टर्निंग प्वाइंट रहा. मैं शुरू में इस सीरियल के साथ क्रिएटिव कंसलटेंट के रूप से जुड़ा था. पर उम्मीद नहीं थी कि इसे इतनी सफलता मिलेगी. तो कई चीजें उम्मीद से ज्यादा अच्छी हो जाती हैं. जब हम किसी फिल्म में अपनी तरफ से मेहनत करते हैं और वह असफल हो जाती है, तो दुख होता है कि मेरी मेहनत को लोगों ने तवज्जो नहीं दी.
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मैं एक नाटक किया था “पॉपकॉर्न विथ हरिशंकर परसाई”. फिलहाल यह बंद पड़ा हुआ है .यह हरिशंकर परसाई का लिखा हुआ एक पात्रीय नाटक है. एक घंटा 20 मिनट तक स्टेज पर मैं यह परफॉर्म करता था. लोग तारीफ करते थे. मगर कलाकार की भड़ास होती है कि मेरा काम ज्यादा से ज्यादा लोग देखें. एक घंटा 20 मिनट बिना किसी इंटरवल के अकेले परफॉर्म करना ,लोगों से प्रशंसा भी मिली. पर दुख होता था कि उसे जितने दर्शक मिलने चाहिए, नहीं मिल रहे थे .तो कुछ खुशियां हैं, कुछ दुख भी हैं. कुछ असंतुष्टि भी है तो कुछ संतुष्टि भी है. यदि कलाकार संतुष्ट हो जाए,तो मान ले कि वह समय बिताने के लिए अभिनय कर रहा था. अन्यथा कलाकार कभी पूर्णरूपेण संतुष्ट नहीं होता.
आपने काफी अच्छा काम किया पर आपको नहीं लगता कि जिस मुकाम पर पहुंचना चाहिए था, वह मुकाम नहीं मिल पाया?
– जब पत्रकार मुझसे यह सवाल करते हैं, तो मुझे अंदर से खुशी होती है कि यह जानकर कि मेरे अभिनय की सराहना करने वाले लोग हैं . पर मैं स्वयं आज तक नहीं समझ पाया कि ऐसा क्यों हुआ? कभी-कभी मेरी बेटी से उसके मित्र जब मेरे अभिनय की तारीफ करते हैं, तो लगता है कि एक कॉन्प्लीमेंट मिला.पर धीरे-धीरे अहसास होने लगा है कि मेरी प्रतिभा के अनुरूप मुझे काम और शोहरत नहीं मिली. इसका जवाब मैं किससे मांगू ?यह खुद मुझे समझ में नहीं आता. यदि कलाकारों का अपना कंजूमर कोर्ट होता, तो मैं उससे यह सवाल पूछता. मुझे खुशी है कि आप भी मुझे काबिल समझते हैं कि मुझे जिस मुकाम पर होना चाहिए था ,वहां पर नहीं पहुंच पाया. दुख भी होता है पर मेरे वश में कुछ नहीं है .बॉलीवुड में आमीर खान, आशुतोष गोवारीकर सहित सभी बड़े लोग मेरे दोस्त हैं, मगर उनका मेरे प्रति नजरिया क्या है ,यह समझ में नहीं आता. इस फिल्म इंडस्ट्री का रिवाज है कि ‘दिल मिले या ना मिले , हाथ मिलाते रहिए.’ इसलिए यह समझना मुश्किल है कि कौन मित्र है और कौन हमारा भला चाहता है. सच कहूं तो मैं ईश्वर के भरोसे ही चल रहा हूं.
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आपने कुछ धार्मिक सीरियलों मैं अभिनय किया, तो ऐसे में इमेज में बनने का डर नहीं सताया?
मैं डरता नहीं हूं. मैंने हमेशा अलग-अलग तरह के किरदार ही निभाए हैं. मैंने कभी अपने आप को पर्दे पर दोहराया नहीं है. ‘लगान’ में गोली था. फिर ‘मेला’ में अलग. ‘स्वदेश’ में अलग किरदार किया. ‘गंगाजल’ में पुलिस अफसर का किरदार किया.इससे पहले वेब सीरीज ‘रक्तांचल’ में एक करप्ट नेता का किरदार निभाया. मुझे अपनी तारीफ करने में शर्म आती है, पर मैं हमेशा नेचुरल अभिनय करता हूं. लोग मुझे जमीन से जुड़ा हुआ कलाकार मानते हैं, यह मेरा स्वभाव भी है. मैं हर किरदार को एक यकीन के साथ करता हूं.
आपने कहा कि आपको खुद की प्रशंसा करने में शर्म आती है ,मगर बॉलीवुड में हर किसी को अपनी ढोल खुद बजानी पड़ती है?
– शायद…अब मुझे भी इस बात का अहसास हो रहा है.पर पता नहीं क्यों मैंने स्वयं कभी अपने ढोल पीटने की कोशिश नहीं की .जब लोग मुझसे सवाल करते हैं, तो अच्छा लगता है.मुझे यह बात खुशी देती है कि लोगों को मेरे अभिनय की कद्र है .पर अब तक मेरे कैरियर में अचानक ही सब कुछ होता रहा है, इसलिए मुझे उम्मीद है कि आगे भी कुछ अच्छा हो जाएगा. ‘गंगाजल’ की शूटिंग शुरू होने से 3 दिन पहले मेरा चयन हुआ था. ‘महिमा शनिदेव’ के लिए 4 दिन पहले मुझे याद किया गया. तो ईश्वर मेरे साथ हमेशा ही अच्छा करता रहा है, आगे भी कुछ अच्छा करेगा. सीरियल” तारक मेहता का उल्टा चश्मा” से अच्छी शोहरत मिल रही है .इसके अलावा 7 अगस्त को “शेमारू बॉक्स ऑफिस” पर फिल्म “स्कॉटलैंड” रिलीज होगी, इसमें भी मेरे किरदार को पसंद किया जाएगा ,ऐसी उम्मीद है.
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फिल्म ‘स्कॉटलैंड‘ को लेकर क्या कहेंगे?
– मनीष वात्सल्य निर्देशित फिल्म ‘स्कॉटलैंड’ 7अगस्त को ‘शेमारू बॉक्स ऑफिस’ पर रिलीज हो रही है. यस सत्य घटनाक्रम पर आधारित फिल्म है. इसकी कहानी के केंद्र मैं एक नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार की घटनाएं हैं. इसमें मैंने हरी राम पांडे नामक ऐसे इंसान का किरदार निभाया है, जिसकी बेटी के साथ कई बार बलात्कार हो चुके है और एक दिन बेटी अपने साथ हुए बलात्कार की घटनाओं के बारे में अपने पिता को बताती हैं. फिर यह अपराधियों को सजा दिलाने के लिए कमर कस लेता है.
पिछले 25 वर्ष के दौरान फिल्म व टीवी इंडस्ट्री में जो बदलाव आए हैं उन्हें किस तरह से देखते हैं?
– कुछ बदलाव तो अच्छे हुए.मगर कुछ बदलाव खटक रहे हैं. नई पीढ़ी के निर्देशक हम कलाकारों पर यकीन नहीं करते. जबकि हम उन पर यकीन कर लेते हैं. उदाहरण के तौर पर हम उनका काम देखे बिना उनके साथ काम करने को तैयार हो जाते हैं, पर वह हमारी परीक्षा लेते हैं. उनकी कोई गारंटी नहीं कि वह सत्यजीत रे हैं .जबकि वह हमेशा उम्मीद रखते हैं कि हम अमिताभ बच्चन है या नहीं? हम पिछले 28 वर्ष से अपनी प्रतिभा को दिखाया व साबित कर चुके हैं. फिर भी हम परीक्षा देने को तैयार हैं ,पर आप हमसे वादा करो कि आप भी उसी योग्य साबित हो.नए निर्देशकों को हम पर यकीन करना चाहिए.
हिंदी थिएटर के हालात को लेकर आपकी क्या सोच है?
– हिंदी थिएटर के हालात बहुत अच्छे नहीं हैं .इसकी व्यवहारिक वजह है. हिंदी के दर्शकों के लिए मनोरंजन के साधन बंटे हुए हैं.वह मनोरंजन के लिए फिल्में, टीवी सीरियल, वेब सीरीज, नाटक आदि देख रहे हैं. ऐसे में उनकी प्राथमिकता फिल्में हो जाती हैं .जबकि गुजराती मराठी भाषा में भी फिल्में बन रही हैं. मगर वह थिएटर को ज्यादा महत्व देते हैं. फिल्म व थिएटर के दर्शकों की मानसिकता में अंतर भी होता है. मेरा अनुभव यही कहता है कि दर्शक बंट चुका है. अब बोरीवली में रह रहा दर्शक जुहू के पृथ्वी थिएटर में हिंदी नाटक देखने जाने से पहले 10 बार सोचता है.
आपके शौक क्या है?
– फिल्में देखना, किताबें पढ़ना, घूमना पसंद है. मैं यात्रा करते समय स्थानीय लोगों से मिलता हूं ,उनसे बातें करता हूं, उनकी जीवनशैली, सुख-दुख के बारे में उनसे सुनता हूं. आसाम, अरुणाचल सहित कई राज्यों में गया हूं. अनजान जगह जाकर अनजान लोगों से बातें करने का मुझे शौक है .मुझे अनजान लोगों से बातें करना अच्छा लगता है.
निर्माता या निर्देशक बनने की इच्छा नहीं होती?
– मुझे निर्देशक बनना है. काफी समय पहले असित मोदी के सीरियल ‘ये दुनिया है रंगीन’ का मैंने व धर्मपाल ने निर्देशन किया था. असित मोदी ,मैं और धर्मपाल एक ही कॉलेज से हैं .पर ‘लगान’ हिट होते ही मुझे अभिनय के अवसर मिल गए ,तो धर्मपाल के जिम्मे छोड़ कर मैं अभिनय में व्यस्त हो गया था. ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ का मैं क्रिएटिव कंसलटेंट क्रिएटिव डायरेक्टर हूं .
अब तो लघु फिल्में, वेब सीरीज कई अवसर हैं?
-लघु फिल्मों की जो दुनिया है, वह व्हाट्सएप और तारीफों की दुनिया है.पर जल्द कुछ करने का इरादा है. मैं ऐसा कुछ निर्देशित करना चाहूंगा ,जिसमें समाज के लिए कुछ संदेश होगा. ‘स्वदेश’ मेरे दिल के करीब की फिल्म है.
शांति स्वरूप त्रिपाठी