18 जून 2019 को संसद भवन सत्रहवीं लोकसभा के नवनिर्वाचित सदस्यों की हरकतों को देखकर स्तब्ध था. वह सांसदों के धार्मिक नारों से थरथरा रहा था. धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के नवनिर्वाचित सांसद संसद भवन में भारतीय संविधान के प्रति पूरी सच्चाई और निष्ठा रखने की शपथ ले रहे थे – ‘मैं (सांसद का नाम) जो लोकसभा का सदस्य निर्वाचित हुआ हूं, ईश्वर की शपथ लेता हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा. मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूंगा तथा जिस पद को मैं ग्रहण करने वाला हूं, उसके कर्तव्यों का श्रद्धा पूर्वक निर्वहन करूंगा.’ यह शपथ लेने के बाद वे अपने-अपने धर्म से जुड़े जयकारे लगा रहे थे. देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद का निचला सदन सांसदों के शपथ ग्रहण के दौरान धर्म की पहचान बताने का अखाड़ा बन गया था. ज्यादातर सांसदों ने शपथ लेने के बाद नियमों के विरुद्घ धार्मिक पहचान से जुड़े नारे पुरजोर आवाज में लगाये. मेजें बजा-बजा कर लगाये. कोई जय श्रीराम का उद्घोष कर रहा था, कोई बिस्मिल्लाहहिर्ररहमाने रहीम, अल्लाह हो अकबर कहता था, किसी ने जय दुर्गा, जय काली का उग्र-घोष किया, किसी ने जय भीम, किसी ने हर-हर महादेव कहा, किसी ने वन्दे मातरम् तो किसी ने राधे-राधे कहा. लोकसभा के इतिहास का यह सम्भवत: पहला मौका था जब शपथ लेने के बाद इतनी बड़ी संख्या में सांसद धार्मिक नारे लगाते दिखे. नई लोकसभा में जो हो रहा है वो भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में इससे पहले कभी नहीं हुआ. 17वीं लोकसभा की कार्यवाही के पहले दो दिनों में जो हुआ, उसे देख डर लगता है. इन दो दिनों में नये सांसदों ने संविधान के प्रति सच्ची निष्ठा और श्रद्धा रखने की शपथ ली, लेकिन इसी शपथ के दौरान बार-बार संविधान की बेकद्री हुई. जिस संविधान में राष्ट्र को एक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र घोषित किया गया है, उसी संविधान की शपथ लेते हुए क्या धार्मिक नारे लगाना सही था? संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को एक मौलिक अधिकार बताया गया है. तो फिर किसी और की शपथ के समय ‘जय श्री राम’ या ‘अल्लाह हो अकबर’ के नारे लगाकार ये सांसद संविधान का पालन कर रहे थे या तोड़ रहे थे? जय श्री राम और अल्लाह हो अकबर के नारे संसद में? लोकतंत्र के सबसे पवित्र मंदिर में? आखिर हो क्या रहा था? 17वीं लोकसभा का आगाज ऐसा है तो इसका अंजाम क्या होगा?
पिछली बार संसद की सीढ़ी पर शीश नवाने वाले, और इस बार संविधान के आगे नतमस्तक हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संसद भवन का नजारा देख कर पूरे वक्त मंद-मंद मुस्कुराते रहे. स्पीकर साहब भी बड़े धीरे शब्दों में बस इतना ही कह पाये कि यह बात रिकौर्ड में नहीं ली जाएगी. जबकि उनको सख्ती बरतते हुए इन हरकतों से सांसदों को रोकना चाहिए था. मगर उन्होंने भी सांसदों की हरकतों पर लगाम लगाने की जरूरत नहीं समझी. वे लगाम तो तब लगाते जब देश के संविधान को पढ़ा और माना होता. संविधान के आगे नतमस्तक हुए प्रधानमंत्री उठ कर एक बार कह देते कि संसद के अन्दर जय श्रीराम, जय दुर्गा या अल्लाह हो अकबर नहीं होना चाहिए क्योंकि यह संविधान की मूल भावना के खिलाफ है, तो लगता कि देश के संविधान की इज्जत और गरिमा उनके हाथों में महफूज है. स्पीकर साहब एक बार कह देते कि संसद किसी भी तरह के नारे लगाने के लिए नहीं है. नारे सड़कों पर, रैलियों में, विरोध प्रदर्शनों में लगाये जाते हैं, तो लगता कि उन्होंने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की लाज बचा ली. मगर न प्रधानमंत्री बोले ने स्पीकर और संसद भवन अपने भीतर अपने संविधान को धज्जी-धज्जी होते देखता रहा.
यह धार्मिक नारे अगर शालीनता के दायरे में रह कर लगाये जा रहे होते तो भी आपत्ति न होती, सांसदों द्वारा संविधान की शपथ उठाने के बाद अपने ईष्ट को याद करने में कोई बुराई नहीं थी, मगर यह नारे तो सामूहिक रूप से लग रहे थे. यह नारे चिल्ला-चिल्ला कर लगाये जा रहे थे. विरोधियों को उत्तेजित करने और चिढ़ाने के इरादे से लगाये जा रहे थे. यह नारे अपना वर्चस्व जाहिर करने के लिए लगाये जा रहे थे. जय श्रीराम का नारा संसद भवन में पुरजोर तरीके से उस वक्त गूंजा जब मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन के सांसद असुददि्न ओवैसी शपथ लेने के लिए आये. यह नारा तब भी बड़ी जोर से गूंजा जब तृणमूल कांग्रेस के नेत्री शपथ लेने वेल में आयीं. आखिर अपने पूज्य मर्यादा पुरुषोततम का नाम किसी को चिढ़ाने के लिए लेने वाले भला किस तरह के रामभक्त हो सकते हैं? दरअसल मकसद भगवान श्रीराम को याद करना नहीं था, मकसद था मुसलमानों को हिन्दुत्व की ताकत दिखाना और मोदी की सत्ता को चुनौती देने वाली तृणमूल कांग्रेस को चिढ़ाना.
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इस मामले में सांसद असदउद्दीन ओवैसी भी पीछे नहीं रहे. उन्होंने हाथ उठा-उठा कर नारे लगाने वालों को उत्तेजित किया, कहा और लगाओ, और लगाओ, फिर खुद भी उन्होंने संविधान की रक्षा की शपथ लेने के बाद बुलंद आवाज में ‘अल्लाह हो अकबर’ का नारा लगाया. ओवैसी को कानून का बेहतर जानकार माना जाता है, मगर अफसोस कि ओवैसी साहब भी हवा के बहाव में बह गये. एक बार यह नहीं कह सके कि संसद भवन के अन्दर संविधान की गरिमा को बनाये रखना हम सांसदों का फर्ज़ है, इसलिए यहां धार्मिक नारों से बाज आया जाए. चाहते तो कह सकते थे कि संसद में जय श्रीराम और अल्लाह-हो-अकबर दोनों ही नहीं होने चाहिए. यहां सिर्फ जनता और देश के हित की बातें होनी चाहिए. चाहते तो कह सकते थे कि संसद बहस के लिए है, कानून बनाने के लिए है, देश की दिशा तय करने के लिए है, बजट पास कराने के लिए है, सत्ता पक्ष की नीतियों को चुनौती देने के लिए है, न कि धार्मिक उन्माद फैलाने के लिए.
जब संसद के पहले ही सत्र में यह हाल है तो आने वाले पांच सालों में संसद भवन क्या-क्या नजारे देखने वाला है, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है. लोकसभा चुनाव परिणामों को मोदी का करिश्मा और उग्र हिन्दुत्व की जीत के तौर पर देखने वाली भाजपा के पास तो कोई कारण नहीं है कि वह जय श्रीराम के नारे को बुलंद न करे. इस नारे के उसे दो फायदे हैं. एक तो इससे हिन्दुत्व की राजनीति पर भाजपा का दावा मजबूत होता है और दूसरा अगर किसी ने इसका विरोध किया, या इस पर एतराज जताया तो उसे हिन्दू विरोधी ठहरा कर देशद्रोही करार दिया जा सकता है. महाराष्ट्र, झारखंड, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली जैसे राज्यों में कुछ समय बाद ही विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. उन चुनावों में चर्चा विकास और विश्वास की होगी, लेकिन सबसे बड़ा मुद्दा हिन्दू-मुसलमान ही होगा क्योंकि फार्मूले की कामयाबी साबित हो चुकी है. तो आने वाले वक्त में संसद के भीतर जय श्रीराम का उद्घोष और पुरजोर तरीके से होगा, इसमें कोई दोराय नहीं है. गौरतलब है कि भाजपा के लौहपुरुष कहे जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में शुरू हुए अयोध्या आंदोलन के दौरान ‘जय श्रीराम’ पहली बार एक नारे के रूप में सामने आया था. उससे पहले जय रामजी की, जय सिया राम और राम-राम कह कर लोग अपने ईष्ट को याद करते थे और एक दूसरे को सम्बोधित करते थे. अटल-आडवाणी के दौर में ‘जय श्रीराम’ एक युद्धघोष की तरह सामने आया और आज भी उसी आक्रामकता के साथ गूंजता है. उसमें प्रेम, भक्ति, श्रद्धा या समर्पण का भाव नहीं है, बल्कि युद्ध की चेतावनी है. आडवाणी कहते हैं कि अयोध्या में राममंदिर निर्माण का आंदोलन एक राजनीतिक आंदोलन था. इस तरह ‘जय श्रीराम’ एक राजनीतिक नारा है, धार्मिक जयकारा नहीं है. लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश की संसद में धार्मिक नारा लगाना एक गम्भीर बात हो सकती है, लेकिन यह नारा धार्मिक नहीं, पूरी तरह राजनीतिक है, इसलिए इस पर एतराज नहीं होना चाहिए. अब यह बात और है कि पूरी राजनीति ही धर्म के नाम पर हो रही है. भाजपा की मूल भावना और संविधान की मूल भावना में ही जमीन-आसमान का अंतर है. ऐसे में जब वे संसद के भीतर नारे लगाएंगे और उकसाएंगे तो विपक्षी पार्टियां भी चुप नहीं बैठेंगी. मतलब साफ है कि आने वाले समय में संसद भवन धर्म का अखाड़ा बनने वाला है.
ओवैसी जैसे लोग, जिनकी पूरी राजनीति मुसलमानों की असुरक्षा पर केन्द्रित है, उन्होंने संसद में अल्लाह-हो-अकबर का नारा लगाकर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर कर ही दी है. ओवैसी का अल्लाह-हो-अकबर अल्पसंख्यकों की ओर दिया गया जवाब बन गया है. ओवैसी ने जय श्रीराम के नारे का जवाब अल्लाह-हो-अकबर से देकर इसे बराबरी का मुकाबला बनाने की कोशिश की है. अब हिन्दुत्व का जोर जितना बढ़ेगा मुस्लिम बहुल आबादी से आने वाले ओवैसी और आजम खान जैसे नेताओं की सियासत भी चमकेगी और इन नारों-प्रतिनारों के बीच अल्पसंख्यकों, दलितो, आदिवासियों, पिछड़ों की समस्याएं और उनसे जुड़े गम्भीर मुद्दे ढंके के ढंके रह जाएंगे. मौजूदा समय में, भारत में धार्मिक तौर पर अल्पसंख्यकों की आबादी 20 फीसदी के आसपास है. इनमें मुसलमान 14.2 फीसद हैं. कुछ अनुमानों के मुताबिक आने वाले समय में, यह 25 फीसदी के आसपास स्थिर हो सकता है. जिसमें मुस्लिमों की आबादी 20 फीसदी के करीब होगी. कोई भी समाज अपनी एक चौथाई आबादी की उपेक्षा करके, उसे उसके हक से वंचित करके और अवांछित मानकर न तो सम्पन्न बन सकता है, न विकास कर सकता है और न ही शांति से रह सकता है. संविधान कहता है कि धर्म के आधार पर नागरिकों के साथ अलग-अलग बर्ताव नहीं हो सकता. लेकिन 17वीं लोकसभा का आगाज जिस तरह हुआ है, एक धर्मनिरपेक्ष गणतन्त्र के लिए यह संकेत कतई ठीक नहीं हैं. इस बारे में सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी भी डर पैदा करती है. कोर्ट ने इस बारे में कहा था, ‘भारत अब तक धर्मनिरपेक्ष देश है, लेकिन हम ये नहीं जानते हैं कि यह कितने लम्बे समय तक धर्मनिरपेक्ष देश बना रहेगा.’