चुनावों के परिणामों के बाद भारतीय जनता पार्टी के नरेंद्र मोदी और कांग्रेस के राहुल गांधी दोनों ने पार्टी के सदस्यों का सामना किया. एक ने अभूतपूर्व विजय के बाद चुनावी मतभेदों को भुला कर, बड़बोलापन कम करने और सारे देश को एकसाथ ले चलने की सलाह दी जबकि दूसरे ने बुरी तरह जख्मी अपने शरीर को सहलाते हुए अपने वरिष्ठ नेताओं को लताड़ा जिन्होंने पार्टी के लिए कम, अपने लिए ज्यादा काम किया. एक तालियों से गद्गद था तो दूसरे को गालियां सी मिल रही थीं.

देश में विपक्ष की जगह है, इस में शक नहीं. कांग्रेस आज भी सब से बड़ी विपक्षी पार्टी है. कांग्रेस की हार की बहुत सी वजहें हैं पर उन में से एक है कि कांग्रेस ने भाजपा के धार्मिक एजेंडों की काट हलकी धार्मिक नौटंकी से करनी चाही. कांग्रेस की वरिष्ठ लीडरशिप असल में ऊंची जातियों के हाथों में है.  इन ऊंची जातियों के नेता सवर्णवाद को तो चाहते हैं पर भाजपा के मेहनतकश, समर्पित, धर्म के अनुयायियों के मुकाबले 5 फीसदी भी तेज नहीं हैं.

कांग्रेस का साथ उत्तर प्रदेश के महागठबंधन ने नहीं दिया क्योंकि कांग्रेस एक मामले में भाजपा की तरह ही सोच रखती है कि शूद्र व अछूत 4 हाथ दूर रखने लायक होते हैं. भाजपा ने पिछले दशकों में इन वर्गों को अपने देवीदेवता दे कर एक धर्मनिष्ठ कैडर बना डाला है पर कांग्रेस ने उन गरीबों, जिन्हें इंदिरा गांधी 1967 से 1971 तक अपने साथ लाई थीं, का साथ देने के लिए कोई सहायक संगठन खड़ा नहीं किया. जहां भाजपा की समर्थक सैकड़ों संस्थाएं, मंदिर समितियां, शिक्षा संस्थाएं, व्यापार मंडल हैं वहीं कांग्रेस जमीनी समस्याओं से भागती रही.

राहुल गांधी अभी भी अनुभवहीन हैं. उन्हें पार्टी चलाने को तो दे दी गई पर उन्हें पार्टी बनाने का अनुभव नहीं है. नरेंद्र मोदी और उन से पहले के नेताओं ने (चाहे हिंदू धर्म की रक्षा के नाम पर अपने कई आर्थिक हितों के लिए या जातीय व्यवस्था बनाए रखने के लिए) धूपपानी में गलीगली में जा कर काम किया. नरेंद्र मोदी ने भाजपा के नए सांसदों को यही संदेश दिया, जबकि राहुल गांधी अपनी चोटें दिखाते रह गए.

कांग्रेस में अगर जान है तो इसलिए कि बहुत से लोग पीढि़यों से उस से जुड़े हैं पर जब राजनीतिक अस्तित्व की बारबार बात की जाने लगे तो पारिवारिक यादों को दरकिनार कर दिया जाता है. राहुल गांधी को कांग्रेस को बचाना है तो उन्हें लालू प्रसाद यादव, मायावती, ममता बनर्जी, स्टालिन, कम्युनिस्टों के नीचे रह कर काम करना सीखना होगा. वे उन पर अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन न करें, बल्कि उन्हें मना कर केवल चुनावों के लिए नहीं, हमेशा के लिए अपने साथ जोड़ लें. अगर वे ऐसा नहीं करेंगे तो देश भाजपारूपी एक पार्टी साम्राज्य से नहीं बच सकता.

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कांग्रेस की हार

कांग्रेस में हताशा और छटपटाहट होनी स्वाभाविक है. आम चुनावों में राहुल गांधी ने मंचों से नरेंद्र मोदी का जिस तरह खुल कर मुकाबला किया था उस की उम्मीद कम ही थी. कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों को जीतने के बाद कांग्रेस का विश्वास बढ़ गया था. अब हुई अप्रत्याशित व भयंकर हार पर चिंतित होना कांग्रेस के लिए स्वाभाविक ही है.

जले पर नमक छिड़कने के लिए भाजपासमर्थक कांग्रेसी और भाजपासमर्थक मीडिया कुछ दबे शब्दों में, तो कुछ खुले शब्दों में कहने लगे हैं कि कांग्रेस को गांधी परिवार से बाहर का नेता चाहिए. यह कदम पलायन का होगा. हार के बाद जिम्मेदारी का मतलब त्यागपत्र देना नहीं होता, उस गलती को ठीक करना होता है.

1984 में केवल 2 सीटें आने पर भारतीय जनता पाटी के वरिष्ठ नेताओं ने कभी त्यागपत्र नहीं दिया था. 1989 में, 1991 में और 2004 में हारने के बावजूद भाजपा का नेतृत्व वहीं का वहीं रहा. नाम के लिए कभीकभार भाजपा का अध्यक्ष पद औरों को मिला. ऐसा कांग्रेस में भी होता रहा है. अध्यक्ष पद कइयों के पास रहा है.

कांग्रेस यदि कुछ समझ नहीं पाई तो वह है मीडिया और सोशल मीडिया की ताकत. पिं्रट और इलैक्ट्रौनिक मीडिया ने कांग्रेस को बड़ी बेशर्मी से सरका दिया. सोशल मीडिया पर लाखों की तादाद में भाजपासमर्थक ट्विटर, फेसबुक व व्हाट्सऐप पर घंटों लगातार भाजपा का प्रचार कर रहे थे.

कांग्रेस के उठाए हर सवाल का जवाब उन्होंने देशभक्ति के नारों से दिया. देश की पूजापाठी जनता को लगा कि मुक्ति का द्वार नरेंद्र मोदी के पास है, राहुल गांधी के पास नहीं. आखिर यही भक्त हैं जो मंदिरों, कुंभों, आश्रमों, तीर्थों में लाइनें लगाते हैं. कांग्रेस को इन की ताकत का अंदाजा न था. कांग्रेसी खुद इन लाइनों में लगने लगे जबकि उन्हें इन्हें अवैज्ञानिक कह कर इन से खुल्लमखुल्ला लोहा लेना था. शायद राहुल गांधी अपनी इटैलियन मूल की मां के कारण ऐसा न कर पाए.

अब राजनीति धार्मिक प्लेटफौर्म पर चलेगी, यह पक्का है. धार्मिक प्लेटफौर्म पर भाजपा का एकाधिकार है. उस में जगह निकालना राहुल गांधी के लिए आसान नहीं. वहीं, न कांग्रेस में और न किसी दूसरी पार्टी में इतना दम है कि वह अलग प्लेटफौर्म बना कर देश की गाड़ी को ही वहां ले आए. राहुल ऐसा कर सकेंगे, पता नहीं, पर और कोई तो नहीं ही कर सकता.

कैडर का टोटा

कांग्रेस, गठबंधन और लालू प्रसाद यादव की हार व भारतीय जनता पार्टी की जीत का बड़ा कारण उन के कैडर हैं. पहले तीनों के कैडर अब समाप्त से हो गए हैं.

कांग्रेस ने जिस तरह से बदलबदल कर विपक्षी दलों से समझौता किया उस से कैडर का दिल अपनी पार्टी से टूट गया. कांग्रेस के कैडर में ज्यादातर ऊंची जातियों के अवसरवादी लोग ही थे जो सिद्धांत के लिए नहीं, पैसे और पावर के लिए जमीनी काम करते थे. जब नेताओं ने एयरकंडीशंड मकानों में रहना शुरू किया तो कैडर अपनेअपने तौर पर ‘कुछ’ बनाने में जुट गया, करने में नहीं.

समाजवादी पार्टी का कैडर शुरुआत में सदियों से चले आ रहे ऊंची जातियों के कैडर का मुकाबला करने के लिए खड़ा किया गया था. पर बाद में मुलायम सिंह परिवार ने पार्टी को अपने सुखों का धंधा बना लिया. ऐसे में समर्थक बिदकने लगे हैं. वे वैसे भी किसी और के साथ, खासतौर से कल तक के अछूतों के, काम करने को तैयार न थे.

लालू यादव के साथ भी मुलायम वाला हाल हुआ. चारा घोटाला में अपनेआप को बचा न पाने पर लालू की कमजोरी साबित हो गई. यदि उन का नेता पुलिसकचहरी से खुद को नहीं बचा सकता तो वह कैडर के किस काम आएगा. दोनों घरों में जो आपसी लड़ाई हुई उस से लगने लगा कि यादवों और पिछड़ों के हित दोयम हैं, प्रमुख तो उन के अपने राजपाट हैं. बनियों में जब व्यापार में मालिक पुश्तैनी पैसे को ले कर लड़ने लगते हैं तो ऐसा ही होता है. ग्राहक और कर्मचारियों का टैलेंट गायब हो जाता है.

इस के उलट भारतीय जनता पार्टी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कूटनीति ने अद्भुत कैडर दिया है. यह कैडर है उन 30-40 लाख पंडितों, आश्रम संचालकों, मंदिरों के पुजारियों, मंदिरों के पास धंधे करने वालों, ज्योतिषियों, प्रवचनकर्ताओं, अध्यापकों आदि का जो मुफ्त के चढ़ावे के पैसे पर फलफूल रहा है. इस में अब हर जाति के लोग शामिल हो रहे हैं क्योंकि आरएसएस ने हर जाति को छोटेमोटे देवता दे कर उन को लूटने का अच्छाखासा मौका दे दिया है. ऐसे में वे भाजपा के साथ नहीं जाएंगे, तो कहां जाएंगे?

द्रविड़ मुनेत्र कषगम, कम्युनिस्ट पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, शिवसेना के अपने कैडर हैं क्योंकि या तो उन्हें ऊंची जातियों के कहर का डर है या उन्हें छोटीमोटी चौधराहट मिल रही है. कांग्रेस कैडरविहीन हो गई है क्योंकि सोनिया गांधी ने 10 सालों में कैडर पर काम न कर सारा ध्यान सरकार चलाने पर रखा. कांग्रेस का कैडर बंट गया. उस का ऊंची जातियों वाला हिस्सा भाजपा में चला गया, पिछड़ी जातियों वाला अपनी जातियों में और दलित कैडर मायावती के साथ.

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राहुल गांधी अब कांग्रेस अध्यक्ष रहें या न रहें, फर्क नहीं पड़ता. जब पार्टी ही न हो, तो आप अध्यक्ष किस के? ठाटबाटी कांग्रेसी नेताओं के बस की जमीनी मेहनत करने की नहीं है. उन के पास मुद्दा भी नहीं. वे तो वैयक्तिक स्वतंत्रताओं के रक्षक खान मार्केट गैंग को भी अपने पल्लू में संरक्षण नहीं दे रहे जो उन्हें शिक्षित कैडर दे सकता है. कांगे्रस को भाजपाई सद्बुद्धि कब आएगी, कहा नहीं जा सकता.

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