मायावती भले ही अखिलेश यादव पर यह आरोप लगाये कि सपा का वोट बसपा को ट्रांसफर नहीं हुआ आंकड़े गवाह है कि सपा नहीं बसपा के वोट ट्रांसफर नहीं हुये. ऐसे में मायावती को भुलावे  में रहने के बजाये बसपा के मिशन पर ध्यान देना चाहिये. बसपा के लोगों के पूजापाठ और धर्म से जुड़ने से मायावती का काम मुश्किल हो गया है.

लोकसभा के चुनाव में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन को वह सफलता नहीं मिली जिसकी उम्मीद दोनो ही दलों को थी. मायावती ने इसका ठिकरा सपा नेता अखिलेश यादव के सिर पर पफोड़ते हुए कहा ‘समाजवादी पार्टी के वोट बसपा को ट्रांसपफर नहीं हुये. अखिलेश यादव को सपा में मिशनरी सिस्टम यानि काडर बेस को सही करना चाहिये.’ मायावती की इस बात को कोई भी मानने को तैयार नहीं है. 2014 के लोकसभा और 2017 के विधनसभा चुनाव में बसपा की हालत सबसे अध्कि खराब थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में तो बसपा को एक भी सीट नहीं मिली थी. 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन का ही लाभ है कि बसपा को 10 सीटे मिल गई.

ऐसे में साफ दिखता है कि सपा के साथ गठबंधन का लाभ बसपा को मिला. चुनाव आयोग के आंकड़ो को भी देखे तो यह बात साफ होती है कि सपा के वोट तो बसपा को मिले उल्टे बसपा के वोट सपा को नहीं मिले. सबसे अधिक जनाधर बसपा का खिसक रहा है. इसकी वजह भी यह है कि बीते करीब 20 सालों से बसपा में काडर के कार्यकर्ताओं की घोर उपेक्षा हुई है. मायावती को सबसे अधिक नुकसान 2009 के बाद से शुरू हुआ जब वह बहुमत से सरकार बनाने में सफल हुई और दलित कार्यकर्ताओं और दूसरे दलित संगठनो की उपेक्षा शुरू की थी.

टूटता जा रहा बसपा का मिशन:

बसपा से जाटव बिरादरी को छोड कर बाकी दलित जातियों का पूरी तरह से मोहभंग हो चुका है. बसपा का मिशन के रूप में कार्य करने वाला कार्यकर्ता अब अपने मिशन से पूरी तरह से हट चुका है. इसका सबसे बडा कारण खुद मायावती की नीतियां है. मायावती ने बसपा में लोकतंत्र को कभी आगे नहीं बढ़ने दिया. जो नेता भी अपना जनाधर बढाता था उसे पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता था. ऐसे में धीरे धीरे करके जनाधर वाले नेता पार्टी से दूर होते गये और पार्टी का जनाधर खिसकता गया. मायावती भी दूसरे दलो की तरह पार्टी का टिकट देने के बदले पैसे लेने लगी. ऐसे में बसपा के मिशन के साथ काम करने वाले लोग कम होते गये.

टिकट के लिये पैसा लेने के सबसे अधिक आरोप बसपा पर लगते है. यही कारण है कि चुनाव हारने के बाद वह नेता बसपा से टिकट नहीं पाता. नया नेता भी पार्टी के नाम पर चुनाव नहीं जीत पाता है. उदाहरण के लिये राजधानी लखनऊ के पास की मोहनलालगंज सुरक्षित लोकसभा सीट को देखे तो 2014 के चुनाव में बसपा ने रिटायर अफसर राम बहादुर को टिकट दिया था. वह कम वोट से चुनाव हार गये. 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने इस सीट पर राम बहादुर को टिकट नहीं दिया और सीएल वर्मा को टिकट दिया जो मायावती के बेहद करीबी माने जाते है. सीएल वर्मा 2014 के मुकाबले ज्यादा वोट से चुनाव हार गये.

जानकार लोग कहते है ‘अगर राम बहादुर को दोबारा इस सीट से चुनाव लड़ाया जाता तो वह सीएल वर्मा के मुकाबले बेहतर चुनाव लड़ते.’ बसपा में यह बदलाव कांशीराम के दौर के खत्म होने के बाद शुरू हुआ. कांशीराम के समय में बसपा में सभी दलित जातियों का प्रतिनिधित्व होता था. चुनाव लड़ने के लिये टिकट देने के लिये यह देखा जाता था कि उम्मीदवार पार्टी की नीतियों को कितना समझता है. कांशीराम की मुहिम 85 फीसदी बनाम 15 फीसदी की थी. कांशीराम 85 फीसदी में पूरे वंचित समाज को जोड कर चल रहे थे. 85 बनाम 15 की यही लड़ाई बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर की भी थी. यही वजह है कि कांशीराम के समय यह नारा लगता था कि ‘बाबा तेरा मिशन अधूरा कांशीराम करेगे पूरा’. कांशीराम के बाद मायावती के हाथ आते ही पार्टी अपने मिशन से भटक गई. मायावती पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे. वही से बसपा का मिशन अधूरा रह गया और पार्टी का जनाधर खिसकने लगा. यह बात मायावती स्वीकार नहीं कर रही. अपनी हर हार पर वह नया बहाना खोजने लगी. 2019 के लोकसभा में हार का ठिकरा सपा पर फोडते कहा कि सपा का वोट बसपा को ट्रांसफर नहीं हुआ.

काम ना आई सोशल इंजिनियरिंग:

1998 के बाद से बसपा अपने मिशन को दरकिनार कर आगे बढ़ने लगी. ‘ठाकुर बामन बनिया छोड़, बाकी सब है डीएसफोर’ का नारा देने वाली बसपा अब सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर ब्राहमण समाज को आगे बढ़ाने लगी. 2003 से लेकर 2009 की बहुमत वाली जीत तक बसपा में 85 बनाम 15 की लड़ाई खत्म हो गई. बसपा में भी अलग अलग जातियों को लेकर भाईचारा कमेटी तक बन गई. ऐसे में बसपा का मिशन खत्म हो गया. बसपा के मिशन के रूप में काम करने वाली मशीनरी अब पार्टी से दूर होने लगी. यही वह दौर था जब सवर्ण समाज की अगुवाई करने वाली भारतीय जनता पार्टी का प्रभाव बढने लगा. ऐसे में सवर्ण जातियां बसपा की भाईचारा कमेटी से बाहर होने लगी.

बसपा के लिये परेशानी का सबब यह है कि भाईचारा कमेटी बनने से पार्टी के दलित वर्ग ने सवर्णो की तरह से रीति रिवाज और पूजा पाठ करना शुरू कर दिया. भाजपा ने इन सबको हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के नाम पर अपनी तरफ खीेचना शुरू कर दिया. 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने एक भी मुसलिम को टिकट नहीं दिया तो बसपा ने दलित मुसलिम गठजोड बनाना शुरू किया. उस समय तक मायावती को इस बात का अहसास ही नहीं था कि दलित सवर्ण से अध्कि मुसलिम से दूर हो गया है.ऐसे में दलितों ने बसपा के मुसलिम प्रेम को नकारते हुये पार्टी से किनारा कर लिया. मायावती ने 2014 के लोकसभा चुनाव की हार के बाद भी इस सच को नही स्वीकार किया किबसपा का जनाधर खत्म हो चुका है. 2017 के विधनसभा चुनाव में मायावती ने बसपा के करीब 100 टिकट मुसलिम बिरादरी को दिये. नतीजा एक बार फिर से बसपा के खिलापफ गया और बसपा तीसरे नम्बर की पार्टी बनकर रह गई.

दलित पिछड़ा गठजोड़:

चुनाव में जातीय समीकरण मजबूत करने के लिये बसपा-सपा ने गठबंधन किया. दोनो को लग रहा था कि यह गठजोड़ काम करेगा. असल में बसपा नेता मायावती की ही तरह सपा नेता अखिलेश यादव भी केवल यादव जाति के नेता बनकर रह गये. जमीनी स्तर पर दलित और पिछड़ों के बीच वैसा ही भेदभाव है जैसा दलित और सवर्ण के बीच है. दलित वर्ग को अब लगता है कि उनको अगर समाज की मुख्यधारा में शामिल होना है तो धार्मिक होना पड़ेगा. ऐसे में देखे तो पूजा पाठ के मामले में दलित अब सवर्णो से भी आगे निकल गये है. वह अब धर्म के विरोध पर बसपा का साथ देने को तैयार नहीं है. इसके साथ ही साथ बसपा में पार्टी लेवल पर मायावती कह तानाशाही भी बुरी तरह से पार्टी संगठन को खत्म कर रही है.

बसपा के खिसकते जनाधार को चुनावी नतीजों से समझा जा सकता है. 2014 में बसपा ने 80 लोकसभा की सीटो पर चुनाव लड़ा उसको 19.77 फीसदी वोट मिले. 2019 में बसपा ने सपा के साथ मिलकर 38 सीटो पर चुनाव लडा और 19.36 फीसदी वोट मिले. केवल 38 सीटों पर चुनाव लडने के बाद भी उसे पहले जैसे की वोट मिले जिससे पता चलता है कि गठबंधन का लाभ बसपा को मिला. गठबंधन नहीं हुआ होता तो वोट प्रतिशत घट गया होता. सपा को देखे तो 2014 में उसको 22.35 फीसदी वोट मिले थे. 2019 में यह घटकर 18 फीसदी रह गये. ऐसे में साफ है कि गठबंधन का सपा को कोई लाभ नहीं हुआ. बसपा को केवल वोट प्रतिशत में ही लाभ नहीं हुआ बल्कि लोकसभा में वह शून्य से 10 सीटों पर आ पंहुची.

मायावती जो सीख सपा नेता अखिलेश यादव को दे रही है कि वह सपा कार्यकर्ताओं को समाजवादी मिशन से जोड़े असल में यह काम खुद मायावती को करने की जरूरत है. 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती की जीत बसपा की जीत नहीं है. यह मुस्लिम वोट का भी कारण है. जो भाजपा के खिलाफ वोट को लेकर एकजुट था. वह उन प्रत्याशियों को मिला जो भाजपा के मुकाबले असरदार तरह से चुनाव लड़ रहे थे. मुस्लिम वोट बैंक मायावती के साथ नहीं है. वह भाजपा के खिलाफ है. ऐसे में जब तक चुनाव में राष्ट्रवाद और धर्म पर चुनाव होगा तब तक जातिय गठजोड़ काम नहीं आयेगा. मुस्लिम की हिमायती बनने के कारण भी दलित सबसे अधिक बसपा से नाराज होकर पार्टी से दूर जा रहा है. बसपा के नई उम्र के वोट बैंक को अब 85 बनाम 15 की लडाई का कुछ याद नहीं है. उस पर धर्म का प्रभाव है. जिसकी वजह से वह बसपा से दूर भाजपा की तरफ झुक गया है. जब तक बसपा 85 बनाम 15 की लड़ाई को नहीं समझा पायेगी उसको अपना जनाधार बचाना मुश्किल होगा.

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