रश्मि पढ़ीलिखी आधुनिक महिला है. मौडर्न कपड़े पहनने वाली, कार ड्राइव करने वाली, किसी भी मुद्दे पर बेधड़क अपनी राय रखने वाली. उसे देख कर मुझे यही लगता था कि वह बहुत समझदार और खुले विचारों वाली जागरूक महिला है. लेकिन उस दिन मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उस ने मुझे वैभवलक्ष्मी के व्रतों के उद्यापन का न्योता भेजा. उसे एक निश्चित संख्या में विवाहित महिलाओं को खाना खिलाना था. उस के बहुत आग्रह पर जब मैं दोस्ती कायम रखने की खातिर वहां गई तो उस की हालत पर तरस आ गया. उस ने बहुत भारी साड़ी पहनी थी जो शायद उस की शादी के समय की थी. वह उस से संभल नहीं रही थी, गरमी के मारे उस की जान निकल रही थी, फिर भी वह उसी को पहने सारे काम कर रही थी.
मैं ने कहा, ‘‘यार, तुम्हें ऐसे देख मुझे ही बहुत गरमी लग रही है, तो तुम्हारा क्या हाल हो रहा होगा. कपड़े चेंज कर कुछ हलका पहन लो. यहां कौन देख रहा है. हम सब फ्रैंड्स ही तो हैं.’’ इस पर वह लाचारी से बोली, ‘‘नहीं, सासुमां का फोन आया था, कह रही थीं, उद्यापन के समय शादी की साड़ी ही पहननी है.’’
खैर, जब पूरा आयोजन संपन्न हो गया तो उस ने सब को एक पुस्तक बांटी, जो मराठी में थी. मैं ने कहा, ‘‘मुझे तो मराठी नहीं आती, मैं इस का क्या करूंगी?’’ तो वह बोली, ‘‘अरे मुझ से लेले यार, फिर जो मरजी करना. यहां पुणे में मुझे ये ही मिली हैं. इन को बांटना जरूरी है वरना पूजा पूरी नहीं होगी.’’ वहां उपस्थित एक और महिला बोली, ‘‘इस किताब में लिखा है, जिसे भी यह पुस्तक मिले, उसे लक्ष्मी मां के ऐसे ही व्रत रख कर 11 सुहागिनों को खाना खिला कर यह पुस्तक बांटनी होगी तो मां उस पर कृपा करेंगी वरना सारा वैभव छीन लेंगी.’’
ये भी पढ़ें: फ्रौड की राह पर डिग्रीधारी
मैं ने कहा, ‘‘जरूर यह इस किताब के प्रकाशक की करतूत है, ताकि उस की किताबें बिकती रहें.’’ तो इस पर वह मुझ से गुस्से से बोली, ‘‘पूजा के मामले में ऐसी घटिया बातें नहीं करते, खासकर, लक्ष्मीजी की किताब के लिए. यदि वे नाराज हो गईं तो सारा वैभव चला जाएगा.’’ हैरियत मुझे तब हुई जब रश्मि ने भी उस की हां में हां मिलाई.
सब के जाने के बाद, मैं ने थकीहारी रश्मि से पूछा, ‘‘एक बात बता, यह कर के तुझे क्या फायदा मिला?’’
इस पर वह बोली, ‘‘अभी तो पता नहीं, पर मेरी मां और सास दोनों कहती हैं कि जो महिला यह व्रत करती है उस के पति को बिजनैस या नौकरी में कभी कोई परेशानी नहीं आती, भरपूर धन मिलता रहता है.’’
वह बात अलग है कि आजकल आईटी कंपनियों में आ रहे रिसैशन की वजह से पिछले महीने ही उस के सौफ्टवेयर इंजीनियर पति की नौकरी चली गई. मगर आश्चर्य की बात यह है कि बजाय यह बात समझने के कि ऐसे धार्मिक कर्मकांड आप की नौकरी बने रहने की गारंटी नहीं देते, वह और ज्यादा पूजापाठ के चक्कर में पड़ गई. कभी ये व्रत, कभी वो पूजा.
रश्मि की ही नहीं, हजारों शिक्षित महिलाओं की यही कहानी है जो कुछ खो जाने के डर से या कुछ ज्यादा पाने के लालच में धार्मिक चोंचलों की गिरफ्त में फंस जाती हैं और पुरुषों को घसीट लेती हैं.
संस्कृत में एक कहावत है, ‘सा विद्या या विमुक्तए’ अर्थात विद्या वह है जो मुक्त कर दे. मगर किस से? अज्ञान से, गलत सोच से, बेसिरपैर की रूढि़वादिता से और धर्म के नाम पर हो रहे ढकोसलों से.
यदि शिक्षा का यह अर्थ है, फिर तो शिक्षित वर्ग को ऐसी धार्मिक चोंचलेबाजियों से दूर ही रहना चाहिए. मगर अफसोस, ऐसा नहीं हो रहा है.
ये भी पढ़ें: नीता अंबानी ने तोड़े अंधविश्वासों और पाखंडों के वैदिक रिकार्ड
शिक्षा प्रणाली की विफलता
शिक्षा का असली मकसद होता है इंसान में सहीगलत की पहचान करने की समझ जगाना, उस में सही फैसला लेने की काबिलीयत पैदा करना, उसे दुनिया से और स्कूलकालेज से जो भी जानकारियां और तजरबे हासिल हो रहे हैं उन का सही समय पर सही तरीके से इस्तेमाल करना सिखाना. और सब से जरूरी बात, उसे मानसिक और भावनात्मक रूप से इतना ताकतवर बनाना कि वह जीवन की चुनौतियों व विफलताओं को आसानी से न सिर्फ स्वीकार करे, बल्कि उन का डट कर सामना भी करे.
अब आप ही बताइए, क्या आजकल की शिक्षा प्रणाली इन में से अपना कोई भी मकसद पूरा कर रही है? आजकल की शिक्षा इंसान को सिर्फ रेस के लिए तैयार कर रही है, प्रतियोगिताओं में घोड़े की तरह दौड़ने के लिए प्रोत्साहित कर रही है?
आज की शिक्षा सिखाती है- भागते जाओ, भागते जाओ, तुम्हें यह मिलेगा तुम्हें वह मिलेगा. परंतु वह कभी भी यह नहीं सिखाती कि जब कभी भागतेभागते गिर पड़ो, तो क्या करना है, कैसे खुद को संभालना है. सो, जब गिरने का समय आता है, इंसान संभलने के लिए इधरउधर सहारे खोजने लगता है. मगर आजकल संसार में सहारे मिलते कहां हैं, बुरे वक्त में सगे भाई भी कन्नी काट लेते हैं. ऐसे में वह धर्म की शरण में जाता है जहां कोई पंडित, कोई मौलवी, कोई ज्योतिषी उसे बता देता है, ‘अरे, यह समस्या तो कुछ नहीं है. ये धार्मिक कर्मकांड कर लो, सब ठीक हो जाएगा.’
बस समझिए, जैसे उसे अपनी बीमारी के लिए एक हकीम मिल गया हो. जैसेजैसे वह उस के कहे अनुसार धार्मिक कर्मकांड करता जाता है, पंडित की जेब भरती जाती है और उस का विश्वास बना रहता है कि अब सबकुछ ठीक हो जाएगा.
जरा सोचिए, एक विश्वास जगाने के लिए वह इतना कुछ करता है. यदि यह विश्वास उसे अपनी शिक्षा के साथ ही मिला होता कि खुद पर भरोसा रखो, सब्र और समझ के साथ सही दिशा में काम करते रहो, फिर सबकुछ ठीक हो जाएगा, तो क्या उसे किसी धार्मिक सहारे की जरूरत पड़ती? कभी नहीं.
ये भी पढ़ें : गरमी के कहर का शिकार हो रहे पशु
धर्म का धंधा, न हो मंदा
शिक्षित मध्यवर्ग में अपने भविष्य को ले कर सब से ज्यादा डर और असुरक्षा की भावना पनपने लगी है. पढ़ेलिखे लोग भी आज कम समय में सबकुछ पाना चाहते हैं और जो है, उसे खोने से डरते हैं. इसलिए जब कोई उन से कहता है, फलांफलां धार्मिक कर्मकांड करने से भगवान खुश होंगे और तुम्हें भी खुश रखेंगे तो वे बिना दिमाग लगाए धार्मिक चोंचलों की चपेट में आ जाते हैं. साथ ही, धार्मिक कथाकहानियों के जरिए उन के मन में ऐसे डर भर दिए जाते हैं कि वे चाह कर भी उन की गिरफ्त से नहीं निकल पाते. उन्हें लगने लगता है कि यदि उन्होंने फलां पूजा संपन्न नहीं कराई तो उन का बड़ा अनर्थ हो सकता है. लेकिन कभीकभी इस अंधभक्ति के बड़े भयंकर परिणाम सामने आते हैं. व्रतों और साधनाओं को पूरा करने में लोग अपनी जान भी गंवा बैठते हैं.
मेरे सामने की ही बात है, एक पढ़ेलिखे 32 वर्षीय चार्टर्ड अकांउटैंट ने फ्लैट लिया. उस के मातापिता बहुत धार्मिक प्रवृत्ति के थे. उन्होंने गृहप्रवेश से पहले 3 दिनों तक अलगअलग तरह के यज्ञ और पूजा का आयोजन रखा. लड़के को उन्हीं दिनों बुखार आया. डाक्टर के बारबार आगाह करने पर भी वह 2 दिन तक घर में चल रहे पूजापाठ के चक्कर में ब्लड टैस्ट टालता रहा. वह अपने मातापिता से उस बारे में बात करता तो वे कहते, ‘बुखार ही तो है, ज्यादा काम करने से हुआ होगा, भगवान सब ठीक करेंगे.’
जब उसे बहुत कमजोरी आने लगी तो डाक्टर ने जबरदस्ती उस का ब्लड सैंपल ले कर लैबोरेटरी भेजा. उसे डेंगू हुआ था. डाक्टर ने उसे तुरंत ऐडमिट होने के लिए कहा. मगर वह ऐडमिट कैसे होता? अगली सुबह 3 दिन से चल रही पूजा का समापन यज्ञ होना था, घर में सभी नातेरिश्तेदार जुटे थे. उस ने सोचा, एक रात की ही बात है, किसी तरह काट लेता हूं. मां भी यही कह रही थी, ‘तुम्हारे नाम से संकल्प लिया है, सो तुम्हारा यज्ञ में रहना जरूरी है, वरना अपशकुन होगा. भगवान पर भरोसा रखो, वे सब ठीक करेंगे.’
अगली सुबह उस के पेट में तेज दर्द हुआ, तो उसे जल्दबाजी में अस्पताल लाया गया. वहां पहुंचते ही उस ने खून की उलटी की और तुरंत उस की मृत्यु हो गई.
जरा सोचिए, कहां गया उस पूजापाठ का प्रताप और क्या हुआ उस गारंटी का जो पंडित ने दी थी कि यह पूजा करने पर नए घर में सब कुशलमंगल होगा.
इंजीनियर पिता और एमए पास मां का सीए बेटा डेंगू से मरा, वह भी इसलिए क्योंकि उस ने पूजापाठ के चक्कर में न तो समय से ब्लड टैस्ट कराया और न ही अस्पताल में ऐडमिट हुआ, जबकि आजकल अनपढ़ लोग भी सुनसुन कर इतना तो जान ही गए हैं कि डेंगू, चिकनगुनिया, स्वाइन फ्लू जैसे बुखारों में कोई रिस्क नहीं लेना चाहिए, इन में जान भी जा सकती है.
यह कैसी धर्मांधता है, यह कैसा अंधविश्वास है जो एक शिक्षित इंसान की भी सोचनेसमझने की शक्ति हर लेता है. हद तो यह है कि अंधविश्वास इतना गहरा है कि उस पंडे से जवाब मांगने की भी हिम्मत नहीं होती. वैसे भी पंडे इतने चतुर होते हैं कि हर बात का उत्तर उन के पास होता है.
मीडिया प्रचार से बढ़ता धर्म का बुखार
पहले कुछ लोग ही पंडितोंज्योतिषियों के चक्कर में पड़ते थे क्योंकि वहां उन्हें अच्छीखासी दक्षिणा देनी पड़ती थी. मगर अब ये सभी बातें न्यूजचैनल, पत्रपत्रिकाओं, इंटरनैट पर हर जगह फ्री में उपलब्ध हैं. हर जगह कोई न कोई बाबा, वास्तुशास्त्री, ज्योतिषी, टैरो रीडर आदि बैठ कर बता रहा होता है कि किस दिन क्या उपाय करने पर क्या लाभ होगा, क्या नहीं करने पर क्या हानि होगी. पढ़ेलिखे लोग भी यह सुन कर अपने अंदर बैठे डर को निकालने के लिए या कुछ ज्यादा पाने के लालच में ऐसे सब उपाय करने लगते हैं.
लोगों के धार्मिक अंधविश्वास में बढ़ते रुझान को समझ कर ऐसी अनेक वैबसाइटें बन गई हैं जो ज्योतिष फल, कर्मकांड, टोनेटोटकों पर आधारित होती हैं. ये आप के लिए घर बैठे ही पूजा का लाभ, दर्शन लाभ, श्रीयंत्र, रुद्राक्ष, अभिमंत्रित अंगूठियां, नग और मालाएं जैसे उपक्रम आयोजित कर देती हैं. उन के द्वारा आप घर बैठेबैठे मंदिरों का महाप्रसाद भी प्राप्त कर सकते हैं. इस के लिए वे औनलाइन पेमैंट ले लेती हैं. इस तरह से मीडिया और इंटरनैट की वजह से भी धर्म का धंधा खूब फलफूल रहा है.
हम में भी है दम
आजकल धार्मिक आयोजनों की आड़ में यही तो कहा जा रहा है कि हमें कोई हलके में न ले, हम भी कुछ हैं. त्योहार, धार्मिक आयोजन समाज में शोऔफ का साधन बन गए हैं. पहले लोग सिर्फ बेटेबेटी की शादियों में अपनी हैसियत का खुला प्रदर्शन करते थे ताकि उन की समाज में इज्जत बढ़े लेकिन अब यह धार्मिक चोंचलेबाजियों के माध्यम से होने लगा है.
गणपति उत्सव में किस का गणपति बड़ा, किस का पंडाल बड़ा, महल्ले में नवरात्रों में किस ने बड़ी मंडली बुला कर जागरण कराया, दीवाली पर किस ने ज्यादा लाइट लगाई, पटाखे फोड़े, हलदी कुमकुम पर किस ने किस को क्या दिया…इन्हीं सब दिखावे और शोशेबाजी से पढ़ेलिखे लोग भी अपना अहंकार संतुष्ट करते हैं.
भक्ति या गेटटुगेदर
धार्मिक चोंचले मेलजोल के भी बहाने बन गए हैं. लोगों को अपने मित्रोंरिश्तेदारों को बुलाना हो, फैमिली गैदरिंग करनी हो, उन से कुछ लेनदेन निबटाना हो तो जागरण, कथाकीर्तन आदि रख लेते हैं. लेकिन उन में बातें वही होती हैं, किस ने क्या पहना है, कौन क्या लाया है, किसे क्या देना है आदि.
एक बार हमारे पास जागरण का न्योता आया. मैं ने फोन कर के पूछा, ‘‘आंटीजी, कोई विशेष अवसर है क्या?’’, वे बोलीं, ‘‘हां, हमारी 50वीं मैरिज ऐनिवर्सरी है.’’ मैं ने कहा, ‘‘फिर तो कोई बढि़या पार्टी होनी चाहिए थी.’’ इस पर वे पलट कर बोलीं, ‘‘अरे, इसे पार्टी ही समझो, बीच में केक भी कटेगा.’’
थोड़ा और कुरेदने पर कहने लगीं, ‘‘वैसे तो हम पार्टी ही रखने वाले थे लेकिन खर्चा ज्यादा हो रहा था. फिर सोचसमझ कर जागरण रख लिया, मेहमान शाम तक आएंगे. खाने में सिंपल आलू, पूरी, कद्दू से काम चल जाएगा. जागरण में किसी के रुकने के लिए कमरा भी बुक नहीं करना पड़ेगा. कुछ तो केक कटिंग के बाद ही लौट जाएंगे, बाकी जो रुकेंगे, वे सुबह चनापूरी का प्रसाद खा चलते बनेंगे. जागरण में कोई रिटर्न गिफ्ट भी ऐक्स्पैक्ट नहीं करेगा और नाम भी हो जाएगा कि हम ने ऐनिवर्सरी पर जागरण करवाया.’’
मैं ने मन ही मन सोचा, ‘वाह, भगवान के नाम पर क्या प्लानिंग की है, मानना पड़ेगा.’ वे एक बड़े कालेज से रिटायर लैक्चरर थीं.
सवाल तो उठेगा
यदि चाइल्ड डैवलपमैंट की बात करें तो जिज्ञासु होना, सवाल पूछना, बच्चे के व्यक्तित्त्व का एक बहुत बड़ा गुण माना जाता है. शिक्षा में इस गुण का बहुत महत्त्व है क्योंकि जिस के भीतर सवाल उठते हैं, वही उत्तर खोज सकता है, कुछ नया जान सकता है. हमारे जीवन में धार्मिक चोंचलों की घुसपैठ तभी रुक सकती है जब उन पर सवाल उठाए जाएं कि ये क्यों किए जा रहे हैं, इन के पीछे क्या समझ है, ये जो रटेरटाए मंत्र बोले जा रहे हैं, इन का क्या अर्थ है? तो काफी धुंध खुद ही छंट जाएगी.
एक बार एक शिक्षक के घर में सत्यनारायण की कथा चल रही थी. कथा में पंडितजी बारबार यही वर्णन कर रहे थे कि फलां ने सत्यनारायण की कथा कराई तो उस का यह भला हुआ, फलां ने नहीं कराई तो उस की ऐसीऐसी हानि हो गई. घर के सभी लोग बड़े भक्तिभाव से कथा सुन रहे थे. वहां पर एक किशोरवय भी था जो पूरी कथा ध्यानपूर्वक सुन रहा था.
जब कथा पूरी हुई तो वह पूछने लगा, ‘‘पंडितजी, पूरी कथा में असली कथा की तो बात ही नहीं आई. कथा और व्रत करने और न करने के फायदेनुकसान तो बताए गए मगर वह कथा कौन सी थी जो पहली बार की गई, वह तो आप ने सुनाई ही नहीं.’’ इस बात पर पंडितजी भी निरुत्तर हो गए. कहने लगे कि ईश्वर भक्ति में आस्था रखी जाती है, सवाल नहीं पूछे जाते.
हमारे एक रिश्तेदार कृष्णभक्त हैं. वे जहां भी जाते हैं अपने साथ भगवान की मूर्तियों की पूरी बास्केट ले कर जाते हैं. उन में 3 मूर्तियां तो लड्डू गोपाल की ही हैं. वे तीनों को भोग लगाते हैं और शयन भी कराते हैं. एक बार जब वे मेरे यहां आए तो मेरे बेटे ने उन से पूछ लिया, ‘‘आप के पास ये 3 एकजैसे भगवान क्यों हैं, क्या ये आपस में भाई हैं?’’ वे बोले, ‘‘नहीं, ये एक ही लड्डू गोपाल हैं.’’ इस पर बेटा बोला, ‘‘जब ये तीनों एक ही हैं तो आप तीनों की अलगअलग पूजा क्यों करते हैं?’’
जो बात बच्चों के दिमाग में आती है, वह बड़ों के दिमाग में भी तो आती होगी, मगर पता नहीं क्यों वे धर्म से जुड़े सवाल पूछने से घबराते हैं. तीजव्रत की कथा में कुछ दिलचस्प बातें आती हैं, जैसे जो स्त्री इस व्रत के दौरान सो जाती है वह अगले जन्म में अजगर बनती है, जो शक्कर खाती है वह मक्खी, जो व्रत नहीं करती वह विधवा, जो जल पी लेती है वह मछली बन जाती है, और भी न जाने क्याक्या…जब इस कहानी को एक शिक्षित महिला सुनती और पढ़ती है तो वह क्यों कोई सवाल नहीं उठाती, यह सोचने वाली बात है.
लोग धर्म और आस्था के नाम पर सदियों से फैले हुए इस मकड़जाल से तभी बच सकते हैं जब इस का खंडन शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत हो. बच्चों के लिए वही बात सही होती है जो उन के टीचर उन्हें समझाते हैं, जो उन की पुस्तकों में होता है. यदि उन को शुरू से ही स्कूल में सही समझ मिले तो वे इस धार्मिक दलदल से बाहर आ सकते हैं.
मगर सवाल वही है, बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? यह देश के लिए बहुत खराब है कि शिक्षा व्यवस्था की देखरेख उन के हाथों में है जो अपनी चुनावी सफलता के लिए खुद जम कर धार्मिक चोंचलेबाजियां करते हैं.