भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर एक पूर्व कर्मचारी के यौन प्रताड़ना के आरोप को सुप्रीम कोर्ट ने पहले तो एक ही बैठक में खारिज कर दिया जिस में बैंच पर स्वयं वे खुद भी बैठे थे. यौन प्रताड़ना के आरोपों के सैकड़ों अपराधी आज बदनामी झेल रहे हैं, उन पर मीडिया ट्रायल हो रहे हैं. कुछ के मामले अदालतों में हैं तो कुछ आरोपी जेल की सलाखों के पीछे हैं. यौन प्रताड़ना पर आमतौर पर अदालतों का रुख रहा है कि शिकायतकर्ता की शिकायत ही खासा मजबूत सुबूत है, बाहरी सुबूत की जरूरत नहीं है.
यदि सुप्रीम कोर्ट के ही निर्णयों पर नजर डाली जाए तो स्पष्ट है कि शिकायतकर्ता की बात पूरी गंभीरता से सुनी जाएगी चाहे दोषी का कद कितना ही ऊंचा क्यों न हो. इस मामले में आरोप सर्वोच्च न्यायाधीश पर हैं. आरोप लगाने वाली स्वयं अपराधी रही या न रही, किसी गलती के कारण नौकरी से निकाली गई या नहीं, उस की शिकायत को तो सुनना पड़ेगा ही. यह नियम स्वयं सुप्रीम कोर्ट का है और सुप्रीम कोर्ट के कहने पर ही संसद ने सख्त कानून बनाया है.
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शिकायतकर्ता ने एक शपथपत्र में अपनी शिकायत की है और उस की प्रतियां सभी सुप्रीम कोर्ट के जजों और ‘सरिता’ की सहयोगी इंग्लिश पत्रिका ‘द कैरेवान’ को भी भेजी थीं.
‘द कैरेवान’ सहित 3 अन्य औनलाइन पोर्टलों ने इसे समाचार बता कर पोस्ट किया था और इसी कारण अवकाश के दिन सुप्रीम कोर्ट की विशेष अदालत लगी लेकिन उस में तथाकथित दोषी से कोई सफाई नहीं मांगी गई, न ही विशाखा नियमों के अंतर्गत इस पूर्व कर्मचारी की शिकायत को सुप्रीम कोर्ट की यौन प्रताड़ना संबंधी कमेटी, यदि कोई है तो, को भेजा गया.
सुप्रीम कोर्ट में अटौर्नी जनरल के उठाए सवालों के उत्तर में कहा गया कि यह सर्वोच्च अदालत पर आरोप है और किसी षड्यंत्र का हिस्सा है. पर कैसे, यह स्पष्ट नहीं किया गया है.
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यहां प्रश्न यही नहीं है कि क्या दोष वाकई सही है, बल्कि यह भी है कि क्या किसी भी औरत को अपना चरित्र दांव पर लगा कर किसी का भी चरित्रहनन करने का अधिकार है या नहीं, और यह भी कि जिस पर आरोप लगा हो वह बहुत ऊंचे पद पर हो तो क्या आरोप निरर्थक है?
सुप्रीम कोर्ट की गरिमा में सब की रुचि है पर जब सुप्रीम कोर्ट स्वयं अव्यावहारिक निर्णय देने लगेगा तो इस प्रकार की समस्याएं आएंगी ही. अदालतों के सम्मुख हर तरह के सच्चेझूठे मामले आएंगे ही और हर मामले में पूरी तरह सत्य पहचानना कठिन है. पर अगर औरतों और राजनीतिबाजों के मामलों में अदालतों के निर्णय भावनाओं व पूर्वाग्रहों पर सुनाए जाने लगे तो गरिमा पर अपनेआप ग्रहण लग जाएगा. यह मामला कुछ ऐसा ही है.
जब विवाद और खड़ा हुआ तो सुप्रीम कोर्ट ने दोबारा मामले को सुना. और अब तुरतफुरत फैसला दे दिया गया है कि आरोप निराधार है. इस फैसले से न्याय कितना हुआ, इस पर बहस होनी है, पर होगी गुपचुप.