वो भी क्या दौर था जब टीवी सीरियल सास भी कभी बहू थी की बहू तुलसी वीरानी को देखने देश भर के घरों में लोग ड्राइंग रूम में ठसाठस भर जाते थे और एक वक्त यह भी है कि जब स्मृति ईरानी साक्षात सामने हों तो भी लोग उन्हें देखने नहीं जाते. राजनीति में आने के बाद जिन सितारों ने चमक खोई है केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी का नाम उनमें ऊपर ही कहीं मिलेगा.

स्मृति चुनाव प्रचार के लिए जबलपुर आईं तो आयोजन स्थल सिविक सेंटर की खाली कुर्सियाँ उन्हें मुंह चिढ़ा रहीं थीं. स्मृति की यह झल्लाहट छुपी भी नहीं रही. पत्रकार वार्ता में वे एक महिला पत्रकार से यूं ही ख्वामख्वाह उलझतीं नजर आईं तो समझने वाले ही उनकी मनोदशा समझ पाये. स्मृति ईरानी कोई अच्छी वक्ता भी नहीं हैं वे तेज बोलने को ही बोलना मान बैठी हैं.  उनके भाषणों में नया कुछ उम्मीद रखने वालों को निराशा ही हाथ लगती है. नेहरू गांधी परिवार की आलोचना उनका पसंदीदा विषय है खासतौर से राहुल गांधी पर जब तक वे कोई जरूरी या गैर जरूरी कटाक्ष नहीं कर लेतीं तब तक उन्हें लगता नहीं कि राजनीति कर ली.

आलोचना हर्ज की बात नहीं लेकिन हर भाषण में वे राजनीति के अपने आदर्श प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कापी करती हैं तो मौजूद लोगों की रही सही जिज्ञासा भी खत्म हो जाती है. हर कोई जानता है कि स्मृति ईरानी कोई पेशेवर नेत्री नहीं हैं.  अमेठी से राहुल गांधी के सामने लड़ कर शहीद होने का खूबसूरत इनाम उन्हें नरेंद्र मोदी ने मंत्री बनाकर दिया था. शुरुआती दौर में भाजपा में उनकी जगह किसी अरुण जेटली , सुषमा स्वराज या राजनाथ सिंह से कम नहीं आंकी जाती थी लेकिन धीरे धीरे अपनी ही अपरिपक्वता और अनुभवहीनता के चलते उनहोंने चमक खोना शुरू किया तो यह सिलसिला अभी थमा नहीं है.

तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने उन्हें स्टार प्रचारकों की सूची में रखा है लेकिन जबलपुर की खाली कुर्सियों ने काफी कुछ जता दिया है कि जनता यूं ही किसी को नेता नहीं मान लेती. मध्यप्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ को उन्होने निशाने पर लेने की कोशिश की. कमलनाथ ने विवादित बना दी गई बात यह कही थी कि कांग्रेस महिलाओं को किसी कोटे के तहत या सजावट के लिए टिकिट नहीं देती तो पूरी भाजपा उनके ऊपर चढ़ बैठी कि वे और कांग्रेस महिलाओं की बेइज्जती कर रहे हैं.

कमलनाथ का मकसद क्या था यह तो वही जानें लेकिन दूसरे भाजपा नेताओं की तरह स्मृति भी उनके झांसे में आ गईं जबकि जनता उनसे यह सुनना चाह रही है कि वह भाजपा को चौथी बार क्यों चुनें. इस सवाल का जबाब भी उन्होने रट्टू तोते की तरह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की तारीफ़ों में कसीदे गढ़ते दिया जो ज्यादा असरकारी साबित नहीं हुआ क्योकि चुनाव प्रचार करने आने वाला स्टार प्रचारक यही करता है.

लोग जानते समझते हैं कि स्मृति ईरानी भी अब ड्रामाई राजनीति करने लगी हैं.  सबरीमाला मंदिर विवाद पर वे खुद महिलाओं के खिलाफ बोलीं थीं कि पूजा करने का मतलब यह नहीं है कि आपको अपवित्र करने का भी अधिकार है. इससे भी नीचे उतरते उन्होने यह तक कह डाला था कि क्या आप माहवारी के खून से सना नेपकिन लेकर चलेंगे और किसी दोस्त के घर में जाएंगे, नहीं आप ऐसा नहीं कर सकते. मुंबई में ब्रिटिश हाइ कमीशन और आव्जर्बर रिसर्च फाउंडेशन की तरफ से आयोजित यंग थिंकर्स कान्फ्रेंस को सम्वोधित करते अपनी महिला विरोधी या पितृ सत्तात्मक व्यवस्था से सहमत होते उन्होंने कहा था कि वे हिन्दू धर्म को मानती हैं लेकिन उन्होने एक पारसी व्यक्ति से शादी की है और यह तय किया है कि उनके दोनों बच्चे पारसी धर्म को मानें.

इस दिन पहली बार कुछ खुलकर बोलते स्मृति ने माना था कि जब उनके बच्चे आतिश बेहराम ( पारसियों का प्रार्थना स्थल जिन्हें अग्नि मंदिर भी कहा जाता है ) के अंदर जाते थे तो उन्हें सड़क पर या कार में अंदर बैठना पड़ता था क्योकि उन्हें दूर रहने और वहां खड़ा न रहने के लिए कहा जाता था. इस खुलासे के कोई खास माने नहीं थे कि महिलाओं के धार्मिक अधिकारों के मामले में सभी धर्म एक से हैं.

चूंकि पारसी धर्म में भी ऐसा होता है इसलिए हिन्दू धर्म में भी होने दिया जाये यह बात गले उतरने वाली नहीं थी इसलिए सेनेटरी नेपकिन वाले बयान पर हल्ला मचने पर उन्होने अपना एक फिल्मी स्टाइल वाला फोटो सोशल मीडिया पर पोस्ट किया था जिसमें वे एक कुर्सी से बंधी हैं और उनके मुंह में भी कपड़ा ठुंसा है.

इन सस्ते हथकंडों से कोई फायदा स्मृति ईरानी को नहीं हुआ उल्टे ऐसे मौकों पर लोगों को उनकी शैक्षणिक योग्यता वाला विवाद जरूर याद आ जाता है जिसमें उन्होने सफ़ेद झूठ बोला था. अब अपनी सभाओं में कम भीड़ देखकर स्मृति को समझ आ रहा है कि वे खेत में उगी नहीं बल्कि गमले में उगाई गई नेता हैं तो वे खीझ भी रही हैं. जबलपुर के बाद सीहोर की एक सभा में मुकम्मल वक्त होते हुये भी केवल 7 मिनिट बोलीं तो वहां के भाजपा प्रत्याशी सुदेश राय को मायूसी ही हाथ लगी क्योंकि भीड़ यहाँ भी उम्मीद के मुताबिक नहीं थी.

दरअसल में स्मृति ईरानी की मूल पहचान राजनीति नहीं बल्कि टीवी है लेकिन दिक्कत यह है कि 15 -20 साल पहले उनका छोटे पर्दे पर एकछत्र राज्य था और अब नई पीढ़ी का दर्शक उन्हें नहीं जानता. दूसरे इस दौरान एक से बढ़कर एक टीवी अभिनेत्रियां आईं हैं. स्मृति के चेहरे पर उम्र भी हावी होने लगी है ऐसे में उनकी पूछ कम होना स्वभाविक बात है जिससे आज नहीं तो कल उन्हें समझौता करना ही पड़ेगा. इसके आसार भी नजर आने लगे हैं सीहोर में उन्होने स्वीकारा कि अब अमेठी से वे दौबारा चुनाव लड़ेगी या नहीं यह फैसला अमित शाह को करना है.

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