तलाक के बढ़ते मामलों के साथसाथ बच्चों की कस्टडी का सवाल भी गंभीर होता जा रहा है. माना तो यही जाता है कि बच्चे मां के पास ही ज्यादा सुरक्षित रहेंगे पर अब अदालतें इसे अंतिम और इकलौता प्रमाण नहीं मानतीं. यह ठीक भी है. भारतीय परिवेश में दादादादी की उपस्थिति कई बार मां से ज्यादा महत्त्व की हो जाती है और बच्चे की कस्टडी यदि मां को नहीं पिता को मिले तो बच्चे को बोनस में दादादादी का प्यार व दुलार भी मिल जाता है. यह हमारे यहां का ही नहीं, लगभग दुनिया भर का सत्य है कि दादादादी (और नानानानी भी) बच्चों को वह प्यार व शिक्षा दे सकते हैं, जो मातापिता नहीं दे सकते. झगड़ते मातापिताओं के मामले में तो यह और भी ज्यादा सत्य है, क्योंकि जो पत्नियां लड़ने के मूड में होती हैं उन के मातापिता बेटी से भी ज्यादा उग्र हो जाते हैं. उस घर में नानानानी के साथ पलते बच्चे उन की सही परवरिश की गारंटी नहीं हैं.

फिर भारत में हिंदू विरासत कानून भी है. दादादादी की संपत्ति में उन की बहू का नहीं बेटेबेटियों का हक होता है और उन से ही पोतेपोतियों को हक मिलता है. जो बच्चे आंखों से ओझल हो कर तलाकशुदा मां के पास रहने लगें, उन्हें अगर दादादादी अपनी संपत्ति से अलग बिना किसी गुनाह के कर दें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. बच्चों को संरक्षण देते समय अदालतों को इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि आमतौर पर तलाक के दौरान औरतें ‘न जीऊंगी, न जीने दूंगी’ की सोच में इतनी डूब जाती हैं कि 15-20 साल बाद क्या होगा, उस का सोच भी नहीं पातीं. अगर बच्चों की कस्टडी पिता के पास रहे तो पिता पर पुनर्विवाह न कर पाने का दबाव रहेगा. मां को स्वतंत्रता रहेगी कि वह अपना कैरियर बना सके. अगर मां को अपने भाईबहन के साथ रहना पड़े तो वह एक अतिरिक्त बोझ न ले कर जाएगी.

वयस्क होने के बाद बच्चे क्या करेंगे, इस का अनुमान तब लगाना मूर्खता है जब वे 3-4 या 8-10 साल के हों. वे जिस के साथ रहेंगे कई बार उसे ही दोषी मानने लगते हैं कि उस ने उन के सुखों पर लात मारी. यह नहीं भूलना चाहिए कि आज भी आर्थिक रूप से सक्षम पुरुष ही है और तलाक में बच्चों का संरक्षण अपने पास मांग कर पत्नियां अधिकतर अपने बच्चों के सुख छीन लेती हैं. केवल उन मामलों में जहां पति/पिता शराबी हो और उस ने पहले से दूसरी औरत का इंतजाम कर रखा हो, बच्चों का संरक्षण पिता के हाथों में देना तलाक मांगने वाली पत्नी के लिए ज्यादा सुविधाजनक है. बच्चे पिता से ज्यादा अकड़ से बहुत कुछ मांग सकते हैं और मां के आगे उस की असहायता को देख कर चुप हो जाते हैं. इस मामले में व्यावहारिक बनना चाहिए, न कि भावना से कार्य करना चाहिए. यह न भूलें कि मांबच्चों का जो नैसर्गिक लगाव है, वह तो है ही.

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