‘‘यह क्या? इस उम्र में प्याज और अंडा खाने लगी हो, प्रभु के चरणों में ध्यान लगाओ, सारे पाप दूर हो जाएंगे,’’ संजय ने अपनी पत्नी को ताना मारा, ‘‘सारी उम्र तो तुम ने इन चीजों को हाथ नहीं लगाया और अब न जाने कैसे इन का स्वाद आने लगा है तुम्हें. पहले जब मैं खाता था तो तुम्हें ही इस पर आपत्ति होती थी. अब तुम कहां इन चक्करों में पड़ रही हो. ईश्वरभक्ति करो, बस. सारी बीमारियां दूर हो जाएंगी.’’ ‘‘मेरी मजबूरी है, इसलिए खा रही हूं. यह बात तुम्हें भी पता है कि डाक्टर ने कहा है कि शरीर में विटामिन सी और डी की कमी हो गई है. जिस से हड्डियों में इन्फैक्शन हो गया है.

घुटनों और कमर में दर्द की वजह से ठीक से चल तक नहीं पाती हूं. वैजिटेरियन डाइट से ये विटामिन कहां मिलते हैं. आप जानते हुए भी ताना देने से बाज नहीं आ रहे हैं. प्याज और अंडा खाना अगर पाप होता तो दुनियाभर के अधिकांश लोग पापी कहलाते. इस बात का प्रभुभक्ति से क्या ताल्लुक? ‘‘वैसे, आप मुझे बताओगे कि मैं ने कौन से पाप किए हैं? रही बात प्रभु के चरणों में ध्यान लगाने की और तुम यह कहो कि सारा दिन बैठ कर भजन करूं या तुम्हारी तरह टीवी पर आने वाले बाबाओं के प्रवचन या उन का कथावाचन सुनूं तो मैं इसे जरूरी नहीं समझती.

निठल्ले लोग धर्म की आड़ में अपने दोषों को छिपाने के लिए सारे दिन ऐसे प्रोग्राम देख खुद को जस्टिफाई करने की कोशिश करते हैं.’’ शगुन लगातार बोलती गई, मानो आज वह मन में बरसों से दबाए ज्वालामुखी को फटने देने के लिए तैयार हो. ‘‘शगुन, कुछ ज्यादा नहीं बोल रही हो तुम?’’ चिढ़ते हुए संजय ने कहा, ‘‘मुझ से ज्यादा बकवास करने की जरूरत नहीं है. मुझे पता है कि क्या सही है और क्या गलत. कितना ज्ञान और सुकून प्राप्त होता है प्रवचन सुन कर. प्रवचनों को सुनने से ही तो पापों से मुक्ति मिलती है.’’ ‘‘तो मानते हो न कि तुम ने पाप किए हैं?

झूठ बोलना, किसी का दिल दुखाना या बुरे काम करना जितना पाप है उतना ही अपनी जिम्मेदारियां न निभाना भी पाप है. सच बात तो यह है कि इस तरह से तुम्हारा टाइम पास हो जाता है और अपने को झूठा दिलासा भी दे लेते हो कि मैं तो सारा दिन ईश्वरभक्ति में लीन रहता हूं. अपने आलसी स्वभाव की वजह से तुम तो सारे काम छोड़ कर बैठ गए हो. बिजनैस पर ध्यान देना तक छोड़ दिया, तो वह चौपट होना ही था. ‘‘मेरी नौकरी से घर चल रहा है. लेकिन आजकल एक व्यक्ति की कमाई से क्या होता है. जब तक बच्चे सैटल नहीं हो जाते, तब तक तो उन्हें संभालना तुम्हारी ही जिम्मेदारी है.

मेरी जिम्मेदारी तो खैर तुम क्या उठाओगे. क्या तुम्हारा भगवान कहता है कि तुम उस की पूजा करना चाहते हो तो सब काम छोड़ कर बैठ जाओ. सबकुछ अपनेआप मिल जाएगा.’’ ‘‘ज्यादा भाषण न झाड़ो, अपनी औकात में रहो. और जो तुम कमाने का ताना दे रही हो, तो इस के लिए तुम्हें ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है, भगवान सब संभाल लेंगे.’’ संजय ने आज से पहले शगुन की बात कब सुनी थी जो अब सुनते. वे तो सदा ही उस की अवमानना करते आए थे. शगुन की बातबात पर बेइज्जती करना, बच्चों के सामने उस की खिल्ली उड़ाना और बाहर वालों के सामने उस का अपमान करना तो जैसे उन के लिए आम बात थी. शादी के बाद ही शगुन को पता चल गया था कि संजय रुढि़वादी सोच का व्यक्ति है जो कामचोर होने के साथसाथ बीवी की कमाई पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है पर उसे समान दर्जा देने में उस का अहम आड़े आता है. शादी के बाद तो संजय अकसर उस पर हाथ भी उठा देते थे.

गालियां देना, उस के हर काम में कमियां निकालना तो जैसे वे अपना हक समझते थे. ‘पुरुष हूं, जो चाहे कर सकता हूं’ की सोच ही उन्हें शायद घुट्टी में पिलाई गई थी. न खुद हंसना, न ही किसी की खुशी उन्हें बरदाश्त थी. यहां तक कि वे बच्चों के साथ मजाक तक करने से कतराते थे. शगुन के अंदर बीतते वक्त के साथ एक खीझ भरती गई थी कि आखिर संजय क्यों नहीं आम लोगों की तरह व्यवहार करते हैं. होटल में खाना खाना हो या कभी मूवी देखने जाना हो या घर पर किसी मेहमान को ही आना हो, हर बात उन्हें खलती थी. किसी के घर या फंक्शन में जाने की बात सुन कर ही चिढ़ जाते.

अपनी बात जारी रखते हुए संजय आगे बोले, ‘‘रोजरोज मुझ से इस बात पर बहस करने की जरूरत नहीं और न ही काम करने के लिए कहने की, मैं अपने और भगवान के बीच किसी को नहीं आने दूंगा. वही सब संभालेंगे.’’ ‘‘हां हां, सब भगवान ही संभालेंगे, पर उन को जिंदा रखने के लिए कर्म भी हम मनुष्यों को ही करना पड़ता है. मंदिरमसजिद क्या अपनेआप पेड़ों की तरह उग आते हैं. रोटी सामने रखी हो पर निवाला तभी मुंह में जाएगा जब उसे खुद तोड़ कर खाया जाए. संजय, अब भी संभल जाओ. अभी हमारी उम्र ही क्या हुई है. तुम 49 के हो और मैं 45 की. हमारी शादीशुदा जिंदगी को अपनी पलायन करने वाली सोच से बरबाद मत करो. पलायन करने से कोई मोक्षवोक्ष नहीं मिलता.

कर्म करने से ही मुक्ति मिलती है. ‘‘मैं तो अपनी नौकरी, बीमारी और घर के कामों की वजह से ज्यादा समय नहीं निकाल सकती, पर तुम तो सारा दिन घर में बैठे रहते हो. तुम बच्चों पर थोड़ा ध्यान दो वरना उन का कैरियर बरबाद हो जाएगा. उन के साथ बात किया करो, हंसा करो और उन्हें टीवी पर इन बाजारू प्रवचनों को देखने के लिए उकसाना बंद करो. नीरज को देखो, वह भी तुम्हारे साथ टीवी देखता रहता है या सोता रहता है. इस बार इसे 12वीं का एग्जाम देना है, पढ़ेगा नहीं तो पास कैसे होगा. कहीं ऐडमिशन कैसे होगा. आजकल कंपीटिशन कितना टफ हो गया है.’’ ‘‘उस की चिंता तुम मत करो. भगवान उसे पास कर देंगे. तुम्हारी बेटी नीरा तो दिनरात पढ़ती है, उसी से तुम तसल्ली रख लो.

नीरज के मामले में दखल मत दो. नहीं पढ़ेगा तो मेरा बिजनैस संभाल लेगा.’’ ‘‘बस करो संजय, यह राग अलापना. अरे, पढ़ेगा नहीं तो भगवान क्या आ कर उस के पेपर सौल्व कर देंगे. क्यों मूर्खों जैसी बातें करते हो. तुम्हें पढ़नेलिखने या तरक्की करने की इच्छा नहीं है तो नीरज को भी अपने जैसा क्यों बनाना चाहते हो, कैसे पिता हो तुम.’’ शगुन का मन कर रहा था कि वह संजय को झ्ंिझोड़ डाले, आखिर क्यों वे अपने ही बच्चों को अंधविश्वास के कुएं में ढकेलना चाहते हैं. ‘‘बेकार की बातों में उलझने के बजाय मेरे साथ वृंदावन चला करो. वहां घर इसीलिए तो बनाया है ताकि वहां जा कर मैं प्रभु के चरणों में पड़ा रहूं और अपना आगे का जीवन सुधार सकूं. यह जन्म तो कट गया, अगला जन्म सुधारना है, तो बस सारे दिन ईश्वर की पूजा किया करो, तुम्हें भी मैं यही सलाह दूंगा.’’ ‘‘मैं भी वृंदावन चली गई तो बिना नौकरी के घर कैसे चलेगा? बेटी की शादी कौन करेगा? बेटे को कौन संभालेगा?

तुम्हारे खर्चे कौन उठाएगा? तुम्हें रोज शराब पीने की लत है, उस के लिए भी पैसे क्या भगवान देगा? रोज शराब पीते हो तो क्या तुम्हारा ईश्वर इस की तुम्हें इजाजत देता है. वृंदावन जाते हो तो कौन सा शराब पीना छोड़ देते हो. बस, तुम्हें तो अपने दायित्वों से भागने का बहाना चाहिए. ‘‘सब से बड़ी बात तो यह है कि ईश्वर से लौ लगाने वाले शांत रहते हैं, उन्हें क्रोध नहीं आता, वे किसी पर चिल्लाते नहीं हैं या उन का अपमान नहीं करते हैं. इतने सालों से तुम बाबाओं के प्रवचन सुन रहे हो, पर तुम में तो रत्तीभर भी बदलाव नहीं आया. गुस्सा करना और हमेशा चिढ़े रहना कहां छोड़ा है तुम ने. क्या फायदा ऐसे धर्म का जो दूसरों को दुख पहुंचाए या कर्तव्यों से विमुख करे.

‘‘धर्म के नाम पर तुम दान करते हो कि पुण्य मिलेगा, पर सोचा है कि बच्चों की कितनी जरूरतों का तुम गला घोंटते हो. और देखा जाए तो धर्म के नाम पर जो लाखों रुपए का चढ़ावा चढ़ाया जाता है, भला उस की क्या जरूरत है. भगवान को सोने का मुकुट दे कर आखिर इंसान क्या साबित करना चाहता है? अपनी बेवकूफी और क्या. धर्म के नाम पर चढ़ाए गए चढ़ावे अगर हम अपनी जरूरतों पर खर्च करें तो ज्यादा सुख मिलेगा. धार्मिक स्थलों पर जा कर देखो तो, आजकल सब पंडेपुजारी कारोबारी हो गए हैं.’’ ‘‘मम्मी, रहने दो न. बेकार बहस करने से क्या फायदा. पापा इस समय होश में नहीं हैं,’’ नीरज ने बात बढ़ती देख बीचबचाव करने की कोशिश की.

‘‘बेटा, तुझे ले कर मैं कितनी परेशान रहती हूं, यह नहीं बता सकती. डर लगता है कि कहीं तू अपने पापा के कदमों पर न चले,’’ शगुन की आंखें भर आई थीं. ‘‘चुप हो जा, तेरी जबान कुछ ज्यादा ही चलने लगी है. मुझे नहीं रहना तेरे साथ. जब देखो तब भूंकती रहती है. चला जाऊंगा हमेशा के लिए वृंदावन, फिर संभाल लेना बच्चों को. अपनेआप को कुछ ज्यादा ही स्मार्ट व पढ़ीलिखी समझती है,’’ संजय का तेज थप्पड़ शगुन के गाल पर पड़ा. संजय के इस व्यवहार से थरथरा गई शगुन. शराब पीने से हुई उस की लाल आंखें और डगमगाते कदमों को देख उस के दोनों बच्चे कांप गए. आखिर वे धर्म का ही पालन कर रहे थे कि औरत पाप की गठरी है, पैरों की जूती है. संजय का वीभत्स रूप और निरंतर उस के मुंह से निकलती गालियां सुन नीरा चुप न रह सकी. ‘‘अच्छा यही होगा पापा कि आप यहां से चले जाओ. जहां मन है, चले जाओ. आप के इस रूप को देख धर्म और ईश्वर पर से हमारा विश्वास उठ गया है.

प्यार की जगह आप ने हम में जो घृणा भर दी है, उस से हम दूर ही रहना चाहते हैं,’’ नीरा बोल पड़ी. ‘‘तू भी अपनी मां की जबान बोलने लगी है,’’ संजय ने उसे मारने के लिए हाथ उठाया ही था कि नीरज ने उस का हाथ पकड़ लिया. ‘‘खबरदार पापा, जो आप ने दीदी या मम्मी पर हाथ उठाया,’’ नीरज क्रोधित होते हुए बोला. ‘‘अरे, तू तो मेरा राजा बेटा है न, चल हम बापबेटे दोनों यहां नहीं रहेंगे,’’ संजय की आवाज की लड़खड़ाहट की वजह से उन से ठीक से बोला नहीं जा रहा था. वे बिस्तर पर गिर गए. ‘‘मुझे कहीं नहीं जाना. पर बेहतर यही होगा कि आप यहां से चले जाएं.

हमें आप के झूठे पाखंडों और धर्म के नाम पर बनाए खोखले आदर्शों के साए तले नहीं जीना. आप जैसे जीना चाहते हैं, जिएं, पर अपनी बेकार की बातों को हम पर थोपने की कोशिश न करें. अब बहुत हो गया. और नहीं सहेंगे हम,’’ नीरज ने शगुन और नीरा को कस कर अपने से चिपका लिया था मानो वह उन्हें चिंतामुक्त रहने का आश्वासन दे रहा हो.

 

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