बायोपिक फिल्म ‘‘मैरी कॉम’’ के बाद अब फिल्मकार उमंग कुमार पाकिस्तानी जेल में मारे गए भारतीय कैदी सरबजीत की जिंदगी पर बायोपिक फिल्म लेकर आए हैं. यूं तो मैरी कॉम के मुकाबले ‘सरबजीत’ ज्यादा बेहतर बनी है, मगर यथार्थ परोसने के नाम पर लगभग 132 मिनट की फिल्म ‘‘सरबजीत’’ इतनी बोझिल हो गयी है कि ऐश्वर्या राय बच्चन, रणदीप हुडा, रिचा चड्ढा और दर्शन कुमार की बेहतरीन परफार्मेंस के बावजूद यह फिल्म दर्शकों को सिनेमा घरों के अंदर खींचकर ला पाएगी, इसकी उम्मीद कम ही नजर आती है.

फिल्म में गाने अच्छे बने हैं, मगर यह गाने गलत जगह पिरोए गए हैं, जिनकी वजह से फिल्म का बोझिलपना को कम करने की बजाय जब यह गाने आते हैं, तो वह फिल्म को नुकसान पहुंचाते हैं. एक दो गाने न होते तो भी फिल्म को नुकसान न होता. यूं तो उमंग कुमार का दावा है  कि इस फिल्म की शूटिंग व एडीटिंग के दौरान वह कई बार रोए, मगर फिल्म में भावनाओं की कमी का अहसास होता है. फिल्म जैसे जैसे आगे बढ़ती है, वैसे वैसे यह फिल्म अहसास दिलाने लगती है कि फिल्म सरबजीत नहीं, बल्कि उसकी बहन दलबीर कौर की है. इसे फिल्म का सकारात्मक पक्ष नहीं माना जाना चाहिए.

फिल्म की कहानी 1990 में भारत पाक सीमा के नजदीक पंजाब के एक छोटे से गांव भिखिपिंड से शुरू होती है. जब दलबीर कौर (ऐश्वर्या राय बच्चन) कुछ लोगों के साथ अपने भाई सरबजीत (रणदीप हुडा) की तलाश कर रही है. सरबजीत नहीं मिलता. गांव की पंचायत में दलबीर पर ही ताना कस दिया जाता है. तब कहानी चार साल पीछे जाती है और पता चलता है कि गांव में सरबजीत अपनी पत्नी सुखप्रीत (रिचा चड्ढा) और अपनी दो छोटी बेटियों के साथ खुशहाल है. उसके साथ उसके पिता भी हैं. उसकी बहन दलबीर उसे जान से ज्यादा चाहती है. वह सरबजीत के लिए हर किसी से लड़ पड़ती है. दलबीर की शादी हो जाती है. लेकिन पहली संतान न बच पाने के बाद उसका पति (अंकुर भाटिया) उसे सूनी कोख कहने लगता है.

एक दिन अपने बीमार भाई सरबजीत की ही वजह से दलबीर अपने पति का घर हमेशा के लिए छोड़कर सरबजीत के साथ रहने आ जाती है. फिर कहानी 1990 में आ जाती है. दलबीर नौकरी कर रही है. सरबजीत उसे सुबह छोड़ने व शाम को लेने जाता है. एक दिन कुश्ती लड़ने के चक्कर में सरबजीत, दलबीर को लेने नहीं पहुंचता. तब दलबीर, सरबजीत को मजाक में सजा देने के लिए घर के बाहर रहने के लिए कह देती है. वह न घर का दरवाजा खोलती है और न ही सुखप्रीत को दरवाजा खोलने देती है. कुछ देर में सरबजीत का एक दोस्त शराब की बोतल लेकर आ जाता है और सरबजीत उसके साथ खेत में चला जाता है, जहां शराब पीने के बाद घर वापस आते समय बहक कर पाकिस्तानी सीमा में चला जाता है.

पाकिस्तानी पुलिस उसे गिरफ्तार कर पाक में बम विस्फोट करने वाले रणजीत सिंह मट्टू का गुनाह कबूल करने पर मजबूर कर देती है. अब वह पाक पुलिस व सरकार के लिए सरबजीत नहीं बल्कि रणजीत सिंह मट्टू है. एक दिन अदालत में एक भले इंसान की मदद से पत्र लिखकर सरबजीत अपने बारे में खबर अपने घर भेजता है. अब दलबीर अपने भाई सरबजीत को पाकिस्तान से छुड़ाने के लिए लड़ाई शुरू करती है. उसे कई तरह की कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है. उधर पाकिस्तानी जेल में सरबजीत को यातनाएं मिलती रहती हैं, इधर दलबीर कौर समाज सेवक व नेताओं से लेकर भारत के प्रधानमंत्री तक अपने भाई सरबजीत को छुड़वाने की गुजारिश करती रहती है. उसे मानवाधिकार संगठन से जुड़े एक वकील का सहारा मिलता है, जो कि पाकिस्तान में सरबजीत का मुकदमा लड़ना शुरू करता है.

सरबजीत के पाक जेल में बंद रहने के दौरान कारगिल युद्ध, भारतीय संसद पर आतंकवादी हमला, मुंबई में आतंकवादी हमला, अफजल गुरू व कसाब को फांसी की घटनाएं भी घटती हैं. कहानी कई उतार चढ़ाव से गुजरती है. अंत में पाकिस्तान की जेल के अदंर ही सरबजीत को मार दिया जाता है और उनका पार्थिव शरीर ही वापस भारत आता है.

पूरी फिल्म देखने के बाद इस बात का अहसास जरुर होता है कि हर देश की जेलों में बंद कैदियों के साथ किस तरह का अमानवीय व्यवहार होता है. फिल्म खत्म होते होते अहसास करा जाती है कि यह फिल्म तो दलबीर की गाथा कह रही है. दलबीर ने अपने भाई सरबजीत के लिए जो लड़ाई लड़ी, उसे कमतर नहीं आंका जा सकता, मगर ‘सरबजीत’ के मुद्दे पर ज्यादा बेहतर न्याय करने वाली फिल्म भी बन सकती थी. फिल्म में जिस तरह से भावनाओं का सैलाब बहना चाहिए था, वह नहीं बहता. पर कुछ सीन बहुत ज्यादा मेलोड्रामैटिक हो गए हैं. सरबजीत के किरदार को और अधिक गहराई के साथ पेश किया जाना चाहिए था. दो दशक के दौरान सरबजीत व पाक में बंद भारतीय कैदियों के मुद्दे पर भारत की अंदरूनी राजनीति पर यह फिल्म ठीक से रोशनी डालती, जबकि इस मुद्दे का देश की राजनीति से गहरा संबंध है. फिल्म जब अंत की तरफ बढ़ती है, तो फिल्म में ऐसे दृश्य रचे गए है, जिनसे सरबजीत को छुड़ाने का मुद्दा, जबरन किसी कैदी को छुड़ाने की मुहिम सा नजर आने लगता है. जबकि सरबजीत आतंकवादी या जासूस साबित ही नहीं हुआ था. कई सीन में फिल्म के संवाद अपना प्रभाव छोड़ने में असफल रहते हैं.

सरबजीत के किरदार में रणदीप हुड्डा ने कमाल की परफार्मेंस दी है. यदि एक दो मेलोड्रामैटिक सीनों को छोड़ दें, तो ऐश्वर्या राय बच्चन ने भी जबरदस्त परफार्मेंस दी है. रिचा चड्ढा ने भी बेहतरीन अभिनय किया है. पाकिस्तानी वकील की छोटी भूमिका में दर्शन कुमार अपनी छाप छोड़ जाते हैं.

गुलशन कुमार, पूजा इंटरटनमेंट एंड फिल्मस’ और ‘‘लीजेंड स्टूडियोज प्रा.लिमिटेड’’ प्रस्तुत फिल्म ‘‘सरबजीत’’ के निर्माता वासु भगनानी, जैकी भगनानी, दीपशिखा देशमुख, संदीप सिंह, उमंग कुमार, भूषण कुमार और किशन कुमार हैं. कैमरामैन किरण देवहंस, पटकथा लेखक उत्कर्षिणी वशिष्ठ और राजेश बेरी, संवाद लेखक उत्कर्षिणी वशिष्ठ, पार्श्च संगीत शैल व प्रीतेश, संगीतकार-जीत गांगुली, प्रीतम, अमान मलिक, शैल प्रीतेश तथा कलाकार- ऐश्वर्या राय बच्चन, रणदीप हुडा, रिचा चड्ढा और दर्शन कुमार.

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