असलियत को ढकने का सब से अच्छा तरीका यह है कि उस पर राजनीति का परदा डाल दो. ऐसा करने से लोगों का बात की तह तक पहुंच पाना मुश्किल हो जाता है. और उस परदे के पीछे धर्म व उस के ठेकेदार इत्मीनान से साजिशें रचते रहते हैं.
14 अप्रैल को डा. भीमराव अंबेडकर की 125वीं जयंती देशभर में, बिलकुल धार्मिक जलसों की तरह, धूमधाम से मनाई गई. जगहजगह शोभायात्राएं निकलीं, अंबेडकर की फोटुओं और मूर्तियों का पूजन हुआ, कई जगह प्रसाद भी चढ़ाए गए. पंडाल, झांकियों की तरह सजाए गए और आतिशबाजी भी की गई. आरती की जगह भीम गीत गाए गए. ऐसा लगा, मानो आज रामनवमी, जन्माष्टमी, शिवरात्रि, हनुमान जयंती या दुर्गा अष्टमी जैसा कोई त्योहार है. बच्चे, औरतें, बूढ़े और जवान सब एक जनून में नाचतेगाते रथयात्राओं के साथ चले तो सहज लगा कि ये अंबेडकरपूजक, दरअसल यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि उन से अंबेडकर को दूर करने की कितनी बड़ी साजिश रची जा रही है.
दलितों का जोश और जनून देख सभी भौचक थे कि इस साल ही क्यों अंबेडकर जयंती इतनी ज्यादा धूमधाम से मनाई जा रही है, इस के पहले तक 14 अप्रैल को दलित हिमायती कुछ दल और संगठन अपनेअपने दफ्तरों में अंबेडकर को याद कर भाषण दे कर चलते बनते थे. एकाध जगह बड़ी मीटिंग कर ली जाती थीं जिन में कुछ दलित नेता बाबासाहेब के दलित उत्थान में योगदान को ले कर हर साल दिया जाने वाला भाषण दोहरा देते थे. पर इस साल अंबेडकर जयंती पश्चिम बंगाल की दुर्गा पूजा और महाराष्ट्र की गणेश चतुर्थी की तरह नए तरीकों व सलीके से मनाई गई तो कहने, देखने, सुनने वालों ने यही कहा कि यह वोटों की राजनीति है और सभी सियासी पार्टियां दलितों को लुभाने में लगी हैं. हालांकि ऐसा तो इस देश में होता रहता है लेकिन इस साल कुछ ज्यादा ही हो गया.
शो महू का
अंबेडकर के नाम पर सब से बड़ा और अहम जलसा ‘दलित कुंभ’ इंदौर के नजदीक महू में हुआ जो अंबेडकर की जन्मस्थली भी है. इस जलसे को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संबोधित किया. नरेंद्र मोदी ने जो बोला उस के भी माने हैं और जो वे नहीं बोल पाए, उस के भी माने थे.
मोदी का महू आना इत्तफाक या महज सियासी बात नहीं थी बल्कि भाजपा की महती जरूरत हो गई थी. इस जलसे की तैयारियां दरअसल इस जनवरी में ही शुरू हो गई थीं जिस के कर्ताधर्ता मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान थे. बिहार विधानसभा चुनाव में दलितों ने भाजपा को ठेंगा दिखा दिया था और इस का दोहराव मध्य प्रदेश की लोकसभा सीट रतलाम-झाबुआ में हुआ था जहां कांग्रेस के उम्मीदवार कांतिलाल भूरिया ने भाजपा की निर्मला भूरिया को तकरीबन एक लाख वोटों से शिकस्त दी थी. इस नतीजे की खास बात यह थी कि शहरी इलाकों, जहां अधिकतर ऊंची जाति वाले रहते हैं, से भाजपा ने बढ़त ली थी लेकिन गांवदेहातों, जहां अभी भी पिछड़ों, अतिपिछड़ों व दलितों की तादाद ज्यादा है, से कांग्रेस आगे रही थी. मध्य प्रदेश भाजपा का गढ़ है फिर भी भाजपा हारी तो शिवराज सिंह चौहान और भाजपा के रणनीतिकारों का चौंकना लाजिमी था. लिहाजा, जम कर इस हार पर बारीकी से चर्चा हुई और जब वजह सामने आई तो पता चला कि दलित और आदिवासी अब पौराणिकवादी भाजपा के साथ नहीं हैं.
यह वाकई बेहद चिंता की बात थी. लिहाजा, शिवराज सिंह चौहान और आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत के बीच कई दफा लंबी मीटिंगों के दौर चले कि कैसे दलितों को अपने खेमे में लाया जाए. इसी बीच, मध्य प्रदेश की मैहर विधानसभा सीट का उपचुनाव आया जिस में हैरतअंगेज तरीके से भाजपा जीती.
यह जीत भगवा खेमे के लिए गर्व की बात थी. जीत के पीछे वजह इतनी भर थी कि चुनाव के पहले ही शिवराज सिंह चौहान ने मैहर में दलितों के एक संत रविदास की जयंती सरकारी तौर पर मनाने का ऐलान किया था और रविदास का मंदिर बनाने के लिए जमीन व मदद देने का भी ऐलान किया था. चुनाव प्रचार में मैहर की दलित बस्तियों में घूमघूम कर खुद शिवराज सिंह चौहान ने ये बातें दोहराई थीं.
यही वह वक्त था जब दलित समुदाय आरएसएस को ले कर डरा हुआ था क्योंकि वह आरक्षण पर दोबारा सोचविचार की बात कर रहा था. इस से दलितों और भाजपा के बीच खुदी खाई और गहरी हो गई थी. लेकिन शिवराज सिंह चौहान का आइडिया मैहर में चल गया कि दलितों को लुभाने का एक बेहतर और कारगर तरीका यह भी है कि उन्हें उन के संतों के नाम पर बहलायाफुसलाया जाए, इस में हर्ज की कोई बात नहीं, उलटे फायदा यह है कि भाजपा के सिर से ऊंची जाति वालों और मनुवादी पार्टी होने का ठप्पा हटने में सहूलियत रहेगी.
भाजपा और आरएसएस ने सार यह निकाला कि अब 12-15 फीसदी ऊंची जाति वालों को खुश रखने के लिए दलित, आदिवासियों के 35-40 फीसदी वोट गंवाना समझदारी की बात नहीं क्योंकि वे अब राजनीति में पहले सी दिलचस्पी नहीं लेते. लिहाजा, बड़े पैमाने पर दलितों को धर्म से इस तरह जोड़ा जाए कि वे ऊंची जाति वाले देवीदेवताओं को ही पूजने की जिद न करें और दबंग व पैसे वाले होते जा रहे पिछड़े भी नाराज न हों जो तकरीबन सवर्ण हो चुके हैं.
इस के लिए जरूरी था कि अंबेडकर की जन्मस्थली महू में नरेंद्र मोदी को लाया जाए. इस बाबत शिवराज सिंह 2 मर्तबा पीएम से मिले और आरएसएस के जरिए भी दबाव बनवाया. लिहाजा, मोदी को महू आने को तैयार होना पड़ा.
शिवराज सिंह और आरएसएस की जोड़ी ने मोदी की सभा को कामयाब बनाने के लिए दिनरात एक कर दिया और महू में 5 लाख दलितों को जुटाने का टारगेट अपनेआप को दिया जो हालांकि पूरा नहीं हुआ. लेकिन मोदी की कदकाठी के लिहाज से लाज बचाने लायक भीड़ इकट्ठा करने में यह जोड़ी कामयाब रही.
मोदी जो नहीं बोले
नरेंद्र मोदी क्या बोलेंगे, इस में सभी की दिलचस्पी थी पर मोदी की दिक्कत यह थी कि जरूरत से ज्यादा दलितों की हिमायत की या हमदर्दी दिखाई तो दांव उलटा भी पड़ सकता है. लिहाजा, वे बेहद सधे ढंग से बोले.
उन्होंने अंबेडकर को महज आदमी नहीं, बल्कि एक संकल्प बताया और इस के बाद ग्राम उदय योजना और बिजली, पानी व शौच पर भाषण देते वक्त उन के बारे में बात काट दी. जिस से दलितों के हाथ मायूसी ही लगी जो आस लगाए आए थे कि प्रधानमंत्री एक दफा इस गलतफहमी को अंबेडकर जयंती पर खुलेतौर पर दूर कर दें कि कुछ भी हो जाए, आरक्षण नहीं हटेगा. इस से लगा कि इस मसले पर भगवा खेमा ही 2 धड़ों में बंटा हुआ है. अपने जानेपहचाने अंदाज में यह कहकर जरूर मोदी ने तालियां पिटवा दीं कि एक चाय बेचने वाला, यानी अंबेडकर और उन के बनाए संविधान की वजह से ही, पीएम है. खुद को गरीब तबके का बताते मोदी ने यह भी दोहराया कि उन की मां घरों में काम करती थीं.
खुद को गरीब बता कर पीएम बनने के लिए वे पहले से ही हमदर्दी बटोर रहे हैं पर महू में पुराने डायलौग को दोहराने का मकसद यह था कि जाति की बात खुलेतौर पर कहने से बचा जाए. ऐसा पहली बार हुआ कि मोदी के बोलने में पहले सा दम नहीं दिखा क्योंकि वे मुद्दों की बात नहीं बोल पा रहे थे. मुद्दे की बातें थीं कि हिंदू धर्म में पसरी छुआछूत, भेदभाव और वर्ण व्यवस्था के चलते अंबेडकर ने 11 अक्तूबर, 1956 को हिंदू धर्म छोड़ बौद्ध धर्म अपनाते यह कहा था कि ऐसा लग रहा है कि आज मेरा दूसरा जन्म हुआ है. आज भी हालात बहुत ज्यादा बदले नहीं हैं. इसी दिन हैदराबाद के खुदकुशी कर चुके दलित छात्र रोहित वेमुला के घरवालों ने बौद्ध धर्म अपनाया तो नागपुर में जेएनयू के छात्र कन्हैया
कुमार की जम कर बेइज्जती हिंदूवादी संगठनों ने की क्योंकि कन्हैया सीधेसीधे आरएसएस पर उस के घर में घुस कर निशाना साध रहा था. ऐसे में आरएसएस का भोपाल सहित देश के कई हिस्सों में पौराणिक व ब्राह्मणी तर्ज पर अंबेडकर जयंती पर पथ संचलन करना यानी जुलूस निकालने की तुक क्या थी, बात समझ से परे है. भोपाल में स्वयंसेवकों ने पहली दफा अंबेडकर की मूर्ति पर फूलमाला चढ़ाई. भारत माता के वेष में छोटी लड़कियों को इस्तेमाल किया तो आरएसएस का मकसद साफ था कि अब मुद्दा भारत माता होगा क्योंकि वह सभी तरह के हिंदुओं का है. मान्य देवियां अब ऊंचे सवर्णों, पिछड़ों के लिए रिजर्व हो गई हैं. बिना घरबार वाली भारत माता को दलितों और पिछड़ों के अछूत वर्गों को पकड़ाया जा रहा है.
हांका जा रहा है दलितों को
दलितों का पढ़ालिखा, बुद्धिजीवी तबका नरेंद्र मोदी से आरक्षण पर उन का रुख एकदम साफ करने के अलावा यह सुनने की उम्मीद भी पाले बैठा था कि छुआछूत और जातिगत भेदभाव बड़े अभिशाप हैं, इन से छुटकारा दिलाया जाएगा. पर मोदी खुले में शौच जाने पर चिंता जताते रहे तो साफ हो गया कि इस बार बड़े पैमाने पर अंबेडकर जयंती मनाए जाने का मकसद इतना भर था कि दलित अपनेआप को हिंदू मानने लगें और वे अंबेडकर को देवता मानें तो यह और खुशी की बात है क्योंकि इस पर पिछड़ों को भी कोई एतराज नहीं है. हर एक पिछड़ी जाति का अपना एक अलग देवता है जिस की जयंती वे भी धूमधाम से मनाने लगे हैं. शौच पर बात तो नरेंद्र मोदी करते हैं पर सीवर डलवाने और नल से पानी जाने की नहीं क्योंकि उस के बिना शौचालय बेमतलब का है. शौचालय को तो बहाना बनाया जा रहा है.
दरअसल, दलितों को हांका जा रहा है ताकि वे मुसलमान, ईसाइ या बौद्ध न बनें. अंबेडकर के नाम पर ही नए पुजारियों के साथ सही पूजापाठ तो करें, आरती गाएं, झांकियां लगाएं, शोभायात्राएं निकालें, प्रसाद चढ़ाएं, नाचेगाएं, अगरबत्तियांमोमबत्तियां जलाएं. यह खुशी की बात है और इस के लिए उन के सामने मोदी, शिवराज या भागवत को सवर्णों की तरफ से झुकना पड़े तो हर्ज या नुकसान की कोई बात नहीं. आरएसएस के लिए तो हमेशा की तरह आज भी हिंदू धर्म खतरे में है जिसे बचाए रखने के लिए दलितों की तादाद अहम है और भाजपा को वोट दे कर सत्ता में बैठाए रखने में भी दलितों का रोल अहम हो चला है.
अब यह दलितों को तय करना है कि कौन सा रास्ता उन के लिए भले का है– पूजापाठ वाला जिस के लिए अंबेडकर को उन का देवता बनाया जा रहा है या फिर सामंत व सवर्णवाद से लड़ने के लिए तालीम व रोजगार हासिल करने वाला जिस के लिए उन्हें किसी देवीदेवता की जरूरत नहीं. भाजपा जिस सामाजिक समरसता की बात कर रही है, उस का रास्ता मंदिरों और पंडेपुजारियों से हो कर नहीं जाता बल्कि बराबरी का अपना हक हासिल करने से है.
पहले वाले रास्ते में दलित खुद भी यह मानने को मजबूर हो जाते हैं कि छोटी जाति में पैदा होना उन का पिछले जन्मों का फल है, इसलिए लातें तो खानी पड़ेंगी, यही प्रायश्चित्त है. यही वह हालत थी जिस का बुद्ध ने विरोध किया था और अंबेडकर ने भी. उन दोनों ने अपनेअपने समय में आगाह भी किया था कि उन्हें या किसी और आदमी को देवता या भगवान मत बना देना वरना पूजापाठ तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ेगा. हिंदूवादी आज दलितों को पौराणिक तर्ज पर पूजापाठ में उलझा व उकसा रहे हैं और इस बाबत पहली दफा आरएसएस ने भी कमर कस ली है. दलित कल बेचारे थे और आज भी वे बेचारे जैसे हैं क्योंकि वे भाजपा व आरएसएस की इस साजिश को समझ नहीं पा रहे.
दलित और आरक्षण
भाजपा अब दलितों को गले तो लगा रही है पर आरक्षण का क्या होगा, इस सवाल का वह साफ जवाब नहीं दे पा रही. आरक्षण का राग आरएसएस ने छेड़ा था. बिहार में तो वोटर ने इस का करारा जवाब दे दिया पर अब हालात बदले हैं.
आरक्षण पर दोबारा सोचविचारी का गाना आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने गाया था पर महू शो के बाद लग ऐसा रहा है कि वह दलितों के मुंह से ही कहलवाना चाह रही है कि पैसे वाले दलितों को आरक्षण छोड़ देना चाहिए. रामविलास पासवान के सांसद बेटे चिराग पासवान ने इस बात का समर्थन किया तो महू में नरेंद्र मोदी ने इसी बात को दूसरी तरह से इशारों में कहा कि उन के कहने पर कई पैसे वालों ने गैस सब्सिडी छोड़ दी.
क्या इस बात का मतलब यह समझा जाए कि पैसे वाले दलित खुद आरक्षण छोड़ दें? इसे ले कर दलित समुदाय में बेहद कशमकश का माहौल है. हालांकि शिवराज सिंह चौहान कहते रहे हैं कि कुछ भी हो जाए, मौजूदा आरक्षण व्यवस्था खत्म नहीं होगी.
मौजूदा आरक्षण व्यवस्था बदली नहीं जाएगी, इस की गारंटी लेने को कोई तैयार नहीं. ऐसे में तो पढ़ेलिखे दलित चिंता में हैं कि कहीं ऐसा न हो कि बदलाव के नाम पर उन्हें ठग लिया जाए. कांग्रेस देशभर में कमजोर हो चुकी है तो बसपा के पास भी पहले सा जनाधार नहीं रहा. उलटे, खुद मायावती यह कहती रहती हैं कि गरीब सवर्णों को आरक्षण देने में हर्ज नहीं.
यानी सवर्ण दल अब दलितों को और दलित दल अब सवर्णों को लुभाने की बातें व राजनीति कर रहे हैं. इस में नुकसान दलितों का ही होना है. उधर, आरएसएस का दलितों को संदेशा साफ है कि पूजापाठ करो तो स्वागत है और बराबरी चाहिए तो सवर्ण हो चले दलितों को आरक्षण छोड़ने को तैयार रहना चाहिए. लेकिन ऐसे में अगर अब आरएसएस ने आरक्षण का गाना दोबारा गाया तो तय है इस की कीमत भाजपा को और उस से भी पहले नरेंद्र मोदी को चुकानी पड़ेगी क्योंकि महू शो इन दोनों की ही मिलीभगत से तय हुआ था.
दलित वोटबैंक भुनाने में कोई भी पीछे नहीं
दलितों पर राजनीति किया जाना नई बात नहीं है और अंबेडकर जयंती इस के लिए सुनहरा मौका होता है. भाजपा के महू शो की तैयरियों का अंदाज सभी पार्टियों को था. लिहाजा, सभी ने अंबेडकर के बहाने दलितों को लुभाने और बहकाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. बसपा सुप्रीमो लखनऊ से तिलमिलाती हुई बोलीं कि भाजपा को देश को हिंदू राष्ट्र बनाने का सपना पूरा नहीं होने देंगे तो उन का मकसद इतना भर जताना था कि भाजपा मनुवादी पार्टी है और दलित हिंदू नहीं हैं.
ऐसा पहली बार हुआ जब भाजपा ने बड़े पैमाने पर अंबेडकर जयंती मनाई जिस से मायावती को दलित वोटों पर अपना दबदबा खतरे में नजर आया. मायावती की तरह कांग्रेस ने भी भाजपा को जम कर यह कहते कोसा कि वह धर्म के नाम पर देश को बांट रही है और अंबेडकर के नाम पर राजनीति कर रही है. इधर, महू में यही आरोप मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कांग्रेस के सिर मढ़ दिया कि वह अंबेडकर के नाम पर राजनीति करती रही है, नरेंद्र मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं जो बाबासाहेब की जन्मस्थली तक उन की जयंती पर आए.
कांग्रेस ने तो बाकायदा भीम ज्योति यात्रा का आयोजन किया था जो 18 अप्रैल को लखनऊ में खत्म हुई. इस मौके पर कांग्रेसी नेता मोहसिना किदवई ने भाजपा को निशाने पर लेते कहा कि वह जिन्ना की मुसलिम लीग की तरह है और लोगों को सांप्रदायिक तौर पर बांटने व उन में नफरत फैलाने का काम करती है. कांग्रेस के दलित नेता सुशील कुमार शिंदे ने महू शो पर निशाना साधते कहा कि दरअसल, अंबेडकर जयंती धूमधाम से मनाने का पहला फैसला कांग्रेस ने लिया था जिस की भनक भाजपा को लगी तो उस की नींद खुली.
दलितों और अंबेडकर पर सियासत कर रहे इन तमाम दलों की नींद जरूर अभी तक नहीं खुली है कि असल में गड़बड़झाला कहां है. शिवराज सिंह चौहान महू में मोदी के गुणगान में लगे रहे तो मोहसिना किदवई और शिंदे लखनऊ में सोनिया व राहुल की तारीफों में कसीदे गढ़ते रहे. दलित राजनीति के अखाड़े में बिलाशक बाजी भाजपा ने मारी जिस ने सभी के अंदाजों को झुठलाते हुए दलितों के सामने अपना सिर झुका दिया. उत्तर प्रदेश में चुनावी तैयारियां जोरों पर हैं, ऐसे में महू का शो बसपा और कांग्रेस दोनों को भारी पड़ सकता है.
यह हकीकत दलित समुदाय बेहतर जानता है कि कोई पार्टी उस की सगी नहीं है. कांग्रेस का लंबे वक्त तक दलित वोटों पर एकछत्र राज रहा तो इस सिलसिले को कांशीराम ने बसपा बना कर तोड़ा. बाद में मायावती दलितों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरीं तो दलितों ने उन्हें भी खारिज कर दिया.
दलित अब भाजपा को गले लगाएंगे, इस में शक है. पिछले अनुभव बताते हैं कि जिस किसी भी पार्टी ने भी दलितों पर जरूरत से ज्यादा राजनीति की है वह सत्ता पाने में कामयाब नहीं हुई है. इस की बेहतर मिसाल मध्य प्रदेश है जिस के 2003 के विधानसभा चुनाव में तब के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का दलित प्रेम इतने शबाब पर था कि वे यह तक कहने लगे थे कि कांग्रेस को सवर्ण वोटों की जरूरत नहीं. तब से कांग्रेस सूबे की सत्ता से बाहर है.
इस का एक मतलब यह भी निकलता है कि जरूरत से ज्यादा लगाव और हमदर्दी दिखाने वालों को दलित नकार देता है क्योंकि इस से उस की सामाजिक परेशानियां हल नहीं होतीं, न ही उसे बराबरी का हक मिलता है. वह शुरू से ही दोयम दरजे का रहा है, इस से उसे कोई छुटकारा नहीं दिलाता. ऐसे में जातिगत समीकरण का ऊंट किस करवट बैठेगा, यह कह पाना मुश्किल है.
कुंभ में नहलाएंगे दलितों को
दलित अब पूरी तरह खुद को हिंदू महसूस करने लगे, इस बाबत आरएसएस और शिवराज सिंह चौहान दलित आदिवासियों को कुंभ में नहाने का भी इंतजाम कर रहे हैं. आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की रजामंदी से ‘दलित आदिवासी स्नान’ की डुबकी उज्जैन में 12 मई से 15 तक होगी. इस डुबकी को संघ ने समरसता स्नान नाम दिया है. इस के लिए बाकायदा अलग पंडाल लगाया जा रहा है और खुद आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत व दूसरे पदाधिकारी दलितों के साथ नहाएंगे, खाना खाएंगे और पूजापाठ करेंगे. इन टोटकों को और कारगर बनाने के लिए अंबेडकर की जन्मस्थली महू से पानी लाया जाएगा. यह ‘दलित स्नान’ अपनेआप में भेदभाव से भरा है. जिस के जरिए संदेश यह भी दिया जा रहा है कि दलित ऊंची जाति वालों से अलग हैं और अंबेडकर भले ही पूजापाठ व नदी स्नान सहित दूसरे कर्मकांडों की मुखालफत करते थे पर उन्हें भगवान मानने वाला दलित नहीं करता, क्योंकि वह हिंदू है.
दलित आदिवासी क्यों कुंभ नहाएं, इस सवाल का एक जवाब यह भी है कि वे तर जाएं और पुराने जन्मों के पाप धो लें जिन के चलते वे शूद्र योनि यानी छोटी जाति में पैदा हुए. दलित डुबकी के दूसरे माने ये हैं कि कुंभ में आए पंडों, संतों और महंतों को चढ़ावा ज्यादा मिले. उज्जैन में बड़े नामीगिरामी संत और उन के अखाड़े तंबू गाड़े हिंदुत्व के इन नए ग्राहकों का इंतजार कर रहे हैं. दलितों को महू की तरह उज्जैन तक ले जाने की सूबे में तैयारियां जोरों पर हैं जिस का एक मकसद यह भी है कि दलित नए हिंदूवाद में आरएसएस का साथ दें जिस के तहत हरएक को भारत माता की जय बोलना चाहिए. जय श्रीराम की जगह भारत माता को दे दी गई है जिस से ऊंची जाति वाले हिंदू राममंदिर निर्माण के बाबत सवाल न पूछें.
दलितों को कुंभ नहलाने के ऐलान से सब से ज्यादा खुश पिछड़े तबके के लोग हैं जिन्हें दलितों से अलग कर बड़ा हिंदू मान लिया गया है. वर्णव्यवस्था का विरोध करते रहने वाले अंबेडकर के उसूलों को क्षिप्रा नदी में डुबकी लगा कर दलित भूल जाएं और नई वर्णव्यवस्था को मंजूरी दे दें. इस का असल मकसद है कि तुम हिंदू तो हो पर अभी छोटे हो. इसलिए और बड़ा बनने के लिए कर्मकांडों में उलझ जाओ.