जब एक प्रवासी अपने मूल देश को बैंक, पोस्ट औफिस या औनलाइन ट्रांसफर से धनराशि भेजता है तो उसे रेमिटेंस कहते हैं. उदाहरण के लिए खाड़ी के देशों में काम कर रहे भारतीय कामगार या अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में डॉक्टर और इंजीनियर की नौकरी कर रहे प्रवासी भारतीय जब भारत में अपने माता-पिता या परिवार को धनराशि भेजते हैं तो उसे रेमिटेंस कहते हैं. जो देश रेमिटेंस प्राप्त करता है, उसके लिए यह विदेशी मुद्रा अर्जित करने का जरिया होता है और वहां की अर्थव्यवस्था में इसका महत्वपूर्ण योगदान होता है. खासकर छोटे और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था को गति देने में रेमिटेंस ने अहम भूमिका निभाई है.
कई देश ऐसे हैं, जिनके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में रेमिटेंस से प्राप्त राशि का योगदान अन्य क्षेत्रों के मुकाबले काफी अधिक है. मसलन नेपाल, हैती, ताजिकिस्तान और टोंगा जैसे देश अपने जीडीपी के एक चौथाई के बराबर राशि रेमिटेंस के रूप में प्राप्त करते हैं.
वैसे राशि के हिसाब से देखें तो दुनियाभर में सर्वाधिक रेमिटेंस भारत प्राप्त करता है. विश्व बैंक के अनुसार 2017 में विदेशों में बसे प्रवासी भारतीयों ने 69 अरब डॉलर रेमिटेंस के रूप में स्वदेश भेजे. यह राशि भारत के जीडीपी की 2.7 प्रतिशत है और पिछले साल देश में आए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) से काफी अधिक है.
रेमिटेंस प्राप्त करने के मामले में भारत ने पड़ोसी देश चीन को भी पीछे छोड़ दिया है. एक समय था, जब सबसे ज्यादा रेमिटेंस चीन में ही आता था. 2017 में चीन को रेमिटेंस से 64 अरब डॉलर, फिलीपींस को 33 अरब डॉलर, मैक्सिको को 31 अरब डॉलर, नाइजीरिया को 22 अरब डॉलर और मिस्न को 20 अरब डॉलर प्राप्त हुए. कुल मिलाकर पूरी दुनिया में 613 अरब डॉलर राशि का रेमिटेंस के रूप में आदान-प्रदान हुआ. इस तरह पता चलता है कि रेमिटेंस के रूप में कितनी बड़ी राशि का आदान-प्रदान वैश्विक स्तर पर विभिन्न देशों के मध्य होता है.
हालांकि प्रवासियों को अपने मूल देश में रेमिटेंस भेजने में कई कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता है. सबसे बड़ी कठिनाई रेमिटेंस भेजने की लागत है. विश्व बैंक के अनुसार लगभग 200 डॉलर भेजने पर 7.1 प्रतिशत लागत आती है, जो सतत विकास लक्ष्यों में तय किए गए तीन प्रतिशत के लक्ष्य की तुलना में दोगुने से ज्यादा है.
भारतीय अर्थव्यवस्था में रेमिटेंस की महत्वपूर्ण भूमिका है. फिलहाल भारत का चालू खाते का घाटा जीडीपी के दो प्रतिशत के बराबर है. चालू खाते का घाटा देश के भीतर आने वाली विदेशी मुद्रा और देश से बाहर जाने वाली विदेशी मुद्रा के अंतर को दर्शाता है. विशेषज्ञों का मानना है कि यदि अनिवासी भारतीय रेमिटेंस के रूप में विदेशी मुद्रा नहीं भेजते तो यह पांच प्रतिशत के आसपास होता और भारत भी तुर्की व अजेर्ंटीना जैसे देशों की कतार में खड़ा होता.