कभी न कभी हम सभी ने प्राणप्रतिष्ठा शब्द सुना ही है. नवनिर्मित मंदिरों में मूर्तियों की प्राणप्रतिष्ठा की जाती है. जानेमाने और प्रकांड पंडित राहुल शर्मा के अनुसार, किसी भी मंदिर में मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा से मतलब है कि मूर्ति को मंदिर में विशेष स्थान पर स्थापित करना. स्थापित करने से पहले विशिष्ट स्थान और मूर्ति दोनों को ही विभिन्न मंत्रोच्चारों द्वारा पवित्र किया जाता है.

धर्मग्रंथों में मानवजीवन के 16 संस्कार माने गए हैं और उन सभी संस्कारों का अपना विशिष्ट महत्त्व है. धार्मिक मान्यतानुसार, जिस तरह मनुष्य के लिए 16 संस्कारों का किया जाना जरूरी होता है उसी तरह पाषाण मूर्ति स्वरूप भगवान के 15 संस्कारों को विभिन्न धार्मिक मंत्रों द्वारा संपादित किया जाता है. 16वां मरण संस्कार भगवान का किया जाना धार्मिक ग्रंथों में मना है क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापी और अजरअमर है.

किन मूर्तियों की होती है प्राणप्रतिष्ठा

जब किसी मंदिर में मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा की जाती है तो मूर्ति को गाजेबाजे के साथ शिल्पकार की दुकान से लाया जाता है. एक मंदिर के पुजारी का कहना है कि हर मूर्ति को प्राणप्रतिष्ठा की जरूरत नहीं होती. केवल 12 अंगुल से बड़ी मूर्तियों की ही प्राणप्रतिष्ठा की जाती है. घरों के मंदिरों में रखी जाने वाली मूर्तियों को प्राणप्रतिष्ठा की जरूरत नहीं होती. केवल अचल और स्थायी मूर्तियों की ही स्थापना की जाती है यानी एक बार किसी स्थान पर प्राणप्रतिष्ठा की गई मूर्तियों को उन के स्थान से हिलायाडुलाया नहीं जा सकता. आमतौर पर इस तरह की प्राणप्रतिष्ठा मंदिरों में ही की जाती है.

कैसे की जाती है प्राणप्रतिष्ठा

पंडित राहुल शर्र्मा के अनुसार प्राणप्रतिष्ठा का काम करने में 3 से 5 दिन लगते हैं और कम से कम 5 पंडित इस काम को करते हैं. किसी भी मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा करवाए जाने से पहले

84 कुंभ या घड़े भरे जाते हैं जिन में पंचगव्य, सप्तधान, औषधियां, पंचामृत, अक्षत जैसी कई वस्तुएं होती हैं. मूर्ति को स्नान करवाने के लिए हजार छेद वाला कलश लिया जाता है. दूध, दही, घी, पंचामृत आदि से मूर्ति को स्नान करवाने के बाद नए वस्त्र पहनाए जाते हैं. उस के बाद खुले वाहन पर बैठा कर मूर्ति को नगरभ्रमण करवाया जाता है.

जिस स्थान पर मूर्ति को स्थापित किया जाता है वहां पर जमीन में सोना, मुद्रा, अन्न आदि को रख कर मूर्ति के लिए पाट बनाया जाता है. जिस भगवान की प्राणप्रतिष्ठा की जाती है, विभिन्न मंत्रों के उच्चारण द्वारा उन का आह्वान किया जाता है ताकि वे उस मूर्ति में जीवंतस्वरूप में प्रविष्ट हो जाएं, पाषाण मूर्ति में जान डालने की न्याय प्रक्रिया कहा जाता है. मूर्ति के स्थापित हो जाने के बाद भगवान की आरती और पूजा की जाती है. प्राणप्रतिष्ठा के आयोजन को समारोहपूर्वक संपन्न कराने में शहर या गांव के नामीगिरामी लोगों के साथसाथ आम जनता को भी इकट्ठा किया जाता है.

प्राणप्रतिष्ठा का मतलब

सवाल है कि प्राणप्रतिष्ठा का आखिर मतलब क्या है? क्या किसी भी बेजान पाषाण प्रतिमा में किसी मंत्र या उपक्रम द्वारा जान फूंकी जा सकती है? और इस से लाभ किसे है? हर जगह मौजूद और अदृश्य ईश्वर को एक मूर्ति के अंदर कैसे समाहित किया जा सकता है? एक आम इंसान, फिर चाहे वह पंडित ही क्यों न हो, मूर्ति के अंदर प्राण कैसे फूंक सकता है या किसी मूर्ति को जीवंतस्वरूप किस तरह दिया जा सकता है.

मूर्ति में प्राण आने के बाद तो वह बोलने लगती होगी, चलने लगती होगी, भक्तों से बातें तो जरूर करती होगी. फिर तो भक्तों को कोई दुख, समस्या रहनी ही नहीं चाहिए. वास्तव में यदि गहराई और तर्क के साथ विचार किया जाए तो प्राणप्रतिष्ठा महज एक ढोंग और अंधविश्वास के अलावा कुछ नहीं है. जिस का इस्तेमाल आम जनता को मूर्ख बनाने में किया जाता है. प्राणप्रतिष्ठा के समय ही आम जनता द्वारा नवस्थापित मूर्ति पर जम कर चढ़ावा चढ़ाया जाता है. जिस पर पूरा अधिकार प्राणप्रतिष्ठा करवाने वाले पंडितों का होता है. इस के अलावा समाज के जिस वर्ग द्वारा मंदिर में मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा करवाई जाती है उस के द्वारा भी पंडितों को जम कर दानदक्षिणा दी जाती है.

दरअसल, यह देश के पंडेपुजारियों द्वारा देश की धर्मभीरू जनता की भावनाओं का फायदा उठा कर किया जाने वाला एक थोथा उपक्रम है, जिस से चढ़ावे के जरिए वे अपनी आजीविका चलाते हैं. भारतीय पूजापाठ में चढ़ावा एक मजबूत जरिया है जिस में सोनाचांदी से ले कर हजारोंलाखों रुपए चढ़ाए जाते हैं. भारत के बड़ेबड़े मंदिरों में करोड़ों का चढ़ावा चढ़ाया जाता है. इस प्रकार की प्राणप्रतिष्ठा केवल चढ़ावे का पाखंड है जिस के जरिए आम जनता को बेवकूफ बनाया जाता है.

धर्मग्रंथों में है इस का विधान

मूर्तियों की प्राणप्रतिष्ठा का विधान वेदों से ले कर बाद में रचे कर्मकांड की किताबों तक में लिखा गया है. बाजार में प्रतिमाओं की प्राणप्रतिष्ठा को ले कर कई पुस्तकें खूब बिक रही हैं. कर्मकांड भास्कर, कर्मकांड प्रदीप, प्रतिष्ठा मयूख, बृहत कर्मकांडसमुच्चय प्रमुख किताबें हैं.

अथर्ववेद में प्राणप्रतिष्ठा को महिमामंडित करते हुए लिखा गया है,

प्राणाय नमो यस्य सर्वमिंद वशे.

यो भूत: सर्वस्येश्वरी यस्मिन्त्सर्वं

प्रतिष्ठितम््.

-अथर्ववेद-11-6/1

अर्थात, इस प्राण के लिए नमस्कार है, जिस के वश में यह समस्त चराचर जगत है. यह प्राण सब का ईश्वर है और इसी में सारा जगत स्थित है.

प्राणमाहुर्मातरिश्वानं,

वातो ह प्राण उच्चते.

प्राणे ह भूतं भव्यं च,

प्राणे सर्वं प्रतिष्ठितम्.

-अथर्ववेद-11-6/15

अर्थात प्राण को मातरिखा अंतरिक्ष का स्वामी वायु कहा गया है. इसी वायु को प्राण कहा जाता है. उन दोनों में केवल नाम का भेद है. जगत के आधार पर बने हुए उस प्राण में भूतकाल से संबंधित और भविष्यकाल में उत्पन्न होने वाला जगत आश्रित रहता है. इस प्रकार प्राणों में ही सब प्रतिष्ठित है.

आगे लिखा है,

अस्यै प्राणा: प्रतिष्ठंतु,

अस्यै प्राणा: क्षरंतु च.

अस्यै देवत्वमचर्यायैमामहेति

च कश्चन.

अर्थात इस देव प्रतिमा के प्राण यहां प्रतिष्ठित हों, इस में निरंतर दिव्य प्राणों का संचार होता रहे. अर्चना के लिए इस के देवत्व की महानता को कोई सामान्य न समझे.

प्रतिमा के प्राण के लिए आह्वान

ऊं ही क्रो यं लं वं शं,

षं सं हं क्षं हं सं.

अस्या प्रतिमाया जीव इह स्थित:

ऊं आं हृं क्रो यं रं लं वं शं,

षं सं हं लं क्षं हं सं.

अस्या: प्रतिमाया: सर्वेंद्रियाणि

वांग्ड मनस्त्वक चक्षु:

क्षोत्रजिव्हा घ्राणपाणिपादपायूपस्थानि

इहैवोगत्य सुखं चिरं तिष्ठंतु स्वाहा.

अर्थात हम उपरोक्त मंत्रों द्वारा इस प्रतिमा में आप के प्राणों की, जीव की तथा समस्त इंद्रियों की प्रतिष्ठा करते हैं. आप यहां उपस्थित हो कर चिरकाल तक सुखपूर्वक निवास करें. हम आप का यजन करते हैं.

कर्मकांड भास्कर के अनुसार, प्राणप्रतिष्ठा करने से पहले षट्कर्म कराया जाता है. जिस प्रतिमा की प्राणप्रतिष्ठा करनी है, उसे परदे के बाहर आसन पर बैठा कर पहले षट्कर्म करा दिया जाए, शुद्धि सिंचन यज्ञ के कलशों का जल अनेक पात्रों में निकाल कर रखा जाए. यह मंत्र, ‘ऊं आपोहिष्ठा मयोभुव:, ता न अ ऊर्जे दधानत महेरणाय चक्षसे,’ पढ़ते हुए साथसाथ उस जल का सिंचन, उपस्थित व्यक्तियों, पूजन सामग्री, मंदिर और मूर्तियों पर किया जाए.

शुरू में मूर्ति को 10 स्नान कराए जाते हैं. मूर्ति जिस पत्थर या धातु की बनी है उस में सन्निहित कुसंस्कारों के निवारण तथा वांछित संस्कारों की स्थापना के लिए यह कराया जाता है. इस के बाद ही प्रतिमा सत्ता की प्रतीक बनने योग्य होती है.

प्रथम 4 स्नान भस्म, गोबर, मिट्टी और गोमूत्र से होते हैं. ये अवांछनीय संस्कारों के निवारण के लिए होते हैं. शेष 6 पदार्थों में दही, दूध, घी, सर्वोषधि, कुशोधक और शहद का प्रयोग इसी प्रकार किया जाए. अंत में शुद्ध जल से स्नान करा दिया जाना चाहिए. प्राणप्रतिष्ठा के बाद प्रतिमा को वस्त्र, आभूषण पहनाए जाएं.

कर्मकांड भास्कर, युग निर्माण योजना, प्रैस मथुरा के प्राणप्रतिष्ठा विधान में लिखा है,

अस्य श्रीप्राण प्रतिष्ठा मंत्रस्य

ब्रह्मा, विष्णु महेश्वरा : ऋ षय :,

ऋ ग्यजु सामानि छंदांसि.

क्रियामय वपु: प्राण शक्ति देवता.

ऐं बीजम्, हृं शक्ति : क्रीं कीलम.

प्राण प्रतिष्ठाने विनियोग :

इस प्रकार, पत्थर की मूर्तियों में प्राण डालने का ढोंग धर्म की पुस्तकों में इसलिए लिखा गया है ताकि प्रतिमाओं में शक्ति के नाम पर भोलेभाले धर्मांध लोगों को बेवकूफ बना कर अपना स्वार्थ साधा जाए.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...