‘हजार चौरासी की मां’’, ‘‘लगान’’, ‘‘अपहरण’’, ‘अब तक छप्पन’’, ‘गंगाजल’’, ‘धूप’, ‘ट्यूबलाइट’ सहित कई सफल फिल्मों के अलावा कलात्मक सिनेमा की फिल्मों में अभिनय करते हुए यशपाल शर्मा ने अपनी एक अलग पहचान बनायी है. इतना ही नहीं वह आसामी, हरियाणवी, गुजराती, तेलगू सहित अन्य क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों में भी धमाल मचा रहे हैं. उनकी हरियाणवी फिल्म ‘‘पगड़ी’’ को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था. इस वक्त वह पवन कुमार शर्मा की कश्मीरी जाति बकरवाल पर बनी फिल्म ‘‘करीम मोहम्मद’’ को लेकर उत्साहित हैं. जिसमें वह मेन लीड में हैं.

आपके 18 साल के करियर में टर्निंग प्वाइंट क्या रहे?

18 साल के करियर मे मेरे लिए पहला टर्निंग प्वाइंट फिल्म ‘‘लगान’’ थी. फिर ‘गंगाजल’, ‘अपहरण’, ‘अब तक 56’ रही. पिछले ढाई वर्ष से मैं हरियाणा पर ज्यादा ध्यान दे रहा हूं. हरियाणा में मैंने तीन फिल्म फेस्टिवल कराए हैं. देखिए, आमिर या सलमान या शाहरुख खान के साथ फिल्में करने की मेरी इच्छा खत्म हो चुकी है. मैं मन का काम यानी कि ऐसा काम, जिसे करने में मजा आए, करना चाहता हूं. ‘सिंह इज किंग’ या ‘राउडी राठौड़’ जैसी फिल्मों में कुछ भी नया करने के लिए नहीं होता. ऐसी फिल्में करने से कलाकार के मन को संतुष्टि नही मिलती. इसी वजह से मैं थिएटर भी करता रहा. 12 नाटक कर रहा था. अब कुछ कम किया है. इन दिनों मैं फिल्म ‘करीम मेाहम्मद’ को लेकर उत्साहित हूं.

ऐसी कोई फिल्म जिसे करने से आपको संतुष्टि मिली हो, पर वह फिल्म दर्शकों तक नहीं पहुंची?

ऐसी एक फिल्म है-राजन कोठारी की ‘डाक कैपिटल’. अब तो वह भी नहीं रहे. एक ‘त्रिशा’ थी. एक हास्य फिल्म है-‘‘सबको इंतजार है’’. वास्तव मे सबसे बड़ी समस्या यह है कि अच्छी व छोटे बजट की फिल्मों को थिएटर ही नहीं मिल पाते. यह सबसे बड़ी त्रासदी है. पर मेरा यह भी मानना है कि फिल्म अच्छी बने तो रिलीज हो जाती है, भले ही उसे ज्यादा थिएटर न मिले, जैसे कि मेरी फिल्म ‘करीम मोहम्मद’ रिलीज हो रही है.

फिल्म ‘करीम मोहम्म्द’ से जुड़ने की वजह?

पवन कुमार शर्मा मेरे दोस्त हैं. वह अक्सर मुझसे अपनी फिल्म से जुड़ने के लिए कहते थे. उनकी पिछली फिल्म ‘ब्रीना’ के समय मेरे पास सिर्फ दो दिन का वक्त था, इसलिए एक छोटा सा किरदार निभाया था. फिर उसने मुझसे कहा कि उन्हे एक फिल्म के लिए 20 दिन चाहिए. मैंने कहा कि मैं व्यस्त हूं, इतने दिन नहीं दे पांउगा. उसने मुझे ‘करीम मोहम्मद’ की पटकथा पढ़ने के लिए देते हुए कहा कि इसे पढ़कर बताना कौन सा किरदार करना चाहोगे. मैंने घर पर जाकर पटकथा पढ़ी और दूसरे दिन मैं उनके पास पहुंचा और मैंने कहा कि मुझे यह फिल्म करनी है, बताओ कितने दिन चाहिए. हमने एक ही शैड्यूल में पैशन के साथ यह फिल्म पूरी की.

Yashpal sharma interview for Karim Mohammed

पटकथा पढ़कर ऐसा क्या हुआ कि आप इसे करने के लिए तैयार हुए?

पटकथा में मेरे लिए कश्मीरी बकरवाल जनजाति के इंसान का किरदार निभाना चुनौती थी. भेड़ बकरी चलाने वाला मुस्लिम किरदार है. भाषा का एसेंट अलग, पहनावा अलग. ठाकुर और इंस्पेक्टर किरदार निभाते हुए मैं तंग आ चुका हूं, मुझे लगा कि बकरवाल जाति के इंसान का किरदार निभाना चाहिए. अपनी इमेज को तोड़ने के लिए ही मैने सीरियल ‘नीली छतरी वाले’ किया था. ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ या ‘ट्यूब लाइट’ फिल्मों में भी कुछ अलग करने को मिला, तो मैंने यह फिल्में भी की. अब ठाकुर के किरदार वाली फिल्में मना कर रहा हूं.

फिल्म ‘‘करीम मोहम्मद’’ में काम करना मेरे लिए चुनौती थी. इसमें कलाकार भी कम थे. यह अपने परिवार के साथ पहाड़ों पर घूमता रहता है. उसके साथ रास्ते में क्या क्या होता है, वह सब इस फिल्म का हिस्सा है.

क्या आपने इस किरदार को निभाने के पहले कोई शोध किया?

जी हां!! मैंने बकरवाल पर अपनी तरफ से बहुत शोध किया. यूट्यूब पर मैंने उनका संगीत सुना. उनकी चाल ढाल, उनके कपडे़ देखे. उनकी शादी के वीडियो देखे. गूगल सर्च में जाकर उनके बारे में पढ़ा. फिर मैंने एक किरदार को छांट कर उसके जैसी ही अपनी दाढ़ी उगाई. उसी तरह की पगड़ी और कपड़े भी सिलवाए. शोध में मुझे पता चला कि पहाड़ों पर इतनी ठंड होती है कि यह लोग नहाते नहीं हैं. तो मैंने भी बीस दिन तक एक ही पोशाक पहनी. मैं तीन चार दिन में नहा जरूर लेता था. फिल्म में मेरी पत्नी का किरदार निभाने वाली लड़की जम्मू की है. इसने सुजीत सरकार की फिल्म ‘‘यहां’’ में मेरी छोटी बहन का किरदार निभाया था.

आपने एक बाल कलाकार हर्षित राजावत के साथ इस फिल्म में काम किया है. क्या अनुभव रहे?

जी हां! फिल्म में मेरे बेटे का किरदार फिल्म के निर्माता के बेटे हर्षित राजावत ने निभाया है. पहले तो मुझे लगा कि निर्माता का बेटा है, फिल्म को बर्बाद कर देगा. पर निर्देशक ने कहा कि सेट पर उसके साथ दो दिन काम करके देखो. हमने उस बच्चे से कहा कि वह अपनी मर्जी से काम करे और उसने जो काम किया है, वह काबिले तारीफ है. हमारी सोच से भी कहीं ज्यादा सशक्त कलाकार निकला. हर अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में उसे सर्वश्रेष्ठ बाल कलाकार का पुरस्कार मिला. अब तक मुझे दो और उसे चार अवार्ड मिल गए.

तो क्या इसमें कश्मीरी भाषा है?

नहीं! देखिए, बकरवाल जनजाति मूलतः राजस्थान के मुस्लिम गुर्जर हैं, जो कि जो कि कश्मीर में जाकर बसे हैं. बकरवालों की भाषा डोगरी या कश्मीरी से थोड़ी सी अलग है. मैंने फिल्म में वही भाषा बोली है.

Yashpal sharma interview for Karim Mohammed

फिल्म ‘करीम मोहम्मद’ में आपके किरदार की यात्रा के दौरान क्या क्या होता है?

यह एक ऐसा परिवार है, जिनका अपना कोई घर नहीं है. जिनके अपने दो घोड़े व कुछ भेड़ बकरी हैं. घोड़ों पर यह अपना तंबू वगैरह लाद कर चलते हैं. शाम होने पर कहीं भी डेरा डाल लेते हैं. रास्ते में पाकिस्तान का बार्डर आता है. बच्चा अपने पिता से कहता है कि उस पार चलें. पिता कहता है कि वह पड़ोसी मुल्क है. बेटा कहता है-‘हमारे यहां कोई पड़ोसी आता है, तो हम उसका स्वागत करते हैं.’ पिता कहता है कि, ‘बेटा तेरी समझ में नहीं आएगा. यह लकीरों का खेल है.’ इस तरह बच्चा सवाल पर सवाल करता रहता है. पूरी फिल्म बच्चे के सवालों पर है. वह जिज्ञासू है. यह बच्चों के लिए बहुत कमाल की फिल्म है. एक बच्चे के माध्यम से पूरी दुनिया की जो भी समस्याएं हैं, उनका फिल्म में चित्रण है.

आईएस आईएस, ईरान, इराक, सीरिया की समस्याओं से लेकर पाकिस्तान के आतंकवाद तक की बात की गई है. आतकंवाद हिंसात्मक हो या गैर हिंसात्मक हो, पर उस पर सवाल उठाए गए हैं. संसद में बैठे कोट पैंट वाले भी आतंकवाद फैला रहे हैं. इन सभी के ऊपर यह फिल्म तमाचा है. फिल्म में एक दृश्य में मेरी पत्नी सवाल करती है कि, ‘तुम इसकी मदद करने जा रहे हो, पर यदि यह आतंकवादी निकला, तो जान जोखिम में जाएगी.’ तब मैं कहता हूं कि, ‘यदि यह आतंकवादी ना हुआ तो. फेक इनकाउंटर भी होते हैं. जीजीबाई यह हराम के जने कभी हमारा खाना लूट लेते हैं, कभी भेड़ बकरियां छीन लेते हैं, हम कुछ नहीं कर पाते हैं. क्योंकि हमारे साथ पुलिस या आर्मी नहीं होती है. पर हम इधर इन्हें इन हराम के जनों को इनकी औकात बता सकते हैं.’ यह फिल्म जमीर और जिंदगी की लड़ाई है. खून की एक बूंद दिखाए गए बगैर आतंकवाद पर जोरदार तमाचा है. फिल्म में अंततः एक बच्चा अपने पिता की मौत के बाद जमीर और जिंदगी की लड़ाई में किस तरह से जमीर को चुनता है,वह हर इंसान को सोचने पर मजबूर कर देगा.

फिल्म में आतंकवाद के बाद शिक्षा का मुद्दा है. बकरवाल जनजाति के इस परिवार में कोई पढ़ा लिखा नहीं है, मगर यह परिवार उसूलों पर चलता है. यह परिवार पहाड़ों पर जंगल में रहता है, जिन्हे आप जंगली कह सकते हैं, पर यह सच्चाई के रास्ते पर चलते हैं. देशभक्त हैं. वर्तमान समय में उच्च वर्ग या अति अमीर ही नहीं मध्यमवर्गीय परिवार के लोग भी अपने बच्चे को यह सिखाते हैं कि 97 प्रतिशत नंबर कैसे आएं. पर उन्हें यह नहीं सिखा रहे कि सही मायनों में शिक्षा क्या है. शिक्षा का मतलब 97 प्रतिशत नंबर आना या आईएएस अफसर बन जाना या कमिश्नर बन जाना नहीं है. शिक्षा आपकी आदतों, संस्कृति, संस्कार, एटीट्यूड, भावनाओं, इंसानियत को लेकर होनी चाहिए, जो कि नहीं दी जाती. बच्चे को ऐेसे खेल नहीं खिलाए जाते जिससे बच्चे में टीम वर्क के रूप में काम करने या दूसरों की मदद करने की भावना पैदा हो. उनकी कल्पनाशक्ति को विकसित किया जाना चाहिए.

बच्चे को पहली कक्षा से ही थिएटर विषय होना चाहिए, पर हमारे स्कूली पाठ्यक्रम में थिएटर विषय है ही नहीं. मैंने अपने बच्चे से कह रखा है कि फेल मत होना. पर मेरा बेटा फुटबाल खेलता है. मिट्टी के बर्तन बनाता है. स्कैचिंग करता है. बहुत कुछ करता है. मैंने उस पर कोई दबाव नहीं बनाया है. कुल मिलाकर फिल्म ‘करीम मोहम्मद’ में शिक्षा का मुद्दा भी बहुत बडे़ स्तर उठाया गया है.

यह फिल्म औरतों को लेकर कोई बात नहीं करती?

करती है. हमारी फिल्म औरतों की स्थिति पर भी बात करती है. मंच पर ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का भाषण देने वाले लोग अपने घर में बेटी को दबा कर रखते हैं. जो लोग कहते हैं कि यदि लड़की ने छोटे कपड़े पहने तो क्या हो गया? वह खुद अपने घर की लड़की को इस तरह के कपडे़ पहनने नहीं देते. मेरा मानना है कि कथनी और करनी में अंतर नहीं होना चाहिए. कश्मीर में भी औरतों कि स्थिति भोग्या से अधिक नही है.

आप वेब सीरीज वगैरह कर रहे हैं?

मैंने एक वेबसीरीज ‘चाइनीज भसड़’ की है.उ सके बाद कोई मनपसंद वेबसीरीज आयी ही नही. हां! लघु फिल्में मैंने बहुत की हैं. लघु फिल्म ‘मुक्ति’ को कई अवार्ड भी मिले. नवाजुद्दीन सिद्दकी के साथ ‘कार्बन’ की है. यह काफी लोकप्रिय है. ‘मोक्ष’ भी पसंद की गयी.

सिनेमा बदल रहा है. पर अच्छी फिल्में को थिएटर मिलना आज भी मुश्किल है?

गुणवत्ता वाली फिल्मों को थिएटर मिल जाते हैं. पर हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हम अच्छे दर्शक तैयार करें. मैं तो खुले आम लोगों से कहता हूं कि आप एकता कपूर की फिल्में ‘क्या कूल हैं हम’ तथा ‘द ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ देखने ना जाएं. इस तरह की घटिया फिल्मों को सफल ना बनाएं. अच्छा सिनेमा देखें. ‘मुल्क’ देखकर मैंने सोशल मीडिया पर लिखा कि इसे जरूर देखें.

थिएटर में कुछ नया हो रहा है?

12 नाटक चल रहे हैं. पुराने नाटकों के शो करने में ही परेशान हो जाता हूं. तो नए नाटक कहां से लूं.

इसके अलावा कोई नई फिल्म कर रहे हैं?

इसके अलावा मनोज झा निर्देशित  फिल्म ‘‘चौहान : द कामन मैन’’ भी की है. यह फिल्म सितंबर माह में आएगी. करनाल के उद्योगपति और मशहूर शख्सियत एस पी चौहान की बायोपिक फिल्म है. इसमें मेरे अलावा जिम्मी शेरगिल ने भी अभिनय किया है. युविका चौधरी भी हैं.

एक फिल्म ‘‘मिस्टर पानवाला’’ है, जिसमें मैंने शीर्ष भूमिका निभायी है. इसे लंदन के निर्माता ने बनाया है. इसकी पांच प्रतिशत शूटिंग लंदन में और 95 प्रतिषत शूटिंग लखनऊ में हुई है. एक फिल्म ‘‘फागुन हवाएं’’ हैं. इसमें मेरा मेन लीड है. इसका निर्माण व निर्देशन बांगलादेश के मशहूर निर्देशक तौकीर अहमद ने किया है. तिग्मांशु धूलिया की फिल्म ‘‘मिलन टाकीज’’ की है.

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