यह बेहद हैरत भरी खबर है कि पिछले 4 सालों में मध्य प्रदेश के किसान बिगड़ती फसलों के कारण बुरी हालत में जा पहुंचे हैं. उन के द्वारा आत्मघाती कदम उठा कर अपना जीवन खत्म करने की कोशिशें हो रही हैं. गौरतलब है कि इन्हीं हालात में पिछले 4 सालों से मध्य प्रदेश को सर्वाधिक उत्पादकता का कृषि कर्मण अवार्ड मिलता आ रहा है.
साल 2014-15 के लिए प्रदेश को एक बार फिर से 5 करोड़ रुपए के इनाम से नवाजा गया है. जिस के जश्न में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रदेश के सिहौर जिले के भोरपुर में आमंत्रित कर के एक बड़ा किसान सम्मेलन आयोजित कराया. इस आयोजन पर करोड़ों रुपए की फुजूलखर्ची की गई. साल 2014-15 में मध्य प्रदेश में हुए 328 लाख टन के फसल उत्पादन को देश का सर्वाधिक फसल उत्पादन बताया गया है, जबकि यह वही साल था, जिस में पूरे सूबे में भयंकर बारिश व ओलों की वजह से 36 जिलों की फसलें तबाह हुई थीं. फरवरी 2015 से अप्रैल 2015 तक केंद्रीय सर्वेक्षण दल ने मध्य प्रदेश के फसल नुकसान को 35 फीसदी माना था, जबकि राज्य सरकार का फसल नुकसान का दावा 50 फीसदी से ज्यादा का था.
प्रदेश सरकार की पांचों उंगलियां घी में
मध्य प्रदेश में कर्ज में डूबे किसान लगातार आत्महत्या करने में जुटे हैं. हर साल आत्महत्या के आंकड़ों में इजाफा हो रहा है. नेशनल क्राइम रिपोर्ट 2014 में मध्य प्रदेश के किसान आत्महत्या के मामले में देश में तीसरे स्थान पर थे, जहां 1108 किसानों ने आत्महत्या की थी. प्रदेश के गृहमंत्री बाबूलाल गौर ने विधानसभा के शीतकालीन सत्र में एक सवाल के जवाब में कहा था कि 1 जुलाई 2015 से 30 अक्तूबर 2015 के दौरान प्रदेश के 193 किसानों ने अपनी जान दे दी थी. लेकिन बावजूद इस के प्रदेश सरकार की सेहत सुधरी हुई है. एक ओर बरबादी के नाम पर केंद्र से सैकड़ों करोड़ रुपए के राहत पैकेज लिए जा रहे हैं, तो दूसरी ओर सर्वाधिक उत्पादकता का 5 करोड़ रुपए का अवार्ड भी प्रदेश सरकार की झोली में पिछले 4 सालों से आ रहा है.
किसानों की हालत बदतर
मध्य प्रदेश में किसानों की हालात बद से बदतर बनी हुई है. प्रदेश की 60 फीसदी कृषि आज भी बारिश के पानी पर आधारित है. प्रदेश में नदियों का बहाव कम होने के कारण सिंचाई के साधन विकसित नहीं हो पाए हैं. लेकिन बरसात के पानी को जमा करने के माकूल हालात के बाद भी प्रदेश सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया है. एक दशक पहले लाई गई बलराम तालाब योजना के तहत खेतखेत तालाब बना कर सिंचाई के इंतजाम को मजबूत करना था, लेकिन प्रदेश में 60 फीसदी बलराम तालाब कागजों में ही बन कर रह गए. सरकारी पैसे का दोहन नौकरशाहों व नेताओं द्वारा किया गया है. हालत यह है कि अब प्रदेश की सरकार इस योजना को बंद करने पर विचार कर रही है.
प्रदेश में प्रस्तावित बांध योजनाएं भी कई राजनेताओं व उद्योगपतियों के कहने से रोकी गई हैं. रायसेन जिले में प्रस्तावित मकोदिया डैम परियोजना के जरीए विदिशा व रायसेन के 90 गांवों की 62350 हेक्टेयर जमीन को सींचने की योजना बनाई गई थी, लेकिन उस पर अमल नहीं किया गया.
खादबीज से मुनाफाखोरी
सूबे में साल 2015 में राज्य सहकारी समितियों के जरीए बेचा गया उर्वरक बाजार मूल्य से महंगा था, जिस से करोड़ों रुपए का मुनाफा प्रदेश के किसानों से कमाया गया है. प्रदेश में अनुदान आधारित आदान स्प्रिंकलर पाइप सिंचाई पंप, टै्रक्टर व हार्वेस्टर वगैरह राज्य सरकार की संस्था एमपी एग्री के जरीए मुहैया किए जाते हैं, जिन का मूल्य बाजार से कई गुना ज्यादा है. सरकारी बीज निगम से दिया जाने वाला बीज भी बाजार से महंगा रहता है.
भ्रष्टाचार
प्रदेश में किसानों को शून्य फीसदी की दर से मिलने वाला किसान क्रेडिट कार्ड, उर्वरक व बीज वगैरह मुहैया कराने की जिम्मेदारी सहकारी समितियों को दी गई है. मगर पूरी तरह सत्ताधारी राजनेताओं के कब्जे वाली ये संस्थाएं किसानों के शोषण में जुटी हुई हैं.
बैंकिंग लेनदेन सहित अन्य सभी रिकार्ड्स को तकनीक आधारित कंप्यूटर व्यवस्था से दूर रखा गया है. आज भी इन संस्थाओं में करोड़ों रुपए का लेनदेन पेन व रजिस्टर के जरीए हुआ करता है और फेरबदल कर के किसानों की रकम को इधरउधर किया जाता है. प्रदेश के रीवा, मंदसौर, पन्ना, रायसेन, होशंगाबाद व सिहौर जिलों की सहकारी संस्थाओं में 50 करोड़ से ज्यादा के गबन व भ्रष्टाचार के मामलों की जांच सालों से रुकी पड़ी है. राज्य सरकार ने एक विधेयक के जरीए इन बेईमान सहकारी संस्थाओं को आरटीआई के दायरे से भी बाहर कर दिया है. ऐसा किए जाने से अब आम आदमी को इन संस्थाओं के काले चिट्ठे खंगालने का हक भी नहीं रहा है.
नई प्रधानमंत्री फसलबीमा योजना
नई प्रधानमंत्री फसलबीमा योजना पहले से सिर्फ इसलिए बेहतर है कि इस में किसानों से लिया जाने वाला बीमा प्रीमियम कम है. वहीं खेतों में बोआई के 1 पखवाड़े बाद से होने वाले नुकसान को बीमा नुकसान के तहत रखा गया है. लेकिन प्रस्तावित बीमा पालिसी में उन मसलों पर सुधार की भरपूर गुंजाइश है, जिन के कारण किसानों को फसलबीमा का वास्तविक लाभ नहीं मिल पाता है. पिछली बीमा पालिसी में बड़ी कमी यह थी कि खेतों में अनुमानित उत्पादन को बीमा रकम न मान कर किसानों को मिलने वाले किसान क्रेडिट कार्ड लोन को बीमा राशि माना गया था. इस रकम का 50 फीसदी हिस्सा रबी फसल की अधिकतम बीमा राशि हुआ करती है. लेकिन नई प्रधानमंत्री फसलबीमा योजना में इस निर्धारण में कहीं कोई तब्दीली दिखाई नहीं दे रही है.
आवश्यकता भूमि रकबे के आधार पर उत्पादन निर्धारण की होनी चाहिए. नई बीमा योजना की एक अन्य कमी आग से होने वाले नुकसान की है. कुदरती रूप से बिजली गिरने को प्रधानमंत्री फसल दुर्घटना बीमा योजना में शामिल किया गया है. लेकिन गरमी के दिनों में लगने वाली आग व खेतों से निकलने वाली बिजली लाइनों से होने वाले शार्ट सर्किट को नुकसान के तहत शामिल नहीं किया गया है. नई बीमा पालिसी में भी टेक्नोलाजी व डिजिटल आकलन की बात की गई है, लेकिन साधनों की कमी का खुलासा नहीं किया गया है. फसल के नुकसान के बाद बीमे की रकम न मिलने की हालत में किसान व बीमा कंपनी के बीच विवादों को निबटाने के लिए स्वतंत्र आयोग या न्यायायिक प्राधिकरण बनाने का प्रावधान भी प्रधानमंत्री फसलबीमा योजना में नहीं रखा गया है. ऐसे हालात में किसानों को जल्दी न्याय मिलने में दिक्कत होती है. इस मसले पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए.
प्रधानमंत्री फसलबीमा योजना को प्रधानमंत्री जीवनज्योति योजना से जोड़ कर किसानों की निजी दुर्घटना की भरपाई की बात दोहराई गई है. लेकिन अपने जीवन को दांव पर लगा कर खुले आसमान के नीचे हर हालात में काम करने वाले किसान जो कीटनाशकों सहित तमाम जहरीले रसायनों की वजह से अकसर टीबी, दमा व कैंसर जैसी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं, उन के इलाज की गारंटी इस बीमा योजना में नहीं रखी गई है. देश के प्रधानमंत्री ने नई बीमा योजना के तहत अकेले किसान के हुए नुकसान की भरपाई की बात कही है. लेकिन फसलबीमा ड्राफ्ट में फसलबीमा नुकसान को खेत इकाई के आधार पर दिए जाने की बात कहीं नहीं की गई है. पिछली योजना के मुताबिक बीमा कंपनी को फायदा पहुंचाने के मकसद से प्रदेश भर में खेती के कुल रकबे में 60 फीसदी गेहूं के लिए व 40 फीसदी हिस्सा अन्य फसलों के लिए माना जा रहा है.
यदि किसान 100 फीसदी हिस्से में गेहूं की बोआई करता है, तो उस के नुकसान की भरपाई बीमा कंपनियां 60 फीसदी गेहूं की फसल मान कर किया करती हैं. नई फसलबीमा योजना में इस तरह का कोई भी खुलासा नहीं किया गया है. आजकल देश के कई हिस्सों के साथ मध्य प्रदेश के 23 जिले सूखे की चपेट में हैं. आने वाले वक्त में इन जिलों में अन्न के साथसाथ पानी व चारे के लिए भी दिक्कत होने के आसार हैं. इस के लिए प्रदेश की सरकार प्रधानमंत्री से बात करने वाली है. इन हालात में प्रदेश की सरकार कृषि कर्मण अवार्ड का प्रदर्शन कर के खुद को किसानों की हितैषी बताने की कोशिश कर रही है. लेकिन हकीकत यह है कि कर्ज से दबे प्रदेश के किसान लगातार अपने खात्मे में लगे हैं. कोई फांसी के फंदे को चुन रहा है, तो कोई कीटनाशक पी कर खुद को खत्म कर रहा है. ऐसे में प्रदेश की सरकार को उत्पादन का ढोल पीटने के बजाय किसानों का दर्द समझना चाहिए. जब हालात बेहतर हो जाएं, तब वाहवाही लूटी जा सकती है.