उस पूरे इलाके में पीली कोठी के नाम से उन का घर जाना जाता था. रायसाहब अपने परिवार के साथ बाहर रहते थे. दिल्ली, लखनऊ, जयपुर, पटना वगैरह बड़ेबड़े शहरों में उन की बड़ीबड़ी कोठियां थीं. बाहरी लोग उन्हें ‘डीआईजी साहब’ के नाम से जानते थे.

वे गरमी की छुट्टियां हमेशा गांव में ही बिताते थे. अम्मां और बाबूजी की वजह से गांव में आना उन की मजबूरी थी.

पुलिस महकमे में डीआईजी के पद पर पहुंचतेपहुंचते नामचीन साहित्यकारों में रायसाहब की एक खास पहचान बन चुकी थी.

रायसाहब के गांव आने पर कोठी की रंगत ही बदल जाती. 10-20 लोगों का जमावड़ा हमेशा ही लगा रहता. उन दिनों नौकर रामभरोसे की बात ही कुछ और होती. वह सुबहशाम का अपना कामधाम जल्दीजल्दी निबटाता और लकधक हो कर रायसाहब की खुशामद में लग जाता.

कोठी के ठीक पीछे रामभरोसे का अपना एक छोटा सा घर था. उस की 2 बेटियां थीं, जिन में वह बड़ी बेटी की शादी कर चुका था और छोटी बेटी कल्लो ने पिछले साल 12वीं जमात पास की थी.

कोठी में झाड़ूपोंछा लगाना, खाना पकाना, दूधदही के काम सुखिया और कल्लो के जिम्मे थे, जबकि खेतीबारी जैसे बाहरी काम रामभरोसे के जिम्मे था. इस की एवज में उसे बचाखुचा खाना मिल जाता था.

रायसाहब साल में 2-4 हजार रुपए की माली मदद भी उसे दे देते थे. कुछ पुराने कपड़े दे जाते, जिन्हें सुखिया, कल्लो और रामभरोसे सालभर पहनते, जो उन के लिए हमेशा नए होते थे.

रायसाहब के बाबूजी और अम्मां को कभीकभी बड़ी जलन होती और वे कल्लो, सुखिया और रामभरोसे को उलटासीधा कहने लगते.

रायसाहब अकेले में बैठ कर अम्मांबाबूजी को समझाते, ‘‘मैं यहां रहता नहीं हूं और रह भी नहीं सकता. आप की देखभाल के लिए वही तो हैं. हारीबीमारी, हाटबाजार के पचासों काम होते हैं घर के. इतना भरोसेमंद और सस्ता नौकर कहां मिलेगा.’’

हर साल की तरह इस साल भी रायसाहब गरमी की छुट्टियां बिताने

गांव आए थे. अब की बार उन का बेटा कौशल और बेटी रचना भी साथ में थे. कौशल कहीं विदेश में पढ़ाई कर रहा था, जबकि रचना देशी यूनिवर्सिटी में ही पढ़ रही थी. उन की पत्नी तारिका देवी को इस उम्र में भी कोई 40 साल से ऊपर की नहीं कह सकता था.

जून का महीना था. तारिका देवी और रायसाहब दोनों बगीचे में बैठे बातचीत कर रहे थे. दोनों के बीच में एक मेज रखी थी. उन के हाथ एकदूसरे से दूर थे, लेकिन मेज के नीचे से दोनों के पैर आपस में अठखेलियां कर रहे थे. रचना और कौशल किसी बहस में मसरूफ थे.

रायसाहब की चाय का समय हो गया था. कल्लो ने धीरे से दरवाजा खोला. उस ने दहलीज पर पैर रखा ही था कि कौशल बोल उठा, ‘‘ओ हो, हाऊ आर यू कल्लो?’’

कल्लो ने मुड़ कर देखा और चुपचाप वहीं खड़ी हो गई.

कौशल रचना की ओर देख कर हंस दिया, फिर बोला, ‘‘डू यू अंडरस्टैंड, मेरा मतलब…’’

‘‘हां, समझ गई,’’ कल्लो ने बीच में ही बात काटते हुए कहा.

‘‘ह्वाट?’’

‘‘यही कि आप इंडियन हैं और मैं हिंदुस्तानी,’’ इतना कह कर कल्लो हंसते हुए रसोईघर की ओर चली गई.

इतना सादगी भरा और तीखा मजाक सुन कर रायसाहब के कान खड़े हो गए. इस ने बात करने का यह ढंग कहां से सीखा?

सुबह के 8 बजे कल्लो चाय लिए खड़ी थी.

रायसाहब ने चाय का कप हाथ में ले कर कल्लो को सामने सोफे पर बैठने का इशारा किया.

कल्लो अभी भी खड़ी थी. रायसाहब ने फिर कहा, ‘‘बैठ जाओ.’’

कल्लो बैठ गई. उन्होंने चाय पीते हुए कल्लो से पूछा, ‘‘तुम किस क्लास में पढ़ती हो?’’

‘‘अब नहीं पढ़ती.’’

‘‘क्यों?’’

कल्लो कोई जवाब न दे सकी और आंखें नीचे किए बैठी रही.

उन्होंने फिर पूछा, ‘‘क्या हाईस्कूल पास कर लिया?’’

‘‘जी सर…’’ कुछ रुक कर वह बोली, ‘‘मैं ने पिछले साल इंटर पास किया है,’’ इतना कह कर वह बिना इजाजत लिए ही कमरे से बाहर

निकल गई.

शाम को रायसाहब ने रामभरोसे को अपनी बैठक में बुलाया. दरवाजे के ठीक सामने रायसाहब तकिया लगाए शाही अंदाज में बैठे थे. सामने सोफे पर रचना और कौशल बैठे थे.

रायसाहब ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आप की लड़की बहुत चतुरचालाक है भरोसे भैया.’’

‘‘यह सब आप की मेहरबानी है साहब.’’

‘‘लड़की पढ़ने में बहुत तेज है. उसे और आगे पढ़ाना चाहिए था आप को.’’

‘‘साहब…’’

‘‘आगे सोच लो, लड़की होनहार है,’’ कहते हुए रायसाहब के चेहरे पर एक हलकी सी मुसकान आई और वे बोले, ‘‘कल्लो ही है न उस का नाम?’’

‘‘नहीं साहब, कागजों में उस का नाम कृष्ण कली है.’’

‘‘वाह, कितना अच्छा नाम है.’’

एक पल के लिए उन्हें शेक्सपीयर की कविता ‘ब्लैक रोज’ याद हो आई, फिर वे बोले, ‘‘इसे हमारे साथ भेज देना. मैं वहीं पर दाखिला दिलवा दूंगा.’’

रचना की ओर देखते हुए वे बोले, ‘‘क्यों रचना?’’

‘‘बहुत अच्छा रहेगा,’’ कौशल ने जवाब दिया, जैसे वह पहले से ही इसी इंतजार में बैठा हो.

‘‘अच्छी बात है साहब. उस की मां से पूछ लें, तब बताएंगे.’’

छप्पर के आगे रामभरोसे खटिया डाले बैठा था. उसी के आगे जमीन पर सुखिया बैठी थी. कल्लो छत पर थी.

रामभरोसे ने सुखिया से कहा, ‘‘साहब कह रहे थे कि कल्लो को उन के साथ भेज दो…’’

सुखिया ने बीच में ही बात काटते हुए कहा, ‘‘सयानी बेटी को हम किसी के साथ नहीं भेजेंगे.’’

‘‘साहब के बारे में ऐसा सोचना भी पाप है. वे हमें बहुत चाहते हैं,’’ रामभरोसे ने सुखिया को डांटते हुए कहा.

‘‘हम ने सब सुन लिया. बड़े आदमी की बातें बड़ी होती हैं. इन के चरित्र को हम खूब जानते हैं. बराबर का लड़का है घर में.’’

‘‘वह तो विदेश में पढ़ता है.’’

‘‘तो…’’

‘‘बराबर की लड़की भी तो है घर में… ऐसे कुछ नहीं होता,’’ रामभरोसे ने एक बार फिर झिड़कते हुए कहा.

सुखिया ने भी उसी तेवर में जवाब दिया, ‘‘क्या तुम नहीं जानते कि औरत और दौलत दुनिया में कोई नहीं छोड़ता?’’

‘‘सवेरे तुम ही साहब से मना कर देना. मैं तो नहीं कर सकता,’’ रामभरोसे ने खिसिया कर कहा.

सुबह रामभरोसे ने कल्लो को रायसाहब के साथ जाने के लिए कह दिया गया.

इधर कल्लो जाने की भी तैयारी करती जा रही थी, उधर उस के दिमाग में चल रहा था कि बड़े लोग हैं, इन के साथ कैसे निभेगी? बापू की हालत को देख कर वह मना भी नहीं कर सकती थी. जब वह गाड़ी में बैठने लगी, तो उस की आंखें छलक आईं.

रामभरोसे के हाथ रायसाहब के सामने जुड़ गए. उस ने भरे गले से कहा, ‘‘साहब…’’ वह इतना ही कह सका. सुखिया रामभरोसे के पीछे खड़ी सिसक रही थी.

रायसाहब ने रामभरोसे को अपने कंधे से लगा कर भरोसा दिलाया, कुछ रुपए उस के हाथ में दबा कर वे कार में बैठ गए.

कौशल ने एक नजर पीछे सीट पर बैठी कल्लो पर डाली और कार स्टार्ट कर आगे बढ़ा दी. कल्लो शीशे से अपने अम्मांबापू को देखते रही.

10-15 दिन सबकुछ ठीकठाक चलता रहा. इस दौरान कल्लो का दाखिला हो चुका था. उस की पढ़ाईलिखाई का पूरा इंतजाम कर दिया गया था. कौशल भी 2-4 दिन रुक कर विदेश जा चुका था.

तारिका देवी ने एक दिन झाड़ूपोंछा करने वाली का हिसाब कर दिया. कुछ दिनों बाद खाना बनाने वाली की भी छुट्टी कर दी.

कल्लो झाड़ूपोंछा करती और दोनों वक्त का खाना, नाश्ता वगैरह बनाती. उसे इस में कोई तकलीफ नहीं हुई. इतना सब करने के बाद भी वह पढ़ाई के लिए पूरा समय निकाल लेती थी.

एक दिन रायसाहब तारिका देवी से अचानक पूछ बैठे, ‘‘झाड़ूपोंछा वाली और महाराजिन क्यों नहीं आतीं?’’

‘‘मैं ने उन की छुट्टी कर दी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘काम ही क्या है. बच्चियों को भी तो सीखने दो. कल के दिन पराए घर जाएंगी, पता नहीं कौन कैसा मिलेगा. किसी को पत्नी के हाथ का खाना पसंद हो तब?’’ सवाल के लहजे में तारिका देवी ने जवाब दिया.

‘‘फिर भी…’’ रायसाहब आगे कुछ कह पाते, इस से पहले ही तारिका देवी तड़प उठीं, ‘‘फिर क्या, चार रोटियां सुबह, चार शाम को बनानी हैं…’’

रायसाहब कुछ कह न पाए, इसलिए तारिका देवी ने अपनी बात को सही ठहराने के लिए बात कहना जारी रखा, ‘‘अपनी याद करो. जब मैं इस घर में आई थी, तुम्हीं कहते थे कि जब तक तुम्हारे हाथ की बनाई रोटी नहीं खा लेता, तब तक पेट नहीं भरता.’’

रचना और कल्लो उन्हीं की ओर चली आ रही थीं. रायसाहब मुसकराए और अपने स्टडीरूम की ओर चले गए.

धीरेधीरे कल्लो का बैडरूम और बाथरूम सबकुछ अलग कर दिया गया. वह अच्छी तरह समझ रही थी कि उसे उस की हैसियत का एहसास कराया जा रहा है. उसे इस में उलझन तो हुई, लेकिन इस बात की तसल्ली थी कि रात को तो वह चैन से सो सकेगी.

कल्लो घर का सारा काम करती और खूब मन लगा कर पढ़ती. धीरेधीरे उस का काम और बढ़ गया. सब के कपड़े धोना और उन पर इस्तिरी करना उस के काम में और जुड़ गए थे.

रचना ने एक बार इस का विरोध करते हुए अपनी मां से कहा था, ‘‘मम्मी उसे घरेलू नौकर समझना आप की सब से बड़ी भूल होगी.’’

‘‘काम करना बुरा नहीं होता, काम की आदत डालना अच्छी बात है.’’

‘‘जब मैं उस के साथ काम करती हूं, तो आप मुझे क्यों रोकती हैं?’’

‘‘तू अपनी तुलना उस से करेगी?’’ इतना कह कर तारिका देवी वहां से चली गईं.

दिसंबर का महीना था. कौशल घर आया हुआ था. एक दिन कल्लो बाथरूम में नहा रही थी. बाथरूम का दरवाजा अंदर से बंद नहीं होता था. उस की सिटकनी टूट गई थी.

कौशल ने दरवाजे को धक्का दिया. कल्लो ने अंदर से दरवाजा लगाना चाहा, लेकिन तब तक कौशल ने उसे अपनी बांहों में जकड़ लिया था.

कल्लो ने पूरी ताकत से उसे बाहर धकेल कर एक जोरदार थप्पड़ उस के गाल पर जड़ दिया.

कौशल की मर्दानगी काफूर हो चुकी थी. वह गालियां बकता हुआ अपने कमरे की ओर चला गया.

तारिका देवी भी अपने बेटे का साथ देते हुए गालियां बकने लगीं, ‘‘गटर के कीड़े को वहीं पड़ा रहने देते. इस ने हमारे घर को भी गंदा कर दिया.’’

कल्लो को दौरा सा पड़ गया. वह अपने कमरे में टूटी शाख की तरह औंधे मुंह गिर पड़ी. सारा दिन वह कमरे से नहीं निकली थी.

रायसाहब आज सुबह से ही कहीं पार्टी में गए हुए थे. रात को तकरीबन 10-11 बजे लौट कर आए. कार खड़ी की और सीधा अपने बैडरूम की ओर बढ़ गए.

रायसाहब अभी कपड़े भी नहीं बदल पाए थे कि तारिका देवी और कौशल ने नमकमिर्च लगा कर सारी कहानी बयां कर दी.

रचना बैठी चुपचाप सुनती रही. उस के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था. जो कुछ हुआ, उस के लिए वह कल्लो को कुसूरवार मानने के लिए तैयार नहीं थी. उस के दिमाग में एक ही सवाल बारबार उठता था कि आखिर कौशल वहां गया ही क्यों था?

रायसाहब ने उन्हें समझाबुझा कर वापस भेज दिया.

कुछ देर बाद रायसाहब कल्लो के कमरे की ओर गए. कमरा खुला था. कल्लो अभी भी औंधे मुंह बिस्तर पर पड़ी थी. आहट सुन कर वह हड़बड़ा कर खड़ी हुई और कमरे का दरवाजा बंद करने लगी.

रायसाहब ने छड़ी से इशारा करते हुए उसे अपने साथ आने को कहा.

रायसाहब के बैडरूम की ओर जाते हुए कल्लो के पैर कांप रहे थे. कमरे में दूधिया रोशनी फैली हुई थी. रायसाहब बिस्तर पर बैठे हुए थे. कल्लो जा कर उन के सामने खड़ी हो गई.

रायसाहब ने अपनी बगल में उसे बैठा कर कहा, ‘‘क्या बात थी?’’

कल्लो चुपचाप बैठी रही. रायसाहब ने जैसे ही उस का सिर अपनी गोद में रखा, वह फफक पड़ी.

रायसाहब काफी देर तक सिर पर हाथ फेरते हुए उसे तसल्ली देते रहे. वह भी गोद में पड़ीपड़ी सिसकती रही.

धीरेधीरे रायसाहब के हाथों का दबाव उस के बदन पर बढ़ने लगा. यह देख कर अचानक कल्लो का सिसकना बंद हो गया. उस ने जैसे ही छूटने की कोशिश की, वैसे ही रायसाहब ने दबोच कर उस की छाती पर दांत गड़ा दिए.

कल्लो पूरा जोर लगा कर खड़ी हुई और उन्हें एक ओर धकेल दिया. अभी वह संभल भी न पाई थी कि रायसाहब उस पर कामुक सांड़ की तरह टूट पड़े. जब तक रायसाहब उसे पकड़ते, रैक पर रखी उन की पिस्तौल कल्लो के हाथ में थी.

शोर सुन कर तारिका देवी, रचना और कौशल सभी अपनेअपने कमरों से निकल कर आ गए थे. सभी अपनेअपने तरीके से उसे गालियां देने लगे.

कल्लो को ले कर भी रचना के दिमाग में वही सवाल उठा, जो कौशल को ले कर उठा था. इतनी रात को यह पापा के कमरे में क्यों आई?

रचना के माथे पर बल पड़ने लगे. उस के दिमाग के तार झनझना उठे. उस ने कल्लो को डांटते हुए कहा, ‘‘जवानी के नशे में यह तो देख लिया होता कि कौन किस उम्र का है. बदमिजाज कहीं की…’’

कल्लो चिल्ला पड़ी, ‘‘हां, मैं बदमिजाज हूं…’’ कह कर उस ने अपना कुरता फाड़ डाला और रचना का हाथ पकड़ कर अपनी छाती पर रखा और बोली, ‘‘देखो.’’

सब चुप रहे, तो कल्लो बिफर पड़ी, ‘‘अब तक मैं अच्छी तरह जान चुकी हूं कि आप लोगों की उदारता के पीछे धूर्तता और मक्कारी कूटकूट कर भरी होती है.’’

रचना ने गुस्से में आ कर रायसाहब की ओर सवालिया नजरों से देखा, फिर पलट कर कौशल और तारिका देवी की ओर देखा. सब की नजरें झुकी हुई थीं.

रचना ने कल्लो की बांह पकड़ी और मुख्य दरवाजे की ओर चल पड़ी. अभी उस ने दरवाजा खोला ही था कि रायसाहब लड़खड़ाते हुए कमरे से निकले और चिल्ला पड़े, ‘‘बेटी, कहां जा रही है इतनी रात को. गुंडेमवाली…’’

रचना गरज उठी, ‘‘खामोश जो दोबारा इस जबान से बेटी कहा. घटिया लोगों की कोई मां, बहन, बेटी नहीं होती. हो सकता है, गुंडेमवालियों में कोई प्यार करने वाला ही मिल जाए.’’

कल्लो ने पिस्तौल रायसाहब की ओर फेंक दी और वे दोनों बाहर निकल गईं.

रात के सन्नाटे में सिर्फ कुत्तों के भूंकने की आवाजें सुनाई दे रही थीं.

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