जनसंख्या के स्तर पर विश्व के दूसरे सब से बड़े देश भारत में उस की अपनी भाषाएं चमक खोती जा रही हैं. देश की राष्ट्रीय भाषा हिंदी ही नहीं, कुछ राज्यों की अपनी राजकीय भाषाएं भी फीकी पड़ती जा रही हैं. देश की इन मातृभाषाओं को पढ़ने, लिखने, बोलने व समझने वाले ही एक विदेशी भाषा अंगरेजी को बहुत अधिक महत्त्व दे रहे हैं. जबकि देश व विदेशों के भाषाविदों का कहना है कि मातृभाषा, जिस की जो भी हो, की शिक्षा बच्चे को सर्वप्रथम दी जाए तो उस का दिमाग दूसरी भाषा, राष्ट्रीय हो या कोई विदेशी, को सीखने का कौशल खुद ही विकसित कर लेता है. इसलिए शिक्षा के माध्यम यानी मीडियम औफ एजुकेशन की भाषा बच्चे की उस की अपनी मातृभाषा होनी ज्यादा फायदेमंद है. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने विश्वविद्यालयों के दीक्षांत समारोहों को संबोधित करते हुए अकसर यह चिंता व्यक्त की है कि दुनिया के 200 शीर्षस्थ विश्वविद्यालयों की सूची में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है. हमारे विश्वविद्यालयों के पिछड़ने के कई कारण हो सकते हैं लेकिन दुख यह है कि एक बुनियादी सत्य की ओर महामहिम का ध्यान नहीं गया या उन्होंने उस को ध्यान देने योग्य नहीं समझा. वह बुनियादी सत्य है ‘शिक्षा के माध्यम की भाषा’ यानी मीडियम औफ एजुकेशन की भाषा.

राष्ट्रपति की दृष्टि में जो 200 विश्वविद्यालय हैं वे ब्रिटेन, फ्रांस, कोरिया, जरमनी, जापान, चीन, रूस और अमेरिका के हैं. इन सभी देशों में शिक्षा का माध्यम वहां की अपनीअपनी मुख्य भाषाएं हैं. उन में से कोई भी देश किसी पराई (विदेशी) भाषा को अपने देश की शिक्षा का माध्यम नहीं बनाए हुए है. दुनिया के कई प्रयोगों के नतीजे यह साबित करते हैं कि बच्चा मातृभाषा में शिक्षा स्वाभाविक, असरकारी व आसानी से हासिल करता है. अनजानी या पराई भाषा के माध्यम से शिक्षा हासिल करने में विद्यार्थी को दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ती है – शिक्षा के माध्यम की भाषा पर अधिकार हासिल करना, जरूरी विषयों का ज्ञान हासिल करना. इस तरह से शिक्षा हासिल करना विद्यार्थी के लिए बहुत ही मुश्किल हो जाता है.

सवाई मानसिंह मैडिकल कालेज के सेवानिवृत्त प्राचार्य व मशहूर न्यूरोलौजिस्ट डा. अशोक पनगडि़या ने देश में बढ़ते जा रहे अंगरेजी माध्यम के स्कूलों और स्वदेशी भाषाओं के स्कूलों में पढ़ रहे विद्यार्थियों का तुलनात्मक अध्ययन कर चौंकाने वाले नतीजे पेश किए हैं. उन के अध्ययन के मुताबिक, मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा हासिल करने वाले विद्यार्थी ग्रहण करने की शक्ति ज्यादा होती है, पराई भाषा के माध्यम से शिक्षा हासिल करने वाले विद्यार्थियों की तुलना में उन में पहल करने का मनोबल भी ज्यादा होता है. इस के अतिरिक्त ऐसे विद्यार्थी बातचीत करने में तर्क भी खूब पेश करते हैं. डा. पनगडि़या कहते हैं कि मातृभाषा के स्थान पर किसी दूसरी भाषा के माध्यम से शिक्षा दिलाना बच्चों के मानसिक, भावनात्मक और नैतिक विकास को प्रभावित करता है. अपने शोध में डा. पनगडि़या ने भाषायिक मनोविज्ञान के विश्वप्रसिद्ध विद्वान नोम चोम्सकी के सिद्धांत का हवाला देते हुए दर्शाया है कि पीढि़यों से चली आ रही पारिवारिक भाषा के व्याकरण की मूल बातें व वाक्य बनाना बच्चे को खुद ही मालूम हो जाते हैं. इस वजह से बच्चा मातृभाषा में बताई गई बातें आसानी से ग्रहण कर लेता है.

मातृभाषा में शिक्षा पाने से बच्चों के मस्तिष्क में भाषा सीखने की स्किल यानी कुशलता जल्दी जागती और बढ़ती है. साथ ही, बच्चे जैसेजैसे बढ़ते जाते हैं, उन की महारत यानी दक्षता भी बढ़ती जाती है. इसी से उन में अंतर्दृष्टि और विचारों को विस्तार देने की काबिलीयत में भी इजाफा होता है. तंत्रिका विज्ञान यानी न्यूरोलौजी पर डा. पनगडि़या की शोध बताती है कि मातृभाषा भलीभांति सीख लेने के साथ बच्चा भाषा की बारीकियां, पहेलियां, मुहावरे, कहावतों का मर्म भी समझ जाता है. इस से वह भाषा पर अधिकार करने के साथसाथ साहित्य की समझ भी जल्दी विकसित कर लेता है. मातृभाषा के सुचारु ज्ञान के पहले 2 भाषाओं की शिक्षा एकसाथ देने की स्थिति ऐसी होती है जैसे बिना तैयारी के अनजानी नदी में किसी को 2 नावों की सवारी के लिए एकसाथ उतारा जा रहा हो. ऐसी हालत में बच्चा कोई भी भाषा कुशलतापूर्वक नहीं सीख पाता. डा. पनगडि़या स्पष्ट मत व्यक्त करते हैं कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ही होनी चाहिए, प्राथमिक स्तर पर अंगरेजी भाषा की शिक्षा बच्चों की शिक्षाप्राप्ति (सीखने) के कौशल में बाधक है.

भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय की राष्ट्रीय एकीकरण समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि स्वदेशी भाषाओं को शिक्षण का माध्यम बनाने से न केवल देश की अंदरूनी एकता मजबूत होगी, बल्कि शैक्षिक संवाद बेहतर तौर पर प्राथमिक स्तर से विश्वविद्यालय स्तर तक स्थापित हो सकेगा. अकसर कहा व सुना जाता है कि जनसामान्य में बौद्धिक व्यक्तियों की तादाद घट रही है. जनता में गंभीर चिंतन करने वाले व्यक्तियों की हो रही कमी निश्चित ही चिंता का विषय होना चाहिए. यह चिंतनीय हालत अचानक या 1-2 वर्षों में नहीं हुई है. यह दुष्परिणाम हुआ है शिक्षा जैसे अतिमहत्त्वपूर्ण विषय को चलाऊ ढंग से संचालित करने, स्वदेशी भाषाओं के शिक्षण को हलकेफुलके तौर से निबटाने तथा विदेशी भाषा अंगरेजी को बहुत ज्यादा महत्त्व देने के कारण.

भाषाएं दरअसल विचारों, विचारधाराओं, कल्पनाओं और व्यापक दर्शन को साफतौर से व्यक्त करने का माध्यम होती हैं. हमारा देश, विशेषकर युवावर्ग, भाषाई पंगुता का शिकार हो गया है और हुआ जा रहा है. नई पीढ़ी खुद को न तो अच्छी तरह अंगरेजी में और न ही खुद की मातृभाषा में भलीभांति व्यक्त कर पाती है. यह केवल युवाओं की निजी हानि नहीं, बल्कि राष्ट्र की हानि है. जबान होते हुए भी देश बेजबान हुआ जा रहा है, बनाया जा रहा है. ऐसे में क्या यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि सरकार भाषा शिक्षा नीति में सुधार करे, ताकि बच्चों की नियति ‘न घर के न घाट के’ होने से बच सके. बच्चा एक बार जब अपनी मातृभाषा सीख लेता है जिसे वह बचपन में ही हासिल कर लेता है बिना पुस्तकों के, तब वह दूसरे विचारों, भाषाओं को जल्दी जाननेसमझने में समर्थ हो जाता है. इतना ही नहीं, वह तब तर्कशक्ति का इस्तेमाल कर प्रश्नप्रतिप्रश्न और उत्तरों को अच्छी तरह से खोजने में भी दक्ष हो जाता है.

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