हवाई यात्राओं में अकसर हवाई जहाजों का घंटों देर से उड़ान भरना या हवाईर्जहाज में तकनीकी खराबी आने के कारण फ्लाइट कैंसिल होना आम बात है. मौसम या प्राकृतिक कारणों से फ्लाइट कैंसिल होना तो समझा जा सकता है पर एयरपोर्टों पर घंटों बेकार घूमना जेल के समान ही है. मजेदार बात यह है कि एयरलाइंस, जो यात्रियों की कठिनाइयों के बारे में अब बिलकुल निष्ठुर हो गई हैं, और थोड़ी देर से आने या थोड़ा सामान ज्यादा होने पर पिघलती नहीं, अपनी गलती के लिए ‘वी रिगरेट टू अनाउंस…’ के अलावा कुछ नहीं कहतीं. इन पर नकेल कसने के लिए सरकार अब एयरलाइंस पर फाइन लगाने की भी सोच रही है और इंतजार कर रहे यात्रियों को खाने, रहने, घर लौटने आदि के पैसे दिलवाने की सोच रही है. यात्रियों को अचानक फ्लाइट कैंसिल होने पर जो कठिनाई होती है, उस का अंदाजा लगाना आसान नहीं है. अब चूंकि एयरलाइनों को यात्रियों को नो फ्लाइ लिस्ट में डालने तक का प्रावधान बन गया है जिस से वे किसी भी एयरलाइन के जहाज में यात्रा नहीं कर पाएंगे, फाइन या मुआवजा देने का नियम सही लगता है.
कठिनाई यह है कि आज सेवा देने वाले एकतरफा नियमों, कैसे भी नियम हों, की आड़ में बच निकलते हैं. ग्राहकों में कुछ ही ऐसे होते हैं जो अदालतों में जा पाते हैं और सेवा देने वाले की नाक में दम कर देते हैं. एयरलाइंस पर नकेल कसी जानी चाहिए क्योंकि अब वे जरा सा ज्यादा वजन, बीच की या किनारे की सीट, लैगरूम वाली सीट आदि के लिए भी पैसे चार्ज करने लगी हैं. वे हर दी जाने वाली विशेष सुविधा को कमाई का साधन बनाने लगी हैं. सो, असुविधा के लिए उन्हें हर्जाना भी यात्रियों को देना चाहिए.
पर होगा क्या, सारी कंपनियां एकजुट हो जाएंगी और सरकार को मजबूर कर देंगी कि वह ऐसा कोई कदम न उठाए कि पहले से लड़खड़ाती चल रही हवाई कंपनियों को नुकसान होने लगे. जब इन कंपनियों को हजारों यात्रियों को लानालेजाना होता है तो वे निष्ठुर हो जाती हैं. अमेरिका, जहां ग्राहक को राजा माना जाता था, में सीट पर बैठे यात्री को जबरन मारतेपीटते उतारने के कई मामले बहुप्रचारित हुए पर फिर भी एयरवेज कंपनियों का रवैया वैसे का वैसा ही है. एयरलाइंस कंपनियां जानती हैं कि उन के बिना न जनता रह सकती है, न सरकार. आज कंपनियां राजा बन गई हैं. वे नीतियों को बदल सकती हैं, वे तो शासकों को बदलने की ताकत भी रखती हैं. जनता चाहे वोटर के रूप में हो या ग्राहक के रूप में, खुद के बनाए शासक या धन्नासेठ की गुलाम बनने को मजबूर है.
एयरलाइंस पर बनने वाले नए नियम तब ही कारगर हो सकते हैं जब वे सब पर लागू हों. रेलों, बसों, बिजली कंपनियों, मोबाइल कंपनियों, बैंकों किसी को भी न छोड़ें, और यह तो संभव ही नहीं है. ऐसे में क्या होगा, नतीजा आप निकालें.