छात्र नेता व अवर्ण कन्हैया कुमार के मामले में सख्ती और वकील व भारतीय जनता पार्टी के विधायक ओम प्रकाश शर्मा व भाजपा समर्थक विक्रम सिंह चौहान के मामले में नरमी दिखा कर पुलिस ही नहीं अदालतों ने भी साबित कर दिया है कि यह देश अभी भी पौराणिक सोच पर चल रहा है जिस में एक व्यक्ति की स्वतंत्रताओं के मौलिक अधिकार उस के जन्म पर आधारित होते हैं. दिखावे के लिए पुलिस व अदालतें कभीकभार संपन्न ऊंची जातियों के लोगों पर कार्यवाही भले कर लें पर असल में जब मामला सवर्ण बनाम अन्य का आता है तो स्वाभाविक रुख रामायण के श्लोकों से ही निकलता है, संविधान की प्रस्तावना से नहीं.

कन्हैया कुमार ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अपने भाषणों में जो कहा था वह वही था जो रोहित वेमुला की तरह की देश की 80-90 प्रतिशत जनता महसूस कर रही है और इस जनता की मांग चाहे व्यावहारिक हो या न हो, चाहे आज की स्थिति में देश उसे पूरी करने की हैसियत में न हो, उसे दबाने का हक किसी को नहीं है.

पिछले दशकों में वोट की राजनीति के चलते इस वर्ग को अपनी कहने का हक मिल रहा है और यह मुखर हो रहा है. पर कांगे्रस हो या भारतीय जनता पार्टी, सभी कभी फुसलाबहला कर तो कभी धमका कर उस का मुंह बंद कराती रही हैं. भारतीय जनता पार्टी अहंकार से कुछ ज्यादा ही पीडि़त है क्योंकि उस का ज्ञान का स्रोत संविधान नहीं, पुराण, स्मृतियां और उन के पढ़ कर अपने अनुसार सुनाने वाले वे हजारों भगवाधारी हैं जो मुफ्त का माल खाते हैं. भाजपा इस मामले को ढंग से हल करने में बिलकुल फिसड्डी साबित हुई है.

भाजपा की सोच सोशल मीडिया में आरक्षण के खिलाफ चल रहे संदेशों से दिख रही है. भाजपा व उस के समर्थक यथास्थिति बनाए ही नहीं रखना चाहते हैं. लोकसभा चुनाव में मिले वोटों के चलते अहंकार में डूबे भाजपाई व्यवस्था को पौराणिक राजपाट में परिवर्तित किए जाने की मांग करते नजर आ रहे हैं. इस चक्कर में वे कितने ही बंद डब्बे और खोल डालेंगे जिन में सदियों की गंद भरी है, इस बारे में अभी कहा नहीं जा सकता.

भारतीय जनता पार्टी पेशवाई युग को लौटाने की कोशिश कर रही है. वह भूल रही है कि केवल चने और गुड़ खा कर लड़ने वाले मराठे सैनिक अब बहुतकुछ और चाह रहे हैं. जाट, पटेल, कापू, मराठा विद्रोह अभी शुरुआती दौर में है पर हैं ये उसी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के संघर्ष के हिस्से जो अब देशभर में फैल रहा है.

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