देश के विभाजन के समय मची तबाही पाकिस्तान और हिंदुस्तान के लोगों की आत्मा को बरसोंबरस कंपाती रही. इतिहास के इस स्याह दौर के कहानीकारों को इंसानी जज्बे से जुड़ी कहानियां लिखने के लिए सच्ची घटनाएं मिल गई थीं. यह ऐसी सच्चाई थी कि जिन की कहानियों का कभी अंत नहीं हो सका.

इन कहानियों पर तमाम फिल्में बनीं, बड़ेबड़े पुरस्कार बटोरने वाले उपन्यास लिखे गए. इतना ही नहीं, गाहेबगाहे सत्यकथाओं के रूप में पत्रपत्रिकाओं ने भी कहानियां छाप कर अपने पाठकों के दिलों पर राज करती रहीं.

इस सच्चाई को कभी झुठलाया नहीं जा सकता कि ये सच्ची कहानियां हमेशा लोगों की पहली पसंद रहीं. हर किसी के मन को इन कहानियों ने भीतर तक बांधा.

पंजाब का एक कस्बा है खमाणो. इसी के पास बसा है एक छोटा सा गांव बरवाली खुर्द. इसी गांव में कभी रहते थे सरदार उग्र सिंह, जो अपने समय के संपन्न जमींदार थे. अमीर भी थे और साहसी भी. उन का अच्छाखासा दबदबा था फिर भी वह निहायत ही नेकदिल इंसान थे. मजबूत इरादे वाले अपने वचन के पक्के. अगर किसी की मदद के लिए कह दिया तो कितनी भी और कैसी भी परेशानी आ जाए, जुबान से निकले वादे को पूरा कर के ही दम लेते थे.

देश के बंटवारे से पहले हिंदूमुसलिम में ज्यादा फर्क नहीं था. गांवोंकस्बों में एक घर हिंदू का था तो उस के बगल वाले घर में मुसलिम परिवार रहता था. दोनों ही घरों में रहने वालों के मन में किसी तरह के भेदभाव की भावना नहीं होती थी. कहीं किसी तरह की कोई परेशानी नहीं होती थी. एक परिवार की तरह सभी रहते थे.

उग्र सिंह ने कभी किसी मुसलमान को हिकारत की नजरों से नहीं देखा था. गांव के सभी मुसलमान उन के लिए अपने परिवार की तरह थे. अन्य लोगों की तरह वह उन के भी काम के लिए खड़े रहते थे. क्योंकि सभी हमेशा से एक साथ रहते आ रहे थे.

लेकिन जब पाकिस्तान की घोषणा हुई तो मुसलमानों को इधर से खदेड़ा जाने लगा. इस के बाद मुसलमान और हिंदू एकदूसरे के दुश्मन बन कर एकदूसरे के खून के प्यासे हो गए. हिंदुस्तान के जिस हिस्से को काट कर पाकिस्तान बनाया गया था, वहां रहने वाले हिंदुओं का सहीसलामत इस तरफ आना आसान नहीं था. ठीक यही हाल हिंदुस्तान के रहने वाले मुसलमानों का भी था. इन के लिए भी मौत के अजगर मुंह बाए खड़े थे. जहां देखो वहीं मारकाट हो रही थी. इंसानियत जैसे पूरी तरह मर चुकी थी. चारों तरफ पशुता ही नजर आ रही थी.

एक ओर मुसलमान हिंदू के खून का प्यासा था तो दूसरी तरफ हिंदू भी मुसलमान के सामने पड़ते ही उसे काट डालने को आमादा था. बहूबेटी की इज्जत की भी किसी को परवाह नहीं थी.

इन हालातों में भी उग्र सिंह ने अपने यहां के मुसलमानों की रक्षा करने की ठान ली थी. उन्हें न केवल सुरक्षित पाकिस्तान पहुंचाने की व्यवस्था की, बल्कि जो मुसलमान पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे, उन की भावना को ध्यान में रख कर उन की सुरक्षा की व्यवस्था की.

प्रशासन काफी सख्त था. यहां रहने वाले मुसलमानों की सूची तैयार कर के उन्हें जबरदस्ती पाकिस्तान भेजा जा रहा था.

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उग्र सिंह ने कुछ दिनों तक सब को इधरउधर छिपाए रखा, पर पुलिस प्रशासन से कब तक बैर लेते. सगे भाइयों जैसे मुसलमान दोस्त और पड़ोसी एकएक कर के गांव को छोड़ कर जाने लगे. लेकिन वे किसी भी तरह अपने इस गांव से और यहां के रहने वाले यारों से अपना संबंध खत्म नहीं करना चाहते थे. वे चाहते थे कि किसी भी तरह इस गांव से उन का संबंध बना रहे.

इस के लिए सब ने आपस में सलाह कर के तय किया कि क्यों न वे चोरीछिपे अपनी कुछ लड़कियों का निकाह गांव के लड़कों से करवा दें. निकाह के बाद वे लड़कियां धर्म बदल कर सिख बन जाएंगी. यह बात कभी किसी पर जाहिर नहीं होने दी जाएगी.

ऐसा इसलिए सोचा गया था कि पुलिस और प्रशासन इस बात पर कभी आपत्ति न करे. बात सभी को जंच गई. इस तरह कुल 8 लड़कियों का निकाह गांव के 8 सिक्ख लड़कों से पढ़वा दिया गया. यह सब बहुत ही चोरीछिपे किया गया था. कुछ ही लोगों को इस बात की जानकारी हो सकी थी. उग्र सिंह की भी उस समय तक शादी नहीं हुई थी. जबकि यह शादी लायक हो चुके थे. उन्हीं 8 लड़कियों में से एक सकूरा बीबी थीं. सकूरा ने जब से होश संभाला था, वह उग्र सिंह को ही आदर्श व्यक्ति के रूप में देखती आ रही थी. जवान होने पर उग्र का मोहक रूप उस की आंखों के दिल में उतर गया था. यही नहीं, वह हर रात उस के सपनों में भी आने लगा था. सकूरा यही दुआ करती थी कि कोई ऐसा चमत्कार हो कि उस का निकाह उग्र सिंह से हो जाए.

और सचमुच यह चमत्कार होने जा रहा था. गांव की 8 मुसलिम लड़कियों का जब 8 जाट सिख लड़कों से निकाह कराया जाने लगा तो उन में से उग्र सिंह सकूरा के हिस्से आया था. और वैसे सकूरा बीबी भी किसी से कम नहीं थी. उग्र सिंह के साथ उस की जोड़ी इस कदर जंची कि देखते ही हर कोई उठउठ कर बलाएं लेने लगा.

निकाह के बाद सकूरा का नाम रख दिया गया था दलीप कौर. निकाह के बाद आठों मुसलिम लड़कियों के परिवार के लोग अपनी इन बेटियों को सुरक्षित छोड़ कर अपने नए देश पाकिस्तान चले गए थे. यह उग्र सिंह के अपने दबदबे का नतीजा था कि किसी को भनक तक नहीं लगी. गांव वालों ने इस मामले में ऐसी जुबान बंद रखी कि शादियों वाली बात पुलिस और प्रशासन तक पहुंच नहीं सकी.

समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा. सकूरा को तो जैसे मनचाही मुराद मिल गई थी. उग्र सिंह भी उसे पाकर खुद को कम खुशनसीब नहीं समझ रहा था. अकसर वह यही सोचा करते थे कि शायद उन के अछे कामों का फल था कि ऐसी समझदार मेहनती और हर लिहाज से समर्पण की भावना रखने वाली बीवी उन्हें मिली है.

सकूरा ने अपनी तरफ से भी कोई शिकायत का मौका उन्हें नहीं दिया था. पति के अलावा घर के अन्य कामों का भी वह पूरी निष्ठा से ध्यान रखती थी.

गांव में एक साथ रहने की वजह से सिखों, हिंदुओं और मुसलमानों के रहनसहन में कोई ज्यादा फर्क नहीं था. हां, धर्मकर्म और पूजापाठ को ले कर सकूरा ने उग्र सिंह के यहां आ कर अगर कोई परिवर्तन महसूस भी किया था तो उस ने खुद को उसी रूप में ढाल लिया था. शादी के सालभर बाद सकूरा ने एक प्यारी सी बच्ची को जन्म दिया, जिस का नाम रखा गया मुख्तयार कौर.

बेटी को पा कर उग्र सिंह जैसे निहाल हो गया था. अब उन की यही इच्छा थी कि खानदान का नाम बढ़ाने के लिए एक बेटा और पैदा हो जाए, पर सकूरा फिर मां नहीं बन सकी. मुख्त्यार के पैदा होने के बाद उस में न जाने क्या कमी हो गई कि उसे गर्भवती होने में दिक्कत आने लगी. काफी इलाज के बाद सकूरा एक बार फिर से गर्भवती हुई. यह सन 1952 की बात है. तब तक मुख्तयार कौर पूरे 4 साल की हो चुकी थी.

उसी बीच गांव में एक दुखदाई घटना घट गई. पुलिस के किसी मुखबिर को गांव की उन 8 मुसलिम लड़कियों के बारे में पता चल गया था, जो पाकिस्तान जाने के बजाय जाट परिवारों की बहुएं बन कर बरवाली खुर्द में ही रह रही थीं. इसे गैरकानूनी मानते हुए पुलिस ने छापा मार कर उन्हें पाकिस्तान भेजने की अपनी काररवाई शुरू कर दी.

पुलिस ने मुखबिर की खबर पर एकएक कर के 8 में से 7 लड़कियों को तो पाकिस्तान भिजवा दिया, लेकिन आठवीं दलीप कौर उर्फ सकूरा बीबी के यहां उस के पति उग्र सिंह के दबदबे और उस की प्रतिष्ठा की वजह से पुलिस कोई काररवाई नहीं कर पाई.

लेकिन पुलिसप्रशासन ने उसे यह चेतावनी जरूर दे दी थी कि जितनी जल्दी हो सके, वह सकूरा को पाकिस्तान भिजवा दे.

लेकिन उग्र सिंह ने किसी की कोई परवाह नहीं की. पुलिस प्रशासन से आखिर वह कब तक टक्कर लेते. दरअसल, उस पुलिस अधिकारी का तबादला हो गया था, जो उग्र सिंह के सामाजिक कार्यों की वजह से उन की इज्जत करता था. उस की जगह जो नया अफसर आया, उस की सख्ती के आगे उग्र सिंह की एक नहीं चली और वह पुलिस अधिकारी अदालती आदेश ले कर भारी फोर्स के साथ गांव आया था और सकूरा बीबी उर्फ दलीप कौर को पाकिस्तान पहुंचाने की खातिर अपनी हिफाजत में ले लिया.

सकूरा के गर्भ के दिन पूरे हो चुके थे. वह किसी भी समय बच्चा जन सकती थी. इस बात की कोई परवाह नहीं की गई. बस इतना लिहाज जरूर किया गया कि उसे सीधे सीमा पार पहुंचाने के बजाय जालंधर के शरणार्थी कैंप वालों के हवाले कर दिया गया.

15 मार्च, 1953 को इस शरणार्थी कैंप में सकूरा ने एक स्वस्थ व सुंदर बेटे को जन्म दिया. लेकिन इस की सूचना उग्र सिंह को नहीं दी गई. वह वहां जा भी नहीं सकते थे. एक कड़वी सच्चाई यह भी थी कि उग्र सिंह को यह भी पता नहीं था कि सकूरा को शरणार्थी कैंप में रखा गया है. उन्हें तो यही बताया गया था कि एक विशेष वाहन द्वारा सकूरा को सुरक्षित पाकिस्तान उस के अब्बूअम्मी के पास पहुंचा दिया गया है.

बच्चे के जन्म के बाद सकूरा यह खुशखबरी उग्र सिंह तक पहुंचाने के लिए तड़प रही थी. लेकिन उस की इस छटपटाहट पर किसी को कोई तरस नहीं आया. बच्चा नार्मल डिलीवरी से हुआ था. कुछ दिनों तक शरणार्थी कैंप में रख कर थोड़ीबहुत देखभाल के बाद उसे बच्चे सहित पाकिस्तान पहुंचा दिया गया.

उन दिनों जिस तरह के हालात थे, जैसा तनावभरा माहौल था, दोनों मुल्कों के बीच पाकिस्तान पहुंच कर भी सकूरा उग्र सिंह से संपर्क नहीं कर सकी थी. तब खतोकिताबत तक पर पाबंदी थी.

सकूरा को नियति का ऐसा खेल नजर आ रहा था कि उसे उस के इशारों पर ही चलना था. नियति के उस खेल से आखिर उसे समझौता करना ही पड़ा. इसी के साथ सकूरा ने यह भी तय कर लिया था कि वह अपने किसी रिश्तेदार पर बोझ न बन कर खुद संघर्ष करेगी.

सकूरा अपने परिवार वालों के बीच पहुंच गई थी. सब ने उस की यथाशक्ति मदद करने की कोशिश भी की. हालांकि वे सब फिलहाल खुद ही रिफ्यूजियों की तरह जिंदगी बसर कर रहे थे. कुछ वक्त इन सब की छत्रछाया में गुजार कर सकूरा ने अपना जीवन संघर्ष शुरू कर दिया. इस बीच बच्चे को नाम दिया गया— राणा यासीन अहमद खान.

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यासीन काफी होशियार निकला. अपनी उम्र के बच्चों के मुकाबले वह हर काम में हमेशा आगे रहता. थोड़ा बड़ा होने पर सकूरा ने हिंदुस्तान के उस के घरपरिवार के बारे में बता कर कहा था, ‘‘बेटे, चाहे कितने भी बरस लग जाएं, तुम्हारा कितना भी पैसा क्यों न खर्च हो जाए, तुम्हें एक दिन हिंदुस्तान जा कर अपने घर में सजदा जरूर करना है.’’

इस बीच काफी मेहनत मशक्कत कर के यासीन ने गुजरांवाला में खुद को स्थापित कर लिया था. कहते हैं कि आदमी अपने सही कर्म में लगा रहे तो वक्त बीतते देर नहीं लगती. सकूरा के साथ भी ऐसा ही था. कई तरह के काम करते हुए सकूरा कुछ इस तरह से व्यस्त हो गई थी कि समय कैसे बीत गया, उसे पता ही नहीं चला.

यह बात अलग थी कि अपनी तमाम व्यस्तता के बावजूद वह अपने पति की यादों को मन से कभी नहीं निकाल पाई.

राणा यासीन अहमद खान पढ़लिख कर अपने कारोबार से लग गया था. फिर भी अपनी मां की नसीहत के अनुरूप वह इस बात को कभी नहीं भूला कि उसे एक दिन हिंदुस्तान जा कर अपने उस गांव का सजदा करना है. जहां न केवल उस की मां का बचपन बीता था, उस की डोली भी उठी थी और वहीं रहते मां ने जिंदगी को खुशियों से भर लेने का सपना भी देखा था. पर एक दिन उसे उस की हर खुशी से मरहूम कर के वहां से निकाल दिया गया था.

सन 2003 में राणा यासीन अहमद खान अपनी मां की इच्छा पूरी करने के लिए हिंदुस्तान आए. उन का सोचना था कि एक बार अपने बिछड़े बाप को तलाश कर वह मां को साथ ले कर फिर वहां आएंगे या फिर पिता को अपने साथ ले जाएंगे. अपने देश पाकिस्तान अपनी मां के पास.

आखिर यासीन अपने गांव बरवाली खुर्द पहुंच गए. पर लोगों से पता चला कि उग्र सिंह नाम का कोई भी आदमी वहां नहीं रहता. 2 दिनों तक वहां रह कर यासीन ने अपनी मर्मस्पर्शी कहानी तमाम लोगों को सुनाई. जल्दी यह दास्तान पूरे इलाके में चर्चा का विषय बन गई.

तब गांव के एक बुजुर्ग परगट सिंह ने बताया, ‘‘हां भई हां, उग्र सिंह इस गांव में रहते थे. गांव में वह बडे़ जिगरेवाले आदमी थे. न कभी अंग्रेजों से डरे और न ही बाद में अपनी पुलिस से. मगर पुलिस और अपनी सरकार से भला कब तक टक्कर लेते. उग्र ने कानून के खिलाफ मुसलमान औरत से शादी कर के उसे अपने घर में छिपा रखा था.

‘‘आखिर पुलिस ने उसे उग्र से छीन कर पाकिस्तान भेज दिया था. उस से उग्र को एक बेटी हुई थी, जो यहीं रह गई थी. तब उग्र जवान ही थे. अमीर तो वह थे ही, सब ने जोर दिया कि अच्छी लड़की देख कर दूसरा ब्याह कर लो, लेकिन उन्होंने दूसरी शादी नहीं की. सकूरा की याद में वह भीतर ही भीतर खत्म होते गए. सब कुछ अपनी लड़की के नाम कर एक दिन वह इस दुनिया से कूच कर गए.’’

बुजुर्ग से यासीन को इस बात की जानकारी मिली कि उस की बहन मुखत्यार कौर खन्ना के गांव भरी में ब्याही है. यासीन बहन से मिलने उस गांव में गए, लेकिन मुख्त्यार ने उस की किसी बात पर विश्वास नहीं किया.

मायूस हो कर यासीन पाकिस्तान लौट गए. कुछ अरसा बाद सकूरा बीबी अल्लाह को प्यारी हो गई.

यासीन के पाकिस्तान लौट जाने के कुछ दिनों बाद बरवाली खुर्द आ कर मुख्त्यार कौर ने इस बारे में पता किया तो आखिर उसे पता चल गया कि उस के यहां आने वाला उस का अपना सगा भाई ही था.

पहले यासीन अपने बिछड़े परिवार और अपनी बहन की तलाश में यहां आया था, अब मुख्त्यार कौर उस से मिलने, उस का पता जानने को बेकरार हो उठी थी. आखिर उसे भाई का गुजरांवाला का पता मिल गया. उस ने उसे एक लंबा पत्र लिखा, जिस के जवाब में यासीन की ओर से एक मार्मिक खत आया. इस के बाद दोनों खतोकिताबत के जरिए एकदूसरे के  संपर्क में बने रहे.

आखिर एक दिन 20 दिनों के वीजा पर यासीन हिंदुस्तान आ पहुंचा. इस बार बरवाली खुर्द में बहन ने उस का जोरदार स्वागत  किया. इस बार यासीन को यहां खूब प्यार और सम्मान मिला. वीजा की अवधि समाप्त होने पर यासीन इन तमाम मीठीमीठी यादों को अपने भीतर संजोए पाकिस्तान चला गया.

इस बात को बरसोबरस गुजर गए हैं. फिर कभी यासीन का न इधर आना हुआ, न मुख्त्यार ही कभी पाकिस्तान जा पाई. दोनों के बीच खतोकिताबत भी अब नहीं रही, यदाकदा फोन पर जरूर बात हो जाया करती है. दोनों अब काफी बूढे़ भी हो गए हैं.

– कथा सत्य घटना पर आधारित. कथा पात्रों एवं स्थानों के नाम वास्तविक हैं.

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