मानवीय संबंधों के चितेरे के तौर पर अपनी एक अलग पहचान रखने वाले फिल्मकार ओनीर अब तक ‘‘माय ब्रदर निखिल’’, ‘‘बस एक पल’’, ‘‘सौरी भाई’’, ‘‘आई एम’’ और ‘‘शब’’ जैसी फिल्में दे चुके हैं. वह हर फिल्म से शोहरत बटोरते रहे हैं. मगर उनकी पिछली फिल्म ‘‘शब’’ ने बौक्स आफिस पर काफी निराश किया. अब वह ‘सारेगामा’ और ‘यूडली फिल्मस’ के साथ रोमांटिक फिल्म ‘‘कुछ भीगे अल्फाज’’ लेकर आ रहे हैं, जो कि 16 फरवरी को सिनेमाघरों में आएगी.
आपकी पिछली फिल्म ‘‘शब’’ को बौक्स औफिस पर आपेक्षित सफलता नहीं मिली?
समय बदल चुका है. अब फिल्म बनाना और उसे प्रदर्शित करना, दोनों बहुत अलग चीजें हो गयी हैं. एक फिल्म का सही समय पर सही थिएटरों पर आना जरूरी होता है. फिल्म के प्रचार और मार्केटिंग पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है. इंडीपेडेंट फिल्म को सिनेमाघर आसानी से नहीं मिलते हैं. यानी कि फिल्म को सिनेमाघर तक ले जाने में कई समस्याएं आती हैं. उपर से यदि फिल्म का विषय बहुत अलग हो, तो उसका ठीक से प्रचार होना जरूरी हो जाता है. पर हर मसले पर एक निर्माता के तौर पर हम ध्यान नहीं दे सकते हैं. एक फिल्मकार के तौर पर मेरी कोशिश होती है कि मैं अपनी फिल्म को ईमानदारी के साथ बना दूं. उसके बाद मेरे हाथ में नहीं रहता. इसलिए ‘शब’ की असफलता की वजह पूरी तरह से नहीं बता सकता. पर ‘शब’ को सेंसर बोर्ड से ‘ए’ प्रमाणपत्र मिलना भी उसके हक में नहीं गया. फिल्म में ऐसा कुछ था नहीं. मैं अपनी फिल्म में किसी भी विषय पर बात करूं, पर उसमें ऐसा कुछ नहीं रखता, जो लोगों को शौकिंग लगे. हर फिल्म के बाद हम विश्लेषण करते हैं. उसके बाद योजना बनाते हैं कि नयी फिल्म में वह गलतियां ना हो.
‘‘शब’’ से आपने जो सीख ली, उसका क्या उपयोग हुआ?
‘शब’ के समय जो मैंने सीख ली, उसी का परिणाम है कि मैं अपने करियर में पहली बार किसी स्टूडियो यानी कि ‘सारेगामा’ और ‘यूडली फिल्मस’ के साथ फिल्म ‘कुछ भीगे अल्फ़ाज’ का निर्माण किया है. इस फिल्म का मैं निर्देशक हूं. रचनात्मक पक्ष मैंने संभाला है. यह पूरी तरह से स्टूडियो कल्चर से बनी है. इस फिल्म को बनाने की मेरी यात्रा काफी सुखद रही. क्योंकि ‘सारेगामा’ और ‘यूडली’ से मुझे रचनात्मक स्वतंत्रता मिली. इस बार यह लोग फिल्म को बहुत अच्छे ढंग से प्रमोट भी कर रहे हैं. यह पहली बार हुआ है, जब हम अपनी फिल्म को प्रमोट करने के लिए मुंबई के बाहर कई दूसरे शहरों में भी गए. वैसे भी मैं अड़ियल किस्म का नही हूं. मैं दूसरों की राय को भी तव्वजो देता हूं. मुझे अहसास हो रहा है कि पहली बार मुझे किसी का सहयोग मिल रहा है.
लेकिन जब आप स्टूडियो के साथ फिल्म बनाते हैं, तो कुछ निर्णय दूसरे लेने लगते हैं?
स्टूडियो के साथ मेरा जो अग्रीमेंट हुआ, उसमें साफ लिखा था कि सारे रचनात्मक निर्णय मेरे अपने होंगे. एडिट होने तक निर्माता ने फिल्म को देखा नहीं. अग्रीमेंट के अनुसार फिल्म के प्रदर्शन व प्रमोशन में मेरा कोई निर्णय नही होना था, फिर भी यह लोग मेरी राय लेते हैं. सच कह रहा हूं मुझे इस फिल्म को बनाने में कोई तकलीफ नही हुई, बल्कि मुझे काफी इज्जत मिली है.
फिल्म की कहानी की प्रेरणा आपको कहां से मिली?
यह मेरी अपनी कहानी नही हैं. मैं एक स्क्रिप्ट लैब में मेंटर था, वहां मेरे पास यह कहानी अभिषेक चटर्जी लेकर आए. वह खुद इस फिल्म को निर्देशित करना चाहते थे. पर जब मैंने कहा कि मैं इस फिल्म को निर्देशित करना चाहता हूं, तो उसने यह पटकथा मुझे दे दी. उसने बताया कि वह कभी मेरे निर्देशन में फिल्म में अभिनय करना चाहता था, पर मैंने उसे चुना नहीं था. उसके बाद उसने यह स्क्रिप्ट लिखी. और उसे खुशी होगी कि मैं उसकी लिखी स्क्रिप्ट को निर्देशित करूं. फिर मैंने उसे अपना सहायक निर्देशक बनाया. अब मेरी अगली फिल्म की स्क्रिप्ट वही लिख रहा है. यह कहानी पढ़ते वक्त मुझे एकदम नयी व ताजी कहानी लगी. इसलिए मैंने इसे चुना.
फिल्म ‘‘कुछ भीगे अल्फ़ाज’’ है क्या?
मेरे करियर की यह पहली पूर्ण रूपेण प्रेम कहानी वाली फिल्म है. इसमें अल्फाज एक रेडियो जौकी है, जो कि अंदर से टूटा हुआ है. वह कलकत्ता रेडियो पर देर रात भीगे अल्फाज नामक एक कार्यक्रम करता है. इसमें वह रोमांटिक कहानियों के साथ कुछ पुराने फिल्मी रोमांटिक गाने सुनाता है. यह शो काफी लोकप्रिय है. इसकी चर्चाएं सोशल मीडिया यानी कि फेसबुक व व्हाट्सऐप आदि पर होती रहती है. लेकिन अल्फाज वास्तव में कौन है, कोई नहीं जानता. वह बहुत अकेलापन वाली जिदंगी जीता है. अपनी पहचान छिपाकर रखता है. एक अर्चना नामक लड़की का गलत नंबर लग जाने पर बातचीत शुरू होती हैं. फिर दोनों एक दूसरे की कमियों को दूर करने में कैसे मदद करते हैं? और उनके बीच कैसे पहला प्यार पनपता है, उसकी कथा है. यह कहानी आज के सोशल मीडिया,फेसबुक व वहाट्सऐप के इर्दगिर्द घूमती है.
तो आपने सोशल मीडिया के फायदे गिनाए हैं?
हर तकनीक के अपने नुकसान फायदे होते हैं. हमारी फिल्म में दिखाया गया है कि हमारी युवा पीढ़ी सोशल मीडिया से कैसे प्यार ढूंढ़ लेती है. देखिए, हर इंसान की अपनी एक पसंद हो सकती है. मैं सोशल मीडिया पर बिलकुल नहीं हूं. लोग मुझसे पूछते हैं कि, ‘पुराना फोन लेकर क्यों घूमते हो’, तो मैं उनको जवाब देता हूं कि, ‘फोन मेरे लिए बना है, मैं फोन के लिए नहीं बना हूं. मैं फोन के पीछे क्यों भागूं?’ तो सोशल मीडिया कई बार आपकी जिंदगी में बेवजह की दखलंदाजी कर सकता है. हो सकता है कि वह कई बार आपके काम भी आए. मेरे अनुसार हर इंसान को सोशल मीडिया से उतना ही जुड़ना चाहिए, जितना कि वह इंसान की जिंदगी में दखलंदाजी ना कर सकें. मैंने एक फिल्म बनायी थी ‘आई एम’, जिसके लिए क्राउड फंडिंग सोशल मीडिया से ही आयी थी. तो मैं सोशल मीडिया के खिलाफ बात तो नहीं कर सकता. मैं यह मानता हूं कि अति हर चीज की नुकसान दायक होती है.
आपने बताया कि फिल्म ‘कुछ भीगे अल्फाज’ में प्रेम कहानियों के साथ ही दो किरदारों के अपनी कमियों से उबरने की दास्तां भी है. तो इस फिल्म को बनाने के पीछे आपका मूल मकसद क्या रहा?
शहरों में युवा पीढ़ी ट्विटर व फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर इतना व्यस्त रहती है कि उसके अंदर अकेलापन बढ़ रहा है. तो दूसरी तरफ अर्चना है, जिसके चेहरे पर दाग है. हमारी फिल्म कहती है कि चेहरे का लुक ऐसा ही है. यदि आपको जिंदगी भर के लिए कोई साथी चाहिए, तो अंदर से एक जुड़ाव होना चाहिए. हमारी फिल्म आंतरिक भावनाओं के मिलन की बात करती है. हमारी फिल्म इस बात को रेखाकिंत करती है कि प्यार किस तरह हर मर्ज की दवा बन सकता है. बिना शर्त का प्यार हीलिंग पावर का काम करता है. प्यार आपके अंदर की नकारात्मकता को स्वीकार कर आपको आगे बढ़ाता है. वह रिश्ते मजबूत और प्रगाढ़ होते हैं, जहां कुछ भी छिपाया नहीं जाता. यदि आप अपनी कमियों को किसी से छिपाते हैं, तो वह नुकसानदायक होता है. क्योंकि तब आपकी मदद करने के लिए कोई नही आता.
फिल्म ‘‘तुम्हारी सल्लू’’ में विद्या बालन ने रेडियो जौकी का किरदार निभाया और अब आपकी फिल्म ‘कुछ भीगे अल्फाज’ में भी रेडियो जौकी है. दोनों फिल्मों में मूलभूत अंतर क्या है?
देखिए, हमारी फिल्म का माहौल पूरा सोशल मीडिया हैं. रेडियो पर जो कार्यक्रम हो रहा है, उसकी खबर किस तरह से वहाट्सऐप व फेसबुक पर बनती है, वह सब है. इसके अलावा यह फिल्म पहले प्यार व रोमांस की बात करती है.
आपकी हर फिल्म में रोमांस व रिश्ते हावी रहते हैं. तो रिश्ते और रोमांस को लेकर आपकी अपनी सोच क्या है?
मैं अपनी जिंदगी में जो कुछ हूं, वह रिश्तों की वजह से हूं. मैं एक छोटे से शहर के मध्यमवर्गीय परिवार से आया हूं. मेरे दोस्तों ने जो प्यार दिया, उसकी वजह से मैं फिल्में बना पाया. मेरी जिंदगी में दो चीजें महत्वपूर्ण हैं, पहला काम और दूसरा मेरे दोस्त. मैं अर्थशास्त्र को सबसे पीछे रखता हूं. मेरे लिए खुशी की बात है कि मेरे आस पास अच्छे लोग हैं.
आपकी हर फिल्म में नए चेहरे होते हैं?
मैं हमेशा नए चेहरों को आगे बढाता हूं. क्योंकि मैं भी कभी नया था. और किसी ने मुझे आगे बढ़ाया था. मुझे नई प्रतिभाओं को प्रशिक्षण देने और उनसे बेहतर काम करवाने में आनंद मिलता है.
फिल्म को कहां फिल्माया है?
कोलकता में 19 दिन और शिमला में दो दिन.
आप अपनी फिल्मों को कोलकता में फिल्माना पसंद करते हैं?
जब मैं कलकत्ता में कौलेज में पढ़ रहा था, उस वक्त मुझे पहले प्यार का अहसास हुआ था. मेरी यह फिल्म पहले प्यार की बात करती है. इसलिए मैंने इस फिल्म को वहां जाकर फिल्माया. मुझे कोलकता के टै्म में भी रोमांस दिखता है. मेरी फिल्म में कलकत्ता बहुत अलग ढंग से उभरता है.
तब तो आपने इस फिल्म में अपनी निजी जिंदगी के प्यार की यादों को भी पिरोया होगा?
जब पटकथा पर काम होता है, तो कहीं न कहीं हम अपनी निजी चीजों को उसमें पिरोते हैं. अभिषेक चटर्जी की इस पटकथा में मैंने अपने अनुभव डाले हैं. इसलिए यह फिल्म मेरे लिए खास बन गयी है. मैंने अपनी कई यादों को इस फिल्म का हिस्सा बनाया है. जब मैं अपने पहले प्यार में था, उस वक्त के मेरे जो खुशी के पल थे, उनको याद करके मैंने इस फिल्म में डाले हैं. जो कि फिल्म देखते समय आपको इस बात का अहसास कराएंगे.
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