साल 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले ऊंची जातियों के पढ़ेलिखों ने एक तीखी मुहिम चलाई थी. सोनिया गांधी व कांग्रेस के राज में 10 सालों में जो बेईमानियां हुईं, उन्होंने कांग्रेस की सूरत बिगाड़ डाली. चुप्पे मनमोहन सिंह जवाब देने में पीछे रह गए और राहुल गांधी जब बोले, गलत बोले. नतीजा यह हुआ कि बड़बोले प्रवचनों के माहिर भाजपाई नेता आम जनता को कन्विंस कर गए कि अच्छे दिन आएंगे.

अच्छे दिन आए पर कट्टरपंथियों के लिए जो न केवल विधर्मी को दुश्मन सा मानते हैं, पिछड़ों, जो हिंदू वर्ण व्यवस्था में शूद्र हैं और दलित, जो अछूत, जाति बाहर हैं, को पिछले जन्मों का पाप भुगतने वाले भी मानते हैं. जीतने के बाद सारे देश में ऊंची जातियों का सिर ऊंचा हो गया और एक बार फिर वे उस राम राज्य की कल्पना करने लगे, जिस में हनुमान, बाली, एकलव्य, घटोत्कच केवल दास थे. औरतें तो अहल्या की तरह पैरों में रहती थीं और अछूतों की तो गिनती ही नहीं थी. हाथ में राज आते ही सत्तारूढ़ नेता दलितों के खिलाफ भी मुखर होने लगे और सारे देश में भगवा दुपट्टे और तिलककलेवे दिखने लगे.

विश्वविद्यालयों में दलितों को मिलने वाले आरक्षण पर तो खास सवाल उठाए जाने लगे. देश की धीमी रफ्तार के लिए बारबार आरक्षण को कोसा जाने लगा. पहला निशाना तो गरीब मुसलमानों को बनाने की कोशिश की गई और 2002 के बाद चुप सी रहने वाली कौम को कभी गौमांस के नाम पर, कभी योग के नाम पर, कभी सूर्य नमस्कार के नाम पर, तो कभी वंदेमातरम के नाम पर तंग किया जाने लगा. हिंदू सोच में विधर्मियों की तरह दलितों से भी रोटीबेटी का नहीं, छुआछूत का पुराना रिवाज रखा जाता है. अगर मुसलमानों के बारे में गुस्सा पाकिस्तान बनने का है, तो दलितों के बारे में भीमराव अंबेडकर का 1932 में आरक्षण का हक पा लेने का. दोनों ही ने ऊंची जातियों के अंगरेजों के देश पर सत्ता में आने के बाद बढ़ते असर पर ग्रहण लगाया था.

आंध्र प्रदेश के हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित छात्र रोहित वेमुला की खुदकुशी पर जो बवाल मचा है, वह दलितों का दबा गुस्सा है, जो कई सालों से पनप रहा था. दलितों के ज्यादातर नेताओं को तो ऊंची जातियों की पार्टियों ने खरीद लिया था और सत्ता में रही एकमात्र दलित नेता मायावती को अंबेडकर के मंदिर बनवाने और कीमती जेवर व पोशाकें पहनने से फुरसत न मिली थी. यह हताशा का दौर ही है, जिस वजह से विश्वविद्यालयों में, जहां सब छात्र लगभग बराबर होते हैं, आरक्षण पाने वाले लगातार तानों के शिकार हो रहे हैं. वे पहले से ही गालियों के आदी रहे हैं, पीढि़यों से, इसलिए आमतौर पर चुप ही रहते हैं. रोहित वेमुला के दोस्तों ने अंबेडकर स्टूडैंट्स एसोसिएशन बनाई, पर ऊंची जातियों की अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के मुकाबले वह कहीं कमजोर निकली. उन की अकसर पिटाई ही होती थी.

उसी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नेताओं के कहने पर केंद्रीय मंत्री तिलकधारी बंडारू दत्तात्रेय ने दखल दिया. वैसे तो मंत्रीजी पिछड़े वर्ग के हैं, पर बहुत से दूसरे पिछड़ों की तरह सवर्णों की सेवा करने में इतना जोश दिखाने लगते हैं कि सवर्ण भी अपने को फोका भक्त समझने लगते हैं. देशभर में वर्ण व्यवस्था के हिसाब से शूद्र घरों से निकले इतनी भक्ति से जोशखरोश से उसी भेदभाव वाली वर्ण व्यवस्था का ढोल पीट रहे हैं कि आश्चर्य होता है कि उन्हें हिंदू समाज की असलियत मालूम भी है या नहीं.

जब से शूद्र माने जाने वाले पिछड़ों के हाथों में जमीनें आई हैं और गांवोंकसबों की दुकानदारियां हाथ लगी हैं, वे बढ़चढ़ कर वर्णवादी पौराणिक युग को लाने की कोशिश कर रहे हैं और सवर्णों को बैठेबिठाए जिहादी मिल रहे हैं, जो आकाओं के लिए आंख मूंद कर काम कर रहे हैं. रोहित वेमुला उसी का शिकार हुआ है.

यह नहीं भूलना चाहिए कि देश में अगर पैसा आएगा तो आम गरीब यानी दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों की मेहनत पर आएगा. हर देश अमीर तब ही बनता है, जब उस की पूरी जनता ज्यादा व और ज्यादा काम करती है. बीमार, अनपढ़, पिछड़ी, अंधविश्वासी, आलसी, नशेड़ी, बिना हुनर वाली मजदूर जनता देश पर बोझ है. उसे पढ़ाना, अंधविश्वासों के दलदल से निकालना, बराबरी की जगह देना, नशे से बचाना पूरे देश की भलाई के लिए जरूरी है. यह उन पर एहसान ही नहीं है. यह ऊंची जातियों और पैसे वालों के लिए और ज्यादा अमीर बनने की पहली शर्त है.

दलितों, पिछड़ों, मुसलमानों को नाराज कर के और उन्हें नीचा, पाप योनि का दिखा कर देश चार कदम बढ़ नहीं सकता. आज इसी जमात के लोग विदेशों में जा कर बाहर से देश को 4 लाख करोड़ रुपए भेजते हैं. ऊंची जातियों के लोग तो वहीं विदेशों में आलीशान मकान बना कर मौज कर रहे हैं. नरेंद्र मोदी जब विदेशों में जाते हैं तो जो भारतीय मूल के लोग उन की सभा में जमा होते हैं, वे ऊंची जातियों के अमीर हैं जो वहां के समाज से कटे हैं और भारत से लाभ कमाने की कोशिशों में लगे रहते हैं.

रोहित वेमुला क्या दलितों की दुर्दशा का प्रतीक बनेगा? क्या वह मर कर साबित कर पाएगा कि बराबरी और इज्जत का हक हर नागरिक के पास है और उसे मांबाप की जाति में जीने के लिए कोई मजबूर नहीं कर सकता? रोहित वेमुला की मौत की वजह भारतीय जनता पार्टी के मंत्री बंडारू दत्तात्रेय, स्मृति ईरानी या अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ही नहीं हैं, दूसरी पार्टियों में मौजूद ज्यादातर नेता, धंधों के मालिक, अफसरशाही, मीडिया सब हैं, जो वर्ण व्यवस्था के मकड़जाल से देश को निकालने की कोशिश भी करना छोड़ चुके हैं.

दलित, पिछड़े या उन में से बने मुसलमान, ईसाई या बौद्ध ज्यादातर गरीब हैं, तो उस सामाजिक भेदभाव के कारण हैं, जो पढ़ाईलिखाई व तर्क की भाषा के 200 सालों के बाद भी कम नहीं हो रहा. रोहित वेमुला की मौत शायद एक बड़ा जलजला साबित हो. शायद ऊंचों की सेवा कर रहे पिछड़े व दलित भी समझें कि वे कैसे केवल कठपुतली बने हुए हैं. यह मामला दलित रोहित वेमुला का नहीं, हर गरीब का है.

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