दिल्ली सरकार के सड़कों पर प्रदूषण को नियंत्रित करने के प्रयास की सराहना की जानी चाहिए, चाहे यह कामयाब हो या न हो सरकार ने दिल्ली की खराब होती हवा के लिए जनता को खुद जिम्मेदारी दे कर एहसास करा दिया है कि पर्यावरण से ज्यादा खिलवाड़ करना ठीक नहीं होगा और अगर इस की कीमत जान दे कर नहीं चुकानी तो थोड़ी कठिनाई सहिए.
यह ठीक है कि फैलते शहरों में आम लोगों की जरूरत के लायक परिवहन व्यवस्था नहीं बन पाई पर इस का मतलब यह नहीं कि हर नागरिक हर चीज को गारंटीड ले. आज दिल्ली में ही नहीं, पूरे देश में लोग नए मकान, नए दफ्तर, नए शौपिंग सैंटर बिना सोचेसमझे बनाए जा रहे हैं. बिना सोचेसमझे जंगल काट कर कंक्रीट उगाई जा रही है. बिना सोचेसमझे सड़कों पर वाहन ठूंसे जा रहे हैं. सरकारों को दोष देना आसान है पर अपने गरीबान में भी झांकना जरूरी है. आज युवा खासतौर पर एक बढि़या पिज्जा खाने के लिए 20 किलोमीटर दूर जाने को तैयार हैं, क्यों? युवा कालेज चुनते हुए नहीं देखते कि वह घर से कितनी दूर है, क्यों? मातापिता अच्छे स्कूल के नाम पर बच्चों को दूर के स्कूल में दाखिला दिला देते हैं, क्यों?
अगर शहरी लोगों को अपने समय, अपनी जेब, अपनी सेहत का खयाल नहीं है तो सरकार को कोसने से काम नहीं चलेगा और अगर कोई सरकार आप के सुखों पर कड़ा प्रहार कर रही है तो उस पर आपत्ति करने की जगह, उस में खामियां निकालने के, उसे मानना चाहिए. औडईवन फार्मूले से दिल्ली सरकार को कोई लाभ नहीं होगा. यह न सरकार का टैक्स बढ़ाएगा, न सरकारी अफसरों की शक्ति. उलटा अगर यह प्रयास सफल होता है तो सरकार के टैक्स में कमी आएगी, क्योंकि कम पैट्रोलडीजल के खर्च का मतलब है कम सेल टैक्स. सरकार का खर्च तो इस कदम से बढ़ेगा क्योंकि उसे ज्यादा पुलिस, ज्यादा मजिस्ट्रेट, ज्यादा अनुशासित बसें चलवानी होंगी. यह उन थोड़े कामों में से है जिन में सरकारों को जनता का भला करने के लिए गालियां सुननी पड़ती हैं. इस तरह के प्रयोग का स्वागत किया जाना चाहिए.
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