‘‘किसी भी इंसान के शयन कक्ष (बेडरूम) में पड़ोसी या किसी भी इंसान को झांकने की इजाजत किसने दी, के सवाल के साथ अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के मराठी भाषा के प्रोफेसर स्व.सिरास के अंतिम तीन माह की कहानी को यथार्थ परक तरीके से फिल्म ‘‘अलीगढ़’’ में पेश करने का काम फिल्मकार हंसल मेहता ने किया है. ‘‘बुसान’’ व ‘17वें मामी’ सहित कुछ अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में वाहवाही बटोर चुकी फिल्म ‘‘अलीगढ़’’ एक बेहतरीन संजीदा फिल्म है. यह फिल्म दर्शक को सोचने पर मजबूर भी कर सकती है. पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या यह फिल्म दर्शकों को सिनेमाघर के अंदर खींच पाएगी? तो इसका जवाब ‘न’ में ही आता है.
फिल्मकार हंसल मेहता ने जिस यथार्थपरक तरीके से इस फिल्म का निर्माण किया है, उससे फिल्म की गति न सिर्फ बहुत धीमी है, बल्कि कुछ दृश्य उबाउ भी हो गए हैं. कुल मिलाकर लोग ‘अलीगढ़’ को ‘फेस्टिवल फिल्म’ के रूप में ही याद करेंगे. परिणामतः फिल्मकार ने जिस अहम मुद्दे से प्रेरित होकर यह फिल्म बनायी है, वह आम लोगों तक नहीं पहुंच पाएगा.
दो घंटे की अवधि वाली फिल्म ‘अलीगढ़’ में कई मुद्दों के साथ ही 64 वर्षीय प्रोफेसर सिरास की सत्य कथा को बयां करने के बहाने ‘गे’ यानी कि ‘होमो सेक्सुआलिटी’ का अहम मुद्दा भी उठाया गया है, जिस पर इन दिनों सुप्रीम कोर्ट सुनवायी कर रहा है. वास्तव में दिल्ली उच्च न्यायालय का ‘होमोसेक्सुआलिटी’ को गैरआपराधिक घोषित करना और होमो सेक्सुआलिटी के आरोप में अलीगढ़ यूनिवर्सिर्टी द्वारा प्रोफेसर सिरास का निलंबन एक ही दिन हुआ था. इसी आधार पर सिरास ने अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के खिलाफ इलहाबाद हाईकोर्ट में मुकदमा जीत लिया था. पर इस जीत के दूसरे ही दिन रहस्यममय परिस्थिति में प्रोफेसर सिरास का देहांत हो गया था. इसके कुछ ही दिन बाद सुप्रीम कोर्ट ने पुनः होमो सेक्सुआलिटी को अपराध घोषित कर दिया था. फिल्म में नैतिकता की संवैधानिक सीमा तय करने के साथ इंसान के अकेलेपन का मुद्दा भी उठाया गया है.
फिल्म की कहानी 64 वर्षीय प्रोफेसर सिरास (मनोज बाजपेयी) की है, जो कि अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में मराठी भाषा की शिक्षा देते है, जहां उर्दू भाषा का बोलबाला है. प्रोफेसर सिरास अच्छे कवि हैं. उनकी कविताओं की कई पुस्तकें बाजार में हैं. वह लता मंगेषकर के गाने सुनने के अलावा शराब पीने के शौकीन हैं. 35 साल की नौकरी करने के बाद उन्हे भाषा विभाग का चेअरमैन बना दिया जाता है. यह बात अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के कुछ प्रोफेसरों को पसंद नहीं आती है. यह प्रोफेसर, प्रोफेसर सिरास को धमकाते हैं. इस धमकी के महज एक सप्ताह बाद एक टीवी चैनल का रिपोर्टर व कैमरामैन रात में उस वक्त प्रोफेसर सिरास के बेडरूम में पहुंच जाता है, जब प्रोफेसर सिरास एक युवा रिक्शेवाले के साथ समलैंगिक क्रिया में मशगूल होते है. टीवी रिपोर्टर उनके दृश्यों को फिल्माने के अलावा प्रोफेसर सिरास व रिक्शेवाले की पिटाई करते हैं, तभी अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के पीआरओ तीन अन्य अफसरों के साथ वहां पहुंच जाते हैं. दूसरे दिन हर अखबार में यह खबर छप जाती है. और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी आनन फानन में समलैंगिकता के आरोप में प्रोफेसर सिरास को उनके रिटायरमेंट से सिर्फ तीन माह पहले निलंबित कर देतीहै.
सात दिन के अंदर उनका घर भी खाली करवा लेती है. उसके बाद प्राफेसर सिरास की व्यथा शुरू होती है. इधर दिल्ली के ‘इंडिया पोस्ट’ के नए पत्रकार पीकू (राज कुमार राव) को यह सेक्स स्कैंडल की बजाय मानवीय कहानी नजर आती है और वह बड़े जद्दोजेहाद करके अपने वरिष्ठ की इजाजत लेकर अलीगढ़ पहुंचकर प्रोफेसर सिरास के अलावा अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के कुछ लोगों से मिलकर जांच करना शुरू करता है और वह सवाल उठाता है कि कि प्रोफेसर सिरास के शयनकक्ष में घुसने की इजाजत चैनल की टीम को किसने दी थी? यदि यह बिना इजाजत घुसे थे, तो अलीगढ़ यूनिवर्सिटी ने इस कैमरा टीवी के दोनो पत्रकारों के खिलाफ कार्यवाही क्यों नहीं की? उसके बाद प्रोफेसर सिरास अपने निलंबन के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुंचते हैं. जहां समलैंगिकता और संविधान में प्रदत्त इंसान की आजादी को लेकर बहस होती है. इलाहाबाद हाईकोर्ट प्रोफेसर सिरास के पक्ष में फैसला देते हुए अलीगढ़ यूनिवर्सिटी को आदेश देता है कि प्रोफेसर सिरास को नौकरी पर बहाल करे. अदालत का आदेश यूनिवर्सिटी में पहुंचने से पहले ही घर के अंदर रहस्यमय परिस्थिति में प्रोफेसर सिरास की मौत हो जाती है.
यह महज एक फिल्म नही है. यह ‘गे’ अधिकारों की मांग के साथ साथ हक के लिए सतत संघर्ष की बात करती है. मानवीय अधिकारों के साथ साथ उम्मीदों की बात करती हैं. फिल्म में कई दृश्य ऐसे हैं, जहां दर्शक संवेदना और मानवता के धरातल पर प्रोफेसर सिरास के साथ खड़ा नजर आएगा. फिल्मकार हंसल मेहता अपनी चिरपरिचित अंदाज में ही नजर आते हैं. गंभीर कथा को बयां करने का हंसल मेहता का अपना अलग अंदाज है. मगर फिल्म को गति देने के लिए फिल्म के कई दृश्य हटाए जा सकते हैं.
फिल्म में मनोज बाजपेयी और राजकुमार राव दोनो ने बेहतरीन अभिनय किया है. फिल्म में तमाम सीन ऐसे हैं, जहां इन दोनो ने संवादों की बजाय अपनी आंखों के भावों से बहुत कुछ अभिव्यक्त किया है. मनोज बाजपेयी ने एक बार फिर लाइफटाइम परफार्मेंस दी है. उन्होने सिनेमा के परदे पर प्रोफेसर सिरास को केरीकेचर नहीं बनने दिया. फिल्म में प्रोफेसर सिरास के दुःख, दर्द, बेबसी, निराशा, उम्मीद, गुस्से, अकेलापन, अपमान को मनोज बाजपेयी ने परदे पर इस तरह से जिया है कि यह संवेदनाएं व इंसानी भावनाएं लोगो के दिलों को छू जाती हैं.
‘‘कर्मा पिक्चर्स’’ और ‘‘ईरोज इंटरनेशनल’’ के बैनर तले बनी फिल्म ‘‘अलीगढ़’’ के निर्माता हंसल मेहता, सुनील लुल्ला और संदीप सिंह, निर्देशक हंसल मेहता, एडीटर अपूर्वा असरानी, संगीतकार करण कुलकर्णी, कैमरामैन सत्यराय नागपाल हैं.