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आशीष के जाते ही डिंपल दरवाजा बंद कर रसोईघर की ओर भागी. जल्दी से टिफिन अपने बैग में रख शृंगार मेज के समक्ष तैयार होते हुए वह बड़बड़ाती जा रही थी, ‘आज फिर औफिस के लिए देर होगी. एक तो घर का काम, फिर नौकरी और सब से ऊपर वही बहस का मुद्दा…’

5 वर्ष के गृहस्थ जीवन में पतिपत्नी के बीच पहली बार इतनी गंभीरता से मनमुटाव हुआ था. हर बार कोई न कोई पक्ष हथियार डाल देता था, पर इस बार बात ही कुछ ऐसी थी जिसे यों ही छोड़ना संभव न था.

‘उफ, आशीष, तुम फिर वही बात ले बैठे. मेरा निर्णय तो तुम जानते ही हो, मैं यह नहीं कर पाऊंगी,’ डिंपल आपे से बाहर हो, हाथ मेज पर पटकते हुए बोली थी.

‘अच्छाअच्छा, ठीक है, मैं तो यों ही कह रहा था,’ आखिर आशीष ने आत्मसमर्पण कर ही दिया. फिर कंधे उचकाते हुए बोला, ‘प्रिया मेरी बहन थी और बच्चे भी उसी के हैं, तो क्या उन्हें…’

बीच में ही बात काटती डिंपल बोल पड़ी, ‘मैं यह मानती हूं, पर हमें बच्चे चाहिए ही नहीं. मैं यह झंझट पालना ही नहीं चाहती. हमारी दिनचर्या में बच्चों के लिए वक्त ही कहां है? क्या तुम अपना वादा भूल गए कि मेरे कैरियर के लिए हमेशा साथ दोगे, बच्चे जरूरी नहीं?’ आखिरी शब्दों पर उस की आवाज धीमी पड़ गई थी.

डिंपल जानती थी कि आशीष को बच्चों से बहुत लगाव है. जब वह कोई संतान न दे सकी तो उन दोनों ने एक बच्चा गोद लेने का निश्चय भी किया था, पर…

‘ठीक है डिंपी?’ आशीष ने उस की विचारशृंखला भंग करते हुए अखबार को अपने ब्रीफकेस में रख कर कहा, ‘मैं और मां कुछ न कुछ कर लेंगे. तुम इस की चिंता न करना. फिलहाल तो बच्चे पड़ोसी के यहां हैं, कुछ प्रबंध तो करना ही होगा.’

‘क्या मांजी बच्चों को अपने साथ नहीं रख सकतीं?’ जूठे प्याले उठाते हुए डिंपल ने पूछा.

‘तुम जानती तो हो कि वे कितनी कमजोर हो गई हैं. उन्हें ही सेवा की आवश्यकता है. यहां वे रहना नहीं चाहतीं, उन को अपना गांव ही भाता है. फिर 2 छोटे बच्चे पालना…खैर, मैं चलता हूं. औफिस से फोन कर तुम्हें अपना प्रोग्राम बता दूंगा.’

तैयार होते हुए डिंपल की आंखें भर आईं, ‘ओह प्रिया और रवि, यह क्या हो गया…बेचारे बच्चे…पर मैं भी अब क्या करूं, उन्हें भूल भी नहीं पाती,’ बहते आंसुओं को पोंछ, मेकअप कर वह साड़ी पहनने लगी.

2 दिनों पहले ही कार दुर्घटना में प्रिया तो घटनास्थल पर ही चल बसी थी, जबकि रवि गंभीर हालत में अस्पताल में था. दोनों बच्चे अपने मातापिता की प्रतीक्षा करते डिंपल के विचारों में घूम रहे थे. हालांकि एक लंबे अरसे से उस ने उन्हें देखा नहीं था. 3 वर्ष पूर्व जब वह उन से मिली थी, तब वे बहुत छोटे थे.

वह घर, वह माहौल याद कर डिंपल को कुछ होने लगता. हर जगह अजीब सी गंध, दूध की बोतलें, तारों पर लटकती छोटीछोटी गद्दियां, जिन से अजीब सी गंध आ रही थी. पर वे दोनों तो अपनी उसी दुनिया में डूबे थे. रवि को तो चांद सा बेटा और फूल जैसी बिटिया पा कर और किसी चीज की चाह ही नहीं थी. प्रिया हर समय, बस, उन दोनों को बांहों में लिए मगन रहती.

परंतु घर के उस बिखरे वातावरण ने दोनों को हिला दिया. तभी डिंपल बच्चा गोद लेने के विचार मात्र से ही डरती थी और उन्होंने एक निर्णय ले लिया था. ‘तुम ठीक कहती हो डिंपी, मेरे लिए भी यह हड़बड़ी और उलझन असहाय होगी. फिर तुम्हारा कैरियर…’ आशीष ने उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा था.

दोनों अपने इस निर्णय पर प्रसन्न थे, जबकि वह जानती थी कि बच्चे पालने का अर्थ घर का बिखरापन ही हो, ऐसी बात नहीं है. यह तो व्यक्तिगत प्रक्रिया है. पर वह अपना भविष्य दांव पर लगाने के पक्ष में कतई न थी. वह अच्छी तरह समझती थी कि यह निर्णय आशीष ने उसे प्रसन्न रखने के लिए ही लिया है. लेकिन इस के विपरीत डिंपल बच्चों के नाम से ही कतराती थी.

डिंपल ने भाग कर आटो पकड़ा और दफ्तर पहुंची. आधे घंटे बाद ही फोन की घंटी घनघना उठी, ‘‘मैं अभी मुरादाबाद जा रहा हूं. मां को भी रास्ते से गांव लेता जाऊंगा,’’ उधर से आशीष की आवाज आई.

‘‘क्या वाकई, मेरा साथ चलना जरूरी न होगा?’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, मांजी तो जाएंगी ही. और कुछ दिनों पहले ही बच्चे नानी से मिले थे. उन्हें वे पहचानते भी हैं. तुम्हें तो वे पहचानेंगे ही नहीं. वैसे तो मैं ही उन से कहां मिला हूं. खैर, तुम चिंता न करना. अच्छा, फोन रखता हूं…’’

2 दिनों बाद थकाटूटा आशीष वहां से लौटा और बोला, ‘‘रवि अभी भी बेहोश है, दोनों बच्चे पड़ोसी के यहां हैं. वे उन्हें बहुत चाहते हैं. पर वे वहां कब तक रहेंगे? बच्चे बारबार मातापिता के बारे में पूछते हैं,’’ अपना मुंह हाथों से ढकते हुए आशीष ने बताया. उस का गला भर आया था.

‘‘मां बच्चों को संभालने गई थीं, पर वे तो रवि की हालत देख अस्पताल में ही गिर पड़ीं,’’ आशीष ने एक लंबी सांस छोड़ी.

‘‘मैं ने आज किशोर साहब से बात की थी, वे एक हफ्ते के अंदर ही डबलबैड भिजवा देंगे.’’

‘‘एक और डबलबैड क्यों?’’ आशीष की नजरों में अचरजभरे भाव तैर गए.

‘‘उन दोनों के लिए एक और डबलबैड तो चाहिए न. हम उन्हें ऐसे ही तो नहीं छोड़ सकते, उन्हें देखभाल की बहुत आवश्यकता होगी. वे पेड़ से गिरे पत्ते नहीं, जिन्हें वक्त की आंधी में उड़ने के लिए छोड़ दिया जाए,’’ डिंपल की आंखों में पहली बार ममता छलकी थी.

उस की इस बात पर आशीष का रोमरोम पुलकित हो उठा और वह कूद कर उस के पास जा पहुंचा, ‘‘सच, डिंपी, क्या तुम उन्हें रखने को तैयार हो? अरे, डिंपी, तुम ने मुझे कितने बड़े मानसिक तनाव से उबारा है, शायद तुम नहीं समझोगी. मैं आजीवन तुम्हारे प्रति कृतज्ञ रहूंगा.’’ पत्नी के कंधों पर हाथ रख उस ने अपनी कृतज्ञता प्रकट की.

डिंपल चुपचाप आशीष को देख रही थी. वह स्वयं भी नहीं जानती थी कि भावावेश में लिया गया यह निर्णय कहां तक निभ पाएगा.

डिंपल सारी तैयारी कर बच्चों के आने की प्रतीक्षा कर रही थी. 10 बजे घंटी बजी. दरवाजे पर आशीष खड़ा था और नीचे सामान रखा था. उस की एक उंगली एक ने तो दूसरी दूसरे बच्चे ने पकड़ रखी थी. उन्हें सामने देख डिंपल खामोश सी हो गई. बच्चों के बारे में उसे कुछ भी तो ज्ञान और अनुभव नहीं था. एक तरफ अपना कैरियर, दूसरी तरफ बच्चे, वह कुछ असमंजस में थी.

आशीष और बच्चे उस के बोलने का इंतजार कर रहे थे. ऊपरी हंसी और सूखे मुंह से डिंपल ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘हैलो, कैसा रहा सफर?’’

‘‘बहुत अच्छा, बच्चों ने तंग भी नहीं किया. यह है प्रार्थना और यह प्रांजल. बच्चो, ये हैं, तुम्हारी मामी,’’ आशीष ने हंसते हुए कहा.

परंतु चारों आंखें नए वातावरण को चुपचाप निहारती रहीं, कोई कुछ भी न बोला.

डिंपल ने बच्चों का कमरा अपनी पसंद से सजाया था. अलमारी में प्यारा सा कार्टून प्रिंट का कागज बिछा बिस्कुट और टाफियों के डब्बे सजा दिए थे. बिस्तर पर नए खिलौने रखे थे.

प्रांजल खिलौनों से खेलने में मशगूल हो, वातावरण में ढल गया, किंतु प्रार्थना बिस्तर पर तकिए को गोद में रख, मुंह में अंगूठा ले कर गुमसुम बैठी हुई थी. वह मासूम अपनी खोईखोई आंखों में इस नए माहौल को बसा नहीं पा रही थी.

पहले 4-5 दिन तो इतनी कठिनाई नहीं हुई क्योंकि आशीष ने दफ्तर से छुट्टी ले रखी थी. दोनों बच्चे आपस में खेलते और खाना खा कर चुपचाप सो जाते. फिर भी डिंपल डरती रहती कि कहीं वे उखड़ न जाएं. शाम को आशीष उन्हें पार्क में घुमाने ले जाता. वहां दोनों झूले झूलते, आइसक्रीम खाते और कभीकभी अपने मामा से कहानियां भी सुनते.

आशीष, बच्चों से स्वाभाविकरूप से घुलमिल गया था और बच्चे भी सारी हिचकिचाहट व संकोच छोड़ चुके थे, जिसे वे डिंपल के समक्ष त्याग न पाते थे. शायद यह डिंपल के अपने स्वभाव की प्रतिक्रिया थी.

एक हफ्ते बाद डिंपल ने औफिस से छुट्टी ले ली थी ताकि वह भी बच्चों से घुलमिल सके. यह एक परीक्षा थी, जिस में आशीष उत्तीर्ण हो चुका था. अब डिंपल को अपनी योग्यता दर्शानी थी. हमेशा की भांति आशीष तैयार हो कर 9 बजे दफ्तर चल दिया. दोनों बच्चों ने नाश्ता किया. डिंपल ने उन की पसंद का नाश्ता बनाया था.

‘‘अच्छा बच्चो, तुम जा कर खेलो, मैं कुछ साफसफाई करती हूं,’’ नाश्ते के बाद बच्चों से कहते समय हमेशा की भांति वह अपनी आवाज में प्यार न उड़ेल पाई, बल्कि उस की आवाज में सख्ती और आदेश के भाव उभर आए थे. थालियों को सिंक में रखते समय डिंपल उन मासूम चेहरों को नजरअंदाज कर गई, जो वहां खड़े उसे ही देख रहे थे.

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