धीरेधीरे ही सही कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी मंजे हुए नेता बनते जा रहे हैं. इस में उन की सियासी काबिलीयत का कितना योगदान है, इस पर बात करना थोड़ी जल्दबाजी होगी, लेकिन जब से हालिया केंद्र सरकार के 2 सियासी दांवों नोटबंदी और जीएसटी ने बैकफायर किया है, तब से वे बड़े विपक्षी नेता के रूप में बड़ी तेजी से उभरे हैं.

यह सब हुआ है गुजरात के विधानसभा चुनावों की वजह से जहां वर्तमान सरकार से नाराज जनता सड़कों व गलियों में उतर कर केंद्र सरकार तक की चूलें हिला रही है.

राहुल गांधी ने जनता की इस नब्ज को सही पकड़ा है. बेरोजगारी के मुद्दे पर उन्होंने भारतीय जनता पार्टी पर हमला करते हुए कहा, ‘‘चीन में हर रोज 50000 नौकरियां पैदा होती हैं और भारत में केवल 450. ‘मेक इन इंडिया’ के बावजूद ये हालात हैं. किसान और गरीब को पानी नहीं मिलता, पूरा पानी चंद अमीरों को दिया जा रहा है.’’

एसोसिएशन फौर डैमोक्रेटिक रिफौर्म्स के एक सर्वे के मुताबिक गुजरात के वोटरों ने रोजगार, सार्वजनिक परिवहन सेवा, महिला सशक्तीकरण और सुरक्षा को ऊपर रखा है.

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गांवदेहात के वोटरों ने भी रोजगार, फसलों की सही कीमत, खेती के लिए बिजली और सिंचाई सुविधा को बेहतर करने की मांग रखी.

केवल गुजरात की बात की जाए तो इस बार पाटीदार आरक्षण का मुद्दा बहुत बड़ा मुद्दा बन कर उभरा है. हार्दिक पटेल समेत पाटीदार समाज के कई नेता भारतीय जनता पार्टी से खासा नाराज हैं.

लेकिन राहुल गांधी ने गुजरात में नोटबंदी और जीएसटी के नुकसान को ले कर उन मुद्दों को हवा दी जो ज्यादातर जनता के गले की फांस बन चुके हैं.

इस के अलावा राहुल गांधी यह भी साबित करना चाहते हैं कि कांग्रेस उन वंचितों के साथ खड़ी है, जिसे ‘गुजरात मौडल’ की तथाकथित कामयाबी के बाद भी कोई फायदा नहीं हुआ है.

लेकिन इस बार गुजरात चुनावी घमासान के दौरान कुछ खास भी हुआ है, जो है जनता की एकजुटता.

केंद्र सरकार की तानाशाही नीतियों के चलते एक बात जो सामने आई है वह यह है कि जनता सरकारों के खुद पर थोपे गए मुद्दों से परेशान हो गई है. उसे मंदिरमसजिद, हिंदूमुसलिम, गौरक्षा, पाकिस्तान, कश्मीर वगैरह से कोई मतलब नहीं है, बल्कि वह तो केंद्र सरकार के ऊलजलूल फैसलों नोटबंदी और जीएसटी के कहर से एकजुट हो कर तिलमिलाई सी अपने सवालों के जवाब नरेंद्र मोदी और उन के सिपहसालारों से मांग रही है. कम से कम राहुल गांधी, हार्दिक पटेल आदि की सभाओं से तो ऐसा लगा.

पहले नोटबंदी पर बात करते हैं. भारत के 500 और 1000 रुपए के नोटों को भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 नवंबर, 2016 को रात के 8 बजे अचानक चलन में नहीं रहने का ऐलान किया था. मीडिया ने जनता को समझाने के लिए इसे आसान भाषा में ‘नोटबंदी’ शब्द दिया था.

इस नोटबंदी का मकसद न केवल काले धन पर काबू पाना था, बल्कि देशभर में चल रहे जाली नोटों से छुटकारा पाना भी था. लेकिन क्या नोटबंदी से सरकार के ये दोनों मकसद पूरे हो पाए

नोटबंदी होते ही जनता में अफरातफरी मच गई. बैंकों, डाकखानों के आगे नोट बदलवाने की लंबीलंबी लाइनें लग गईं. घंटों सड़कों पर खड़े रहने के बावजूद नोट बदलने की कोई गारंटी नहीं होती थी.

इतना ही नहीं, 18 नवंबर, 2016 को कारोबार चलाने के लिए पैसे नहीं होने की बात कहते हुए मणिपुर राज्य में अखबारों ने अपने दफ्तर बंद कर दिए थे.

इस सब के बावजूद भक्तों ने नरेंद्र मोदी के इस कड़े फैसले की तारीफ की थी, क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि कुछ दिनों की परेशानी के बाद देश में रामराज्य आ जाएगा.

नोटबंदी के जरीए सरकार को भी पूरी उम्मीद थी कि नोटबंदी से बैंकों में जो पैसा आएगा वह सफेद होगा और जो बचा रहेगा यानी जमा न होगा उसे काला धन मान लिया जाएगा.

लेकिन ऐसा न हो पाया. सब से बड़ा नुकसान लोगों को लेनदेन के रूप में देखने को मिला. छोटेबड़े कारोबारी इस वजह से किसी तरह का लेनदेन नहीं कर पाए. जो कारोबारी नकद पर कारोबार करते थे, जब वे बेरोजगार हो गए, तो उन के यहां काम करने वाले लोग भी काम से हाथ धो बैठे.

यही हाल किसानों का भी हुआ. वे तो सरकार के इस फैसले के खिलाफ धरनेप्रदर्शन करते नजर आए.

सरकार के सामने जनता द्वारा पूछा गया लाख टके का सवाल यह था कि नोटबंदी के एक साल बाद भी क्या काला धन वापस लौटा  बैंकों में कितना पैसा आया  सरकार ऐसे सवालों का कोई सीधा जवाब नहीं देना चाह रही और इस संबंध में ठोस आंकड़े नहीं दिखा रही है.

इस का नतीजा यह हुआ कि सभी विपक्षी दल पूरी एकजुटता से सरकार के नोटबंदी के फैसले को नाकाम और देश को पीछे धकेलने वाला साबित करने की कोशिश में लग गए.

सरकार को नोटबंदी के फैसले से कोई फायदा होता तो नहीं दिखा, पर उस ने फिर भी दूसरा दांव गुड्स ऐंड सर्विसेस टैक्स का खेलना शुरू कर दिया जिस का छोटा नाम है जीएसटी.

1 जुलाई, 2017 को यह टैक्स लागू होते ही देश में अलगअलग जगहों पर लगने वाले 18 टैक्स खत्म कर दिए गए. मतलब 1 जुलाई, 2017 से पहले हम किसी भी सामान को खरीदते या सेवा को लेते समय अलगअलग तरह के टैक्स सरकार को देते थे जैसे कि सेल्स टैक्स, औक्ट्रौय सर्विस टैक्स वगैरह. 1 जुलाई, 2017 के बाद सिर्फ जीएसटी ही रहा. पर यह जितना आसान दिख रहा था उतना था नहीं.

वजह, यह एक भ्रामक शब्द था. एक टैक्सेशन के नाम पर 2 तरह का टैक्स लगा. एक सैंट्रल टैक्स और दूसरा स्टेट टैक्स.

इतना ही नहीं, भारत जैसे देश में जहां हर जगह कंप्यूटर मुहैया नहीं हैं, वहां जीएसटी जैसी कंप्यूटरीकृत व्यवस्था लागू कर डाली गई. बहुत से छोटे कारोबारियों को कंप्यूटर की एबीसी भी नहीं मालूम थी. वे तो सिर धुनते दिख रहे हैं.

किसानों के लिए यह नुकसान का सौदा रहा. कहने को तो खाद्यान्न चीजों पर जीएसटी लागू नहीं किया गया, लेकिन इन को उगाने में इस्तेमाल किए जाने वाले हर कैमिकल व कीटनाशक जैसी चीजों पर यह टैक्स जम कर लगा, जिस से खेतीबारी में आने वाला खर्च बढ़ गया.

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जीएसटी का गड़बड़झाला धीरेधीरे इस कदर बढ़ता गया कि राहुल गांधी ने जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स का नया नाम दे दिया. गब्बर सिंह हिंदी फिल्म ‘शोले’ का वह दुर्दांत डाकू था जो अपने और खुद के गुरगों को पालने के लिए आसपास के गांवों से डाकू टैक्स वसूलता था.

उस का कहना था कि वह उन सब का रखवाला है और इस के लिए अगर वह गांव वालों से खानेपीने का सामान लेता है तो इस में गलत क्या है  मतलब जनता की गाढ़ी कमाई पर हाथ की सफाई. ऐसे मेहनती लोगों, जिन में छोटे कारोबारी, किसान, मजदूर और सब्जी बेचने वाले थे, को लूट कर गब्बर सिंह खुद को उन का मसीहा कहता था.

नोटबंदी और जीएसटी से वर्तमान सरकार की इमेज उस गब्बर सिंह जैसी हो गई है, जो भारत की जनता की गाढ़ी कमाई बैंकों में भर रही है जबकि लोगों को रोजमर्रा की चीजें खरीदने में परेशानी हो रही है. उसे अपना ही पैसा मांगने के लिए सरकार का मुंह ताकना पड़ रहा है.

गुजरात में विधानसभा चुनाव होने के मद्देनजर सरकार ने पेचीदा जीएसटी में नवंबर में काफी बदलाव किए हैं, लेकिन इस का फायदा होता नहीं दिख रहा है, क्योंकि राहुल गांधी ने गुजरात के चुनावों को नया मोड़ दे दिया है.

उन्होंने इसे देशभर के कारोबारियों, किसानों, मजदूरों, कारखानेदारों की मुसीबतों का चुनाव साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. पहली बार जनता सरकार की नाकामी पर उस से सवाल कर रही है.

अब तक के हुए 16 लोकसभा चुनावों की बात की जाए तो इन में ‘गरीबी हटाओ’, ‘भ्रष्टाचार’, ‘रिजर्वेशन’, ‘राममंदिर’, ‘गौरक्षा’, ‘पाकिस्तान’, ‘कश्मीर’, ‘मुसलिम’ वगैरह बेबुनियादी मसलों पर चुनाव लड़े जाते रहे. जनता को समझ में ही नहीं आता था कि उस की तरक्की की बात कब की जाएगी.

लेकिन नरेंद्र मोदी के नोटबंदी और जीएसटी वाले बेतुके फैसलों ने जनता को एकजुट कर दिया है. कारोबारी हों या मजदूर अब सब समझ गए हैं कि वे एकदूसरे के पूरक हैं. अगर वे एकजुट हो जाएं तो देश में बेरोजगारी की समस्या खुदबखुद खत्म हो जाएगी.

वे सभी सरकार से सवाल कर रहे हैं कि उन की गाढ़ी कमाई की सरकार छीनाझपटी क्यों कर रही है  लोग अपना पैसा घर में नहीं रख सकते. क्यों  सरकार ने तो जैसे हर पैसे वाले को कालाबाजारी साबित कर दिया है.

जनता का यह गुस्सा अगले लोकसभा चुनावों में नया रंग ला सकता है. अगर कारोबारी, किसान, मजदूर, कारखानेदार एक हो गए तो नेता, चाहे वे किसी भी दल के क्यों न हों, उन्हें फालतू के हवाहवाई मुद्दों में नहीं उलझा पाएंगे.

भले ही गुजरात के विधानसभा चुनाव लोकसभा जितने बड़े नहीं हैं, लेकिन वहां की जनता ने सरकार से जो सवाल पूछे हैं, उन के जवाब भारत का हर वह नागरिक जानना चाहता है, जो 18 साल से ऊपर का हो गया है और सही उम्मीदवार को वोट दे कर देश का भविष्य बदल सकता है.

15 अगस्त, 1947 को भारत आजाद हुआ था. अगर चुनावों खासकर लोकसभा चुनावों की बात करें तो अब तक देश में 16 लोकसभा चुनाव हो चुके हैं. इन सभी चुनावों में नेताओं द्वारा जानबूझ कर ऐसे मुद्दे हवा में उछाले जाते थे, ताकि लोग उन के भ्रामक नारोंवादों में उलझ कर अपनी समस्याओं के बारे में जबान ही न खोल पाएं.

साल 1952 और 1957 में हुए पहले व दूसरे लोकसभा चुनाव कांग्रेस ने जवाहरलाल नेहरू की अच्छी इमेज के चलते आसानी से जीत लिए थे. पाकिस्तान बनने के बाद भारत खुद संभल रहा था. जनता अंगरेजों से मिले जख्मों पर मरहम ही लगा रही थी.

लेकिन साल 1962 में हुए तीसरे लोकसभा चुनावों से पहले जवाहरलाल नेहरू ने विकास के क्षेत्रों में देश के एक नए रूप की कल्पना की थी.

पंचवर्षीय योजना का उदय भी इसी समय हुआ था, जिस का मसकद कुदरती संसाधनों का सही तरीके से इस्तेमाल कर के लोगों की जिंदगी में सुधार लाना था.

जनता ने भी जवाहरलाल नेहरू की शख्सीयत से ऊपर उठ कर मुद्दों को तरजीह दी थी. आजादी की लड़ाई की खुमारी अब उतर चुकी थी.

उस समय भारत के पाकिस्तान के साथ अच्छे संबंध नहीं थे. अक्तूबर, 1962 में भारत और चीन की लड़ाई भी एक नए मुद्दे के रूप में उभरी थी. इस से कांग्रेस की साख को नुकसान हुआ था.

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साल 1966 में इंदिरा गांधी को जब देश का प्रधानमंत्री बनाया गया, तब कांग्रेस में भीतरी कलह बहुत ज्यादा थी. चीन और पाकिस्तान के साथ हुई लड़ाइयों से भारत की अर्थव्यवस्था भी हिली हुई थी. इस से कुछ नए मुद्दे सामने आए थे, जिन में मिजो आदिवासी बगावत, अकाल, श्रमिक अशांति खास थे. रुपए में गिरावट के चलते भारत में गरीबी का आलम था. पंजाब में धार्मिक अलगाववाद के लिए भी आंदोलन चल रहा था.

5वीं लोकसभा के चुनाव कई माने में अहम थे. वे अपने समय से एक साल पहले 1971 में हो गए थे. इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ नारा दे कर चुनाव प्रचार किया था और 352 सीटों पर जीत हासिल की थी.

1971 में भारत पाकिस्तान की लड़ाई हुई थी और पाकिस्तान के 2 टुकडे़ हो कर बंगलादेश नया देश बन गया था. 12 जून, 1975 को चुनावी भ्रष्टाचार के आधार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1971 के चुनाव को गैरकानूनी करार दिया था.

‘गूंगी गुडि़या’ कही जाने वाली इंदिरा गांधी ने इस्तीफा नहीं दिया, बल्कि उन्होंने देश में इमर्जैंसी लगा कर पूरे विपक्ष को ही जेल में डाल दिया था.

इस का नतीजा साल 1977 में हुए छठे लोकसभा चुनावों में देखने को मिला. कांग्रेस की इमर्जैंसी इन चुनावों में मुख्य मुद्दा थी. 4 विपक्षी दलों कांग्रेस (ओ), भारतीय जनसंघ, भारतीय लोकदल और समाजवादी पार्टी ने जनता पार्टी के रूप में मिल कर चुनाव लड़ने का फैसला किया था.

जनता को इमर्जैंसी में की गई ज्यादतियों की याद दिलाई गई थी. ‘गरीबी हटाओ’ के बजाय ‘इंदिरा हटाओ’ के नारे लगाए गए. विपक्ष की एकजुटता रंग लाई और कांग्रेस को पहली बार हार का सामना करना पड़ा.

जनता पार्टी ने यह चुनाव तो जीत लिया था, पर उस की सत्ता पर पकड़ अच्छी नहीं थी. इस से कांगे्रस दोबारा मजबूत होने लगी थी. वह इंदिरा की इमेज को दोबारा बनाने में जुट गई.

चुनाव प्रचार में कांग्रेस ने महंगाई, सामाजिक समस्या और कानून व्यवस्था को तरजीह दी. उस का नारा ‘काम करने वाली सरकार को चुनिए’ काम कर गया और 1980 के मध्यावधि लोकसभा चुनाव में उसे लोकसभा में 353 सीटें मिलीं.

31 अक्तूबर, 1984 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हो गई थी. इस से कांग्रेस के पक्ष में हमदर्दी की लहर बन गई थी. जब चुनाव हुए तो राजीव गांधी की अगुआई में कांग्रेस ने रिकौर्ड 404 लोकसभा सीटें जीतीं और राजीव गांधी की ‘मिस्टर क्लीन’ नेता की इमेज बनी. पर वे जल्दी ही बोफोर्स कांड, पंजाब के आतंकवाद, लिट्टे और श्रीलंका सरकार के बीच गृहयुद्ध जैसी समस्याओं से जूझने लगे.

90 के दशक में भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी द्वारा राम जन्मभूमि व बाबरी मसजिद के मुद्दे पर रथयात्रा शुरू की गई.

10वीं लोकसभा में 1991 के चुनाव मध्यावधि चुनाव थे. इस के 2 खास मुद्दे मंडल आयोग की सिफारिशों का लागू करना और राम जन्मभूमि व बाबरी मसजिद विवाद थे. इन चुनावों को ‘मंडलमंदिर’ चुनाव भी कहा गया.

मंडल और राम मंदिर मुद्दे पर देश में एक तरह से दंगे हो गए थे. वोटरों का जाति और धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण किया गया था.

1996 के 11वें लोकसभा चुनावों तक हर्षद मेहता घोटाला, राजनीति के अपराधीकरण पर वोहरा की रिपोर्ट, जैन हवाला कांड और ‘तंदूर कांड’ मामलों ने पीवी नरसिंह राव सरकार की किरकिरी कर दी थी. कांग्रेस ने आर्थिक सुधारों की बात की, तो भारतीय जनता पार्टी ने हिंदुत्व व राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर वोटरों को रिझाया.

साल 1998 में 12वीं लोकसभा के चुनाव हुए. पिछले लोकसभा चुनावों के महज डेढ़ साल बाद. अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने.

कारगिल की लड़ाई भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में सकारात्मक हवा बना रही थी. अटल बिहारी वाजपेयी 13 अक्तूबर को फिर प्रधानमंत्री बने. इस के बाद भारत में ‘फील गुड फैक्टर’ की लहर बनाई गई. ‘भातर उदय’ का नारा जोर पकड़ रहा था.

भारतीय जनता पार्टी को लग रहा था कि वह साल 2004 के लोकसभा चुनावों में दोबारा सत्ता पा लेगी. यह टकराव सीधा अटल बिहारी वाजपेयी और सोनिया गांधी के बीच था. वैसे, जनता अपने आसपास के मुद्दों जैसे पानी की कमी, सूखे वगैरह के बारे में ज्यादा चिंतित दिख रही थी.

कांग्रेस ने अपने सहयोगी दलों की मदद और सोनिया गांधी के मार्गदर्शन में 543 में से 335 सदस्यों का बहुमत हासिल किया. चुनाव के बाद इस गठबंधन को संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का नाम दिया गया. सोनिया गांधी ने खुद प्रधानमंत्री बनना स्वीकार नहीं किया और वित्त मंत्री रह चुके डाक्टर मनमोहन सिंह को यह जिम्मेदारी दी गई.

साल 2009 में 15वीं लोकसभा के हुए चुनावों में कांग्रेस की अगुआई वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को दोबारा सरकार बनाने का मौका मिला. डाक्टर मनमोहन सिंह दोबारा प्रधानमंत्री बने.

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने आपसी विरोधों के बावजूद नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का चेहरा बना कर चुनाव लड़ने की ठानी. उस ने कांग्रेस के राज में हुए भ्रष्टाचार को सब से बड़ा मुद्दा बनाया. ‘अच्छे दिन आएंगे’ का नारा दिया.

भारतीय जनता पार्टी की यह रणनीति काम कर गई. 330 सीटों के साथ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सब से बड़ा घटक और 282 सीटों के साथ भारतीय जनता पार्टी सब से बड़ी पार्टी बन कर उभरी. इस सरकार के पिछले 3 सालों के काम और फैसले सब के सामने हैं.

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