भारतीय समाज में यह आम धारणा है कि जिस व्यक्ति के पास अधिक धन, संपदा या संपत्ति हो या जिस व्यक्ति के पास बड़ा पद हो वही बड़ा व्यक्ति है, वही प्रतिष्ठित है. यदि किसी व्यक्ति के पास धन, संपदा या बड़ा पद नहीं है तो समाज में उसे प्रतिष्ठा की दृष्टि से नहीं देखा जाता. किसी के मन की संवेदनाएं, मानवतावादी दृष्टिकोण, बृहद हृदय या मन, किसी भी व्यक्ति को वांछित सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. मन में यह प्रश्न बारबार कौंधता है कि क्या बड़ा पद या पैसा ही, किसी व्यक्ति को बड़ा कहने के लिए पर्याप्त है? क्या यही किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को आंकने का एकमात्र पैमाना है?

जीवन के 65 पतझड़ झेलने के बाद भी मैं इस सामाजिक मान्यता को तोड़ने का प्रयास कभी नहीं कर पाया कि पैसा, पद या बड़ा व्यापार, किसी भी व्यक्ति को बड़ा मानने का आधार नहीं है, न हो सकता है. बस, मैं स्वयं भी जीवनभर समाज की इसी विचारधारा के साथ ही बहता चला गया. परंतु अकस्मात हाल में ही घटी 2 छोटीछोटी घटनाओं ने मुझे यह मानने के लिए विवश कर दिया कि पद या पैसा बड़ा होने का आधार नहीं है, बड़ा होने का एकमात्र आधार तो बड़ा मन होता है, वृहद हृदय होता है. यानी व्यक्ति की सोच होती है, व्यक्ति का ज्ञान होता है जो किसी को महान बनाता है. पद या पैसा न होने पर भी व्यक्ति पद व पैसा रखने वाले व्यक्ति से बड़ा हो सकता है.

दोनों घटनाओं को समझने के लिए यह आवश्यक है कि मैं पहले स्वयं के बारे में बता दूं. वास्तव में मैं ने एक न्यायाधीश के रूप में जीवन व्यतीत किया है और न्यायाधीश के कार्यकाल में लगभग 5 वर्ष की अवधि तक उच्च न्यायालय में रजिस्ट्रार जनरल के पद पर भी कार्य किया है. लगभग 31 वर्ष की सेवा के बाद सेवानिवृत्त होने पर फिर नियुक्ति भी हो गई थी और पद की सभी सुविधाएं प्राप्त होती रही थीं. न्यायाधीश का पद समाज में प्रतिष्ठित पद माना जाता है. समाज की इसी मान्यता के आधार पर मैं स्वयं को समाज का प्रतिष्ठित व्यक्ति मानता रहा और इसी भ्रम में जीता रहा. पद की गरिमा के अनुसार मुझे सब सुविधाएं भी प्राप्त रहीं. 3 महीनों की अवधि में मेरे साथ 2 घटनाएं घटित हो गईं जिन से मेरा प्रतिष्ठित होने का मिथ्या भ्रम चूरचूर हो गया.

व्यक्ति कर्म से होता है बड़ा

पहली घटना नैनीताल की है, जहां पर मैं ने अपर जिला न्यायाधीश एवं फिर उच्च न्यायालय में रजिस्ट्रार जनरल के पद पर कार्य किया है और अब फिर नियुक्ति के बाद भी मैं, प्रत्येक माह में 1 सप्ताह के लिए कैंप कोर्ट करने के लिए नैनीताल जाता हूं. सितंबर 2015 में अकस्मात मुझे उच्च न्यायालय के मेरे कार्यकाल में मेरे अनुसेवक का भाई मिला जो नैनीताल नगर के पास ही के गांव का निवासी है व उच्च न्यायालय में कार्यकाल के दौरान वह अपने भाई के साथ कई बार मुझ से मिला भी था. तब वह बेरोजगार था और मुझ से बारबार यही अनुरोध करता था कि वह अत्यंत निर्धन है, मैं उसे कोई कार्य दिला दूं ताकि उस के जीवन का निर्वाह हो सके. परंतु मैं उस की कोई सहायता नहीं कर पाया था.

अब वह संभवतया दैनिक मजदूरी पर कार्यरत है. अनायास ही भेंट होने पर उस ने मेरे पैर छुए और पूछा कि आप कहां ठहरे हो, कैसे हो और फिर कहा, ‘‘मैं आप को कुछ लहसुन देना चाहता हूं जो गांव में मेरे घर के आंगन में पैदा हुआ है.’’ और अगले दिन उस ने लगभग आधा किलो लहसुन मुझे ला कर दे दिया जो मेरे लिए एक बहुत छोटी वस्तु थी. मेरे लिए उस का मूल्य अल्प था परंतु उस ने यह कार्य कर के मुझे यह सोचने को विवश कर दिया कि भले ही वह निर्धन है, भले ही मैं उस के लिए कुछ न कर पाया, तब भी उस ने लहसुन को देने में कृतज्ञता प्रदर्शित की, जो उस के बड़ेपन को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त थी. मेरे पास भले ही कितने साधन हों परंतु मैं ने उस के लिए कभी कुछ नहीं किया. उस ने अपने कर्म से मुझे बता दिया कि निर्धन व साधनहीन हो कर भी कोई व्यक्ति कितना बड़ा हो सकता है.

दूसरी घटना अक्तूबर 2015 में देहरादून में घटित हुई जहां पर मैं आवासित हूं. आवास के पास ही स्थित ‘मानव केंद्र’ नाम का एक विस्तृत आश्रम है जहां मैं सुबह की सैर को जाता हूं. अकसर वहां पर मुझे बृजमोहन नामक एक कर्मचारी मिलता है व बड़े सम्मान के साथ नमस्ते करता है. वह आश्रम में ही रहता है. उस का परिवार उस के साथ नहीं रहता है. वह आश्रम में घास इत्यादि काटने का काम करता है. उस के पास ठीक से पहनने के कपड़े नहीं हैं. चूंकि सर्दी शुरू हो रही थी, सो, मैं ने घर पर बुला कर उसे एक अपना पुराना स्वेटर व 50 रुपए दे दिए. और ऐसा कर के मेरे मन में आया कि संभवतया मैं ने कोई बड़ा काम किया है.

मेरी इस छोटी सी उदारता से तो बृजमोहन एकदम खुश हो गया था परंतु मेरा यह भ्रम बहुत दिनों तक नहीं रह सका. इस घटना के 2 दिन बाद ही सुबह के भ्रमण के समय ही अचानक बृजमोहन ने मुझ से पूछा, ‘‘बाबूजी, क्या आप बाजरे की रोटी खाते हो?’’ मैं ने कहा, ‘‘हां, खाता तो हूं. परंतु यह बात तुम क्यों पूछ रहे हो?’’ तब उस ने बताया कि वह दीपावली पर अपने गांव जाएगा जो रेवाड़ी (हरियाणा) के पास है. वहां पर उस के खेत में बाजरे की फसल होती है. उस में से कुछ आप के लिए लाऊंगा. मैं ने कहा कि ठीक है, लेते आना, परंतु मैं उस का पैसा दूंगा. तब उस ने कहा, ‘‘बाबूजी, बाजरे का पैसा मैं बिलकुल नहीं लूंगा. वह तो मेरे खेत में उत्पन्न होता है.’’

उस की यह बात सुन कर मैं दंग रह गया. वह आश्रम में भोजन करता है. किसी के दिए हुए कपड़े पहनता है. उस के पास धन भी नहीं है तब भी वह मुफ्त में मुझे बाजरा देना चाहता हूं. उस के मन का बड़प्पन देख कर तो मुझे लगा कि मैं स्वयं उस के सामने कितना छोटा हूं कि मैं एक पुराना स्वेटर व 50 रुपए दे कर स्वयं को गौरवान्वित समझ रहा था, जो मेरा भ्रम मात्र था बृजमोहन ने मेरे दिए 50 रुपए के बदले मुझे 500 रुपए का बाजरा लाने का प्रस्ताव कर के मुझे बता दिया कि पद या पैसा बड़ा नहीं, बड़ा तो मन है. बृजमोहन ने मुझे दर्पण दिखा दिया कि सबकुछ होते हुए भी मैं बड़ा नहीं जबकि कुछ नहीं होते हुए भी वह बड़ा है और तब से मैं यह निर्णय नहीं कर पाता कि बड़ा कौन और छोटा कौन.

इन दोनों घटनाओं ने मुझे यह सिखा दिया कि धन, पद या संपदा किसी व्यक्ति को महान नहीं बनाते, बल्कि किसी व्यक्ति की विस्तृत एवं मानवता वाली सोच ही उसे प्रतिष्ठा प्रदान करती है.

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