महासागरों में बहुत छोटेछोटे जीवों से ले कर बहुत बड़े आकार के जीव जैसे व्हेल, शार्क वगैरह पाए जाते हैं. समुद्री मछलियों में बहुत अधिक फर्क पाया जाता है. इन मछलियों को पूरी तरह से विकसित होने में लाखों साल लग गए हैं. महासागरों में ऐसी मछलियां भी पाई जाती हैं, जो अपने वजन के मुताबिक अपना सेक्स बदल लेती हैं. महासागरों की तलहटी पर तमाम तरह की घासें व वन पाए जाते हैं, जिस में घुस कर तमाम जीव दूसरे जीवों का शिकार करते हैं. महासागरों की तलहटी में पाई जाने वाली कोरल रीफ जलीय पर्यावरण को साफ व सही रखने में बड़ी भूमिका निभाती है. हाल ही में हुए शोध से पता चला है कि सनस्क्रीन लोशन में पाए जाने वाले कैमिकल कंपाउंड पराबैगनी फिल्टर का काम करते हैं. जब हम तैरते हैं तो ये कैमिकल पानी में मिल जाते हैं. भले ही हम इस का इस्तेमाल थोड़ी मात्रा में करें, लेकिन यह कोरल को ब्लीच करने का काम करता है. इस से धीरेधीरे इस जंतु (कोरल) की मौत हो जाती है.

समुद्र में 3 जगह पर जीव होते हैं

ऊपरी हिस्से पर : ये पानी के बिना  समुद्र तट पर रहते हैं.

बीच में : ये जीव आधे समय पानी में और आधे समय जमीन पर रहते हैं.

निचले भाग में : ये जीव हमेशा पानी में ही रहते हैं, जैसे केकड़े वगैरह. ये पानी से आक्सीजन लेते हैं. केकड़ा पानी को अपनी आंखों के पास लगे पंप से शरीर में दाखिल करता है. पानी से बाहर होने पर वह पानी को बाहर निकालता है. इस प्रकार वह जिंदा रहता है. व्हेल अपने बच्चों की आवाज महासागरों के अंदर 300 किलोमीटर से भी ज्यादा दूरी से सुन सकती है. यह समुद्र में रहने वाला सब से बड़ा स्तनधारी जीव है. इस की लंबाई 120 फुट तक भी हो सकती है. समुद्र में पाए जाने वाले जीवों की भी एक खाद्य शृंखला (फूड चेन) होती है. आज गैरकानूनी तरीके से मछलियों को पकड़ने का कारोबार बहुत तेजी से चल रहा है, जिस से खाद्य शृंखला को काफी खतरा पैदा हो गया है. रोजाना लाखों गैलन गंदा पानी महासागरों में छोड़ दिया जाता है, जिस से समुद्र में रहने वाले जीवों की बहुत सी प्रजातियां गायब होने के कगार पर पहुंच गई हैं. आज व्हेल व शार्क को बड़े पैमाने पर पकड़ा जा रहा है और इन के पंखों को काट कर इन्हें महासागरों में फेंक दिया जाता है, क्योंकि बाजारों में केवल इन के पंखों की मांग है. पंख कटने के बाद इन की मौत धीरेधीरे और दर्दनाक तरीके से होती है. इसीलिए ये भी आज खत्म होने के कगार पर पहुंच गई हैं. इन सब वजहों से समुद्री माहौल गड़बड़ा गया है और महासागरों में गंभीर बाढ़ व कुदरती आपदाओं का खतरा बढ़ गया है. इस से धरती का वजूद भी खतरे में पड़ गया है.

मैदानी छोटेबड़े जीवों का मामल

पेड़ समुद्री एल्गी से तैयार हुए हैं. पेड़पौधे सूरज की ऊर्जा को कार्बोहाइड्रेट्स में बदल देते हैं जो इन का खाना होता है. मैदानी भागों पर बहुत अधिक जैवविधिता (जीवजंतुओं में फर्क) पाई जाती है. आज धरती कई तरह की समस्याओं से एकसाथ जूझ रही है, उन में से एक खास समस्या है जीवों व वनस्पतियों के वजूद पर मंडराता खतरा. आंकड़ों के मुताबिक 16806 जीवजंतुओं और वनस्पतियों की प्रजातियां गायब होने की कगार पर हैं. हालांकि कनवेशन आफ इंटरनेशनल ट्रेड इनडेवर्ड स्पीसीज’ (साइटिस) संस्था ने जीवजंतुओं और वनस्पतियों की हजारों प्रजातियों को लुप्त होने से बचाया है. इस संस्था के 183 देश सदस्य हैं, लेकिन आज बाघ, हाथी व भालू आदि के वजूद पर खतरा मंडरा रहा है. इन के अलावा और भी कई जीव हैं, जिन्हें बचाने के लिए कुछ नहीं किया जा रहा है. ध्रुवीय भालू और पैंगविन ऐसे ही जीव हैं. इन पर इसलिए खतरा मंडरा रहा है, क्योंकि बर्फ पिघलने के कारण इन के रहने की जगह सिकुड़ती जा रही है. गौरेया, तितली व गिद्ध भी अब मुश्किल से देखने को मिलते हैं. दरअसल मनुष्य के लालच और खुदगर्जी ने तमाम जीवों के वजूद पर खतरा पैदा कर दिया है.

वैज्ञानिकों का मानना है कि गौरेया पक्षी के गायब होने की वजह बाजरे के खेतों में कीटनाशकों का प्रयोग है. चूंकि बाजरे की खेती में कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाता है और उसी दवा से जहरीले होने वाले बाजरे के दानों को गौरेया खाती है, इसलिए उस की प्रजनन की कूवत ही खत्म हो रही है. पानी की खराबी व कमी के कारण साइबेरियान क्रेन जैसा पक्षी भी अब दुर्लभ परिंदों में शामिल हो गया है. दूसरी ओर गिद्ध भी आज गायब होने की कगार पर हैं, जबकि वातावरण को साफ बनाए रखने में गिद्ध का खासा योगदान होता है. गिद्ध एक खास जीव है. भारत में एक समय 8 करोड़ 70 लाख गिद्ध थे, लेकिन आज 99 फीसदी गिद्ध मर चुके हैं. जाहिर है कि इसी वजह से वातावरण पर खराब असर पड़ा है. भारत में हर साल 10 से 20 करोड़ मवेशी मरते हैं, उन को चट करने के लिए गिद्ध ही थे. अब गिद्ध खत्म होने से मरे हुए जानवरों के शरीर सड़ते रहते हैं और उन के अंदर मौजूद बैक्टीरिया व वायरस से भयंकर बीमारियां होती हैं.

इस प्रकार कुदरत का संतुलन बिगड़ गया है. आहार श्रृंखला यानी फूड चेन में हर जीव का अपना एक खास योगदान है. गिद्धों की प्रजाति में भारी कमी की वजह एक दवा डाइग्नासाफिलिक सोडियम है. इस दवा का इंजेक्शन पशुओं को बुखार, सूजन व दर्द आदि होने पर दिया जाता था. जब पशु मरते थे तो गिद्धों द्वारा उन का मांस खाने पर यह दवा उन के शरीर के अंदर चली जाती थी और गुर्दों को नुकसान पहुंचने व डिहाइड्रेशन के कारण गिद्धों की मौत हो जाती थी. गिद्धों को गायब होने से बचाने के लिए उन के प्रजनन केंद्र हरियाणा के पिंजौर और पश्चिम बंगाल के बक्सर में खोले गए हैं. यह कितना दुखद है कि पिछले 5 सालों के दौरान शिकारियों ने करीब 23 सौ बाघों को मौत के घाट उतार दिया. 1 अरब से ज्यादा लोगों की आबादी वाला देश 23 सौ बाघों की जिंदगी नहीं बचा पाया. साल 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर शुरू करते समय देश में 17 सौ बाघ थे. 8वें दशक में इन की तादाद 4 हजार से ऊपर हो गई थी, लेकिन अब हमारे देश में लगभग 14 सौ बाघ ही रह गए हैं. हमें जंगलों को बचाना होगा, क्योंकि अगर जंगल बचेंगे तभी बाघ भी बचेंगे.

मैंग्रोव का पेड़ दक्षिण भारत में बहुत ही अधिक मात्रा में पाया जाता है. यह समुद्र व नहरों आदि के किनारों पर पाया जाता है. दक्षिण भारत में इस के बड़ेबड़े वन पाए जाते हैं. इस पेड़ की जड़ें धरती के ऊपर ऊबड़खाबड़ तरीके से फैली रहती हैं. ये जड़ें पानी के बहाव को कम करने के साथसाथ मिट्टी में नमी को भी काफी मात्रा में बरकरार रखती हैं. दक्षिण भारत में सुनामी नामक भयंकर तबाही मैंग्रोव के जंगलों को काटे जाने की वजह से ही आई थी. अब वक्त ऐसी योजना शुरू करने का है, जिस से पानी और जमीन के तमाम छोटेबड़े जीवों को बचा कर महफूज रखा जा सके. यह सिर्फ सरकार का ही काम नहीं है, बल्कि यह जिम्मेदारी तमाम नागरिकों की भी है. भारत के हर नागरिक को इस जिम्मेदारी को समझना होगा. इस के साथ ही दुनिया के सभी देशों को एकसाथ मिल कर पर्यावरण की इस समस्या पर एकसाथ एकजुट हो कर काम करना होगा और कड़े नियम बनाने होंगे, जिस से कोई सही हल निकले.

– अरुण कुमार, डा. आरएस सेंगर व डा. पूरनचंद

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