उपराष्ट्रपति के संवैधानिक पद को पाने के बाद भी वेंकैया नायडू भारतीय जनता पार्टी का अपना भगवा चोला नहीं उतार पा रहे हैं. वे अब भी उस की कट्टर नीतियों को सही ठहराने का भरसक प्रयास कर रहे हैं. हाल में उन्होंने कहा कि संवैधानिक अभिव्यक्ति के अधिकार पर अंकुश भी लगे हैं और किसी के पास भी असीमित अधिकार नहीं हैं.
कट्टरपंथी पहले केवल धर्म के बारे में कहते थे कि उन के धर्म के बारे में हर किसी को हर बात कहने का हक नहीं है और अब, चूंकि वे सरकार में आ गए हैं, उन का आशय यह है कि धर्म के आदेश पर बनी सरकार की आलोचना करने का अधिकार किसी को नहीं है.
धर्म हो या सरकार, अभिव्यक्ति में चाटुकारिता हो तो इस अधिकार के उपयोग पर कट्टरपंथियों को कोई आपत्ति नहीं होती. अल्लाह, जीसस, राम, कृष्ण, शिव, गोडसे, वाजपेयी, मोदी की तारीफ करनी हो, तो ही अभिव्यक्ति का अधिकार है. इन के बारे में कोई भी कटु सत्य उन्हें स्वीकार नहीं है. तब तो, वे इस बारे में नाराज हो उठते हैं कि सच क्यों बोला गया. खासतौर पर आपत्ति तब होती है जब अपने ही सच बोलते हैं. विरोधी विधर्मी तो बोलेंगे ही पर जब सरकार के अधीन रहने वाले सरकार की पोलपट्टी खोलते हैं तो अभिव्यक्ति की सीमाएं नजर आने लगती हैं.
अभिव्यक्ति के अधिकार ने ही दुनिया की शक्ल बदली है. जब से मुद्रण कला का विकास हुआ है और आम आदमी को अपनी बात रखने का अवसर मिला है तभी से नईनई खोजें हुई हैं. जिन समाजों में पहले भी हस्तलिखित सामग्री या श्रुतियों से विरोध का अवसर था, वहां भी प्रगति हुई है क्योंकि सरकार या समाज के ठेकेदार अपनी मनमानी नहीं थोप पाते थे. जहां राजा या धर्म के दुकानदारों ने अपनी चलाई वहां लूटपाट, निरंकुशता, अत्याचार, निर्ममता भरी रही है.
आज भी जिन देशों में अभिव्यक्ति का अधिकार केवल दिखाने मात्र का है वहां सरकारों की सारी शक्ति विरोधियों को कुचलने में लगी रहती है. उत्तरी कोरिया, रूस, चीन, तुर्की की सेनाएं मजबूत हैं पर चीन के अलावा बाकी सारे देशों की जनता कराह रही है क्योंकि वहां न तो सरकार को और न सरकार समर्थित समाज के नियमों को चुनौती दी जा सकती है.
अभिव्यक्ति के अधिकार का उपयोग कर के ही नरेंद्र मोदी की सरकार बनी है. चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने भ्रष्टाचार के सच्चे झूठे आरोप लगाए थे जिन में आज तक कोई साबित नहीं हो पाया है और जनता से लूटे गए अरबों रुपयों में से कुछ भी वापस जनता के खजाने में नहीं आया है. उन आरोपों पर तब की सरकार अंकुश लगाती तो शायद वह हारती ही नहीं.
उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू से अपेक्षा की जाती है कि वे दलगत संकीर्णता से निकल कर जनता के हित की सोचें. हो सकता है कि उन के मन में राष्ट्रपति बनने की लालसा जाग चुकी है, जिस के लिए वे सरकार की हां में हां मिलाना आवश्यक समझते हैं. पर, जनता चाहेगी कि उपराष्ट्रपति अपने व्यक्तिगत नहीं, जनता के अधिकारों की रक्षा करें, उस की अभिव्यक्ति के अधिकार का दायरा विस्तृत करें, संकुचित नहीं.