रविवार की अलसाई सुबह थी. 9 बज रहे थे, मनसुख लाल उर्फ मन्नू भाई अधखुली आंखें लिए ड्राइंगरूम को पार करते हुए अपने फ्लैट की बालकनी में जा पहुंचे और पूरा मुंह खोल कर एक बड़ी सी उबासी ली. तभी उन की नजर सामने पड़ी. उन का मुंह खुला का खुला रह गया.
दरअसल, मन्नू भाई के सामने के फ्लैट, जो तकरीबन 6 महीने से बंद पड़ा हुआ था, की बालकनी में 40-45 साल की एक खूबसूरत औरत खड़ी थी. गुलाबी रंग का गाउन पहने वह अपने गीले बालों को बारबार तौलिए से पोंछते हुए कपड़े सुखा रही थी.
वह औरत पूरी तरह से बेखबर अपने काम में मगन थी, लेकिन मन्नू भाई पूरी तरह से चौकस, अपनी आंखों को खोल कर नयन सुख लेने में मशगूल थे.
‘चांद का टुकड़ा हमारे घर के सामने और हमें खबर तक नहीं’, मन्नू भाई मन ही मन बुदबुदाए.
‘‘अजी कहां हो, चाय ठंडी हो रही है,’’ तभी उन की पत्नी शशि की तेज आवाज आई.
मन्नू भाई तुरंत संभल गए.
‘‘हां, आया,’’ कह कर उन्होंने मन ही मन सोचा, ‘इसे भी अभी ही आना था.’
फिर से मन्नू भाई ने सामने बालकनी की ओर देखा, पर वहां अब कोई नहीं था.
‘इतनी जल्दी चली गई,’ सोचते हुए बुझे मन से मन्नू भाई अंदर कमरे में आ गए और चाय पीने लगे.
मनसुख लाल उर्फ मन्नू भाई एक सरकारी महकमे में थे. घर में सुंदर, सुशील पत्नी शशि, 2 प्यारे बच्चे, एक मिडिल क्लास खुशहाल परिवार था मन्नू भाई का.
पर ‘मन्नू भाई’ तबीयत से जरा रूमानी थे. या यों कहिए कि आशिकमिजाज. उन की इसी आदत की वजह से वे कालेज में कई बार पिटतेपिटते बचे थे.
औरतों से बात करना उन्हें बड़ा भाता था. दफ्तर में साथ काम करने वाली औरतें भी उन से इसलिए जरा दूर ही रहती थीं. अपनी पत्नी उन्हें ‘घर की मुरगी दाल बराबर’ लगती थी.
मन्नू भाई खाने के भी बड़े शौकीन थे. इसी वजह से ‘तोंद’ बाहर निकल आई थी, जिसे ‘बैल्ट’ के सहारे सही जगह टिकाए रखने की नाकाम कोशिश वे बराबर करते रहते थे.
सिर पर अब चंद ही बाल बचे थे. नएनए शैंपू, तेल और खिजाब के अंधाधुंध इस्तेमाल से खोपड़ी असमय ही चांद की शेप में आ गई थी, फिर भी वे अपनेआप को किसी ‘फन्ने खां’ से कम नहीं समझते थे.
हर जानपहचान वाली औरत को देखते ही मुसकरा कर नमस्कार करना, आगे बढ़ कर उस का हालचाल पूछना उन की दिनचर्या में शामिल था.
आज का रविवार बड़ा खुशनुमा गुजरा. मन्नू भाई ने बच्चों को डांटा नहीं. पत्नी के हाथ के खाने की जी खोल कर तारीफ की. घर वाले हैरान थे कि आज हो क्या रहा है.
असली बात तो मन्नू भाई ही जानते हैं. जब सुबह की इतनी खूबसूरत शुरुआत हो, तो दिन तो अच्छा गुजरना ही था.
सोमवार की सुबह मन्नू भाई तैयार हो कर दफ्तर जाने को निकले, इस से पहले वे 4 चक्कर बालकनी के लगा आए थे. कपड़े जरूर सूख रहे थे, पर वह कहीं नजर नहीं आई. वे मन मसोस कर दफ्तर जाने की तैयारी करने लगे.
‘‘आज आप बारबार बालकनी में क्यों जा रहे हैं? कुछ हुआ है क्या?’’ शशि 2-3 बार सवाल पूछ चुकी थी.
बिना कोई जवाब दिए मन्नू भाई नीचे उतर आए, देखा कि स्कूटर पंचर है. घड़ी की ओर नजर डाली, 9 बज चुके थे. बस से जाने का समय निकल चुका था.
मन्नू भाई ने शशि को फोन मिलाया, ‘‘शशि, कार की चाबी भेज दो. स्कूटर पंचर है.’’
‘‘अच्छा..’’ शशि ने अपनी कामवाली बाई रेणु को चाबी दे कर कहा, ‘‘जा रेणु, नीचे साहब को चाबी दे आ.’’
तभी मन्नू भाई की आंखें खुशी से चमकने लगीं. बाहर गेट पर वह कल वाली ‘पड़ोसन’ खड़ी थी.
आदत के मुताबिक, वे लंबेलंबे डग भरते हुए ठीक उस के सामने जा पहुंचे, ‘‘जी नमस्ते, मैं मन्नू भा… मन्नू…’’ फिर वे संभल कर बोले, ‘‘आप के सामने वाले फ्लैट में रहता हूं. लगता है, आप यहां नई आई हैं.’’
खुले हुए कटे बाल, गोरा रंग… वह चुस्त ड्रैस पहने हुए थी. मन्नू भाई खुशी के मारे कांपने लगे, ‘सिंगल ही है.’
वह बोली, ‘‘हैलो, मैं डौली. जी हां, मैं यहां पर 2-4 दिन पहले ही शिफ्ट हुई हूं.’’
अब तक आंखों से पूरा मुआयना कर चुके मन्नू भाई बोले, ‘‘आप क्या कहीं जा रही हैं. मैं छोड़ देता हूं.’’
‘‘साहब, चाबी…’’ बिना बाई की ओर देखे ही मन्नू भाई ने हाथ बढ़ा कर चाबी ले ली.
बाई मुंह बिचकाते हुए चली गई.
‘‘हां, मार्केट तक जाना है. कोई टैक्सी भी नहीं दिख रही,’’ वह बोली.
‘‘अरे, मैं उसी तरफ जा रहा हूं. आइए चलिए,’’ कार का दरवाजा खोल कर बड़े मीठे लहजे में मन्नू भाई ने कहा.
उस औरत ने घड़ी पर नजर डाली, ‘‘ओके थैंक्स,’’ बोल कर वह आगे वाली सीट पर बैठ गई.
मन्नू भाई का दिल बल्लियों उछलने लगा. अपने चार बालों पर हाथ फेरा, बैल्ट से पैंट को ऊपर खींच कर जीत की मुसकान के साथ वे स्टेयरिंग पर बैठ गए.
रास्ते में उन्होंने सब पता कर लिया. वह औरत डौली किसी बैंक में अफसर थी. मुंबई से वह अभी यहां प्रमोट हो कर आई थी.
इतने में मार्केट आ गया. ‘थैंक्स’ कह कर वह मुसकराते हुए अपने बैंक की तरफ बढ़ गई और मन्नू भाई… वे तो खुशी के मारे पगला गए, उन की उम्मीद से परे डौली लिफ्ट ले कर उन के साथ आई थी. अभी तक कार में उस के परफ्यूम की महक मौजूद थी.
एक गहरी सांस ले कर मन्नू भाई एक रोमांटिक गाना गुनगुनाते हुए अपने दफ्तर की ओर बढ़ गए.
आजकल मन्नू भाई सुबह जल्दी उठ जाते. शशि हैरान थी. धक्के देदे कर उठाने पर भी उठने वाले उन के पति अपनेआप ही सुबह जल्दी उठ जाते और सुबह की चाय वे बालकनी में बैठ कर ही पीते.
शशि के आते ही वे अखबार में मुंह दे कर बैठ जाते और उस के जाते ही आधा अखबार नीचे सरका कर ‘नयन सुख’ लेने में मशगूल हो जाते.
डौली कभी कपड़े सुखाती, कभी चाय पीती, कभी यों ही दिख ही जाती थी. अब तो गाहेबगाहे मन्नू भाई उसे लिफ्ट भी दे दिया करते थे.
जिंदगी में कभी इतनी बहार भी आएगी, यह मन्नू भाई ने सोचा भी न था.
15 दिन मौज से बीते. आज रविवार था. बच्चे जिद कर रहे थे कि आज शाम को घूमने चलेंगे.
खुश होते हुए मन्नू भाई ने वादा किया, ‘‘हां, शाम को पक्का चलेंगे.’’
शाम को वे अपनी पत्नी शशि और दोनों बच्चों को ले कर चौपाटी, जो उन के घर के पास ही ‘मिनी शौपिंग माल’ था, पहुंच गए.
खाने के शौकीन मन्नू भाई सीधे गोलगप्पे की दुकान पर पहुंचे, ‘‘चल भई खिला दे सब को,’’ और्डर मार कर वे गपागप ‘गोलगप्पे’ खाने में जुट गए.
अभी 4-5 ही खाए थे कि देखा सामने से डौली चली आ रही थी.
‘‘हैलो मन्नूजी,’’ उस ने पास आ कर मुसकरा कर बोला.
पत्नी की सवालिया नजरें ताड़ कर मन्नू भाई ने संभल कर बोला, ‘‘जी, नमस्ते.’’
गोलगप्पे वाला तब तक एक और गोलगप्पा मन्नू भाई की ओर बढ़ा कर बोला, ‘‘साहब, यह लो.’’
तभी सामने से एक नौजवान लड़का और एक हैंडसम सा अधेड़ आदमी डौली के पास आ कर खड़े हो गए.
गोलगप्पे वाले से गोलगप्पा ले कर मन्नू भाई ने जैसे ही मुंह में रखा, डौली बोली, ‘‘मन्नूजी, ये हैं मेरे पति और यह मेरा बेटा.’’
इतना सुनते ही गोलगप्पा मन्नू भाई के गले में फंस गया. बड़े जोर का ‘ठसका’ लगा और गोलगप्पे का पानी नाकमुंह से बहने लगा.
पानी तीखा था. आंख, नाक, मुंह सब में जलन होने लगी. वे खांसने लगे. इतनी जोर का झटका लगा कि वे अचानक सदमे में आ गए.
शशि दौड़ कर पानी ले आई और बोली, ‘‘कितनी बार कहा है कि जरा धीरे खाओ, पर सुनते कहां हो…’’
‘‘जी, मैं इन की पत्नी शशि, ‘‘उस ने डौली से कहा.
‘‘आप से मिल कर खुशी हुई,’’ डौली बोली.
‘‘चलो मम्मी…’’ डौली का बेटा बोला.
‘‘चलो डार्लिंग.’’
डौली ने एक हाथ से बेटे का, दूसरे हाथ से पति का हाथ थामा और बोली, ‘‘बाय मन्नूजी, अपना ध्यान रखना.’’
‘‘कौन थी ये? ये आप को कैसे जानती है?’’ मन्नू भाई की पत्नी शशि सवालों के गोले दाग रही थी और वे सिर झुकाए चुपचाप खड़े डौली को जाते हुए देख रहे थे.
कितना बड़ा सदमा पहुंचा था उन्हें, सिर्फ और सिर्फ उन का मन ही जानता था. क्या समझा था उन्होंने डौली को और वह… क्या निकली, उन के प्यार का फूल खिलने से पहले ही मुरझा गया.
रास्तेभर मन्नू भाई चुप रहे. दूसरे दिन सवेरे फिर शशि ने धक्के देदे कर उठाया, ‘‘दफ्तर नहीं जाना क्या?’’ वह फिर हैरान थी. उस की समझ में कुछ नहीं आया.
मन्नू भाई थकहार कर बिस्तर से उठ ही गए, तैयार हो कर स्कूटर की चाबी ले कर जाने लगे.
शशि बोली, ‘‘आज कार नहीं ले जाओगे क्या?’’
वीरान आंखों से मन्नू भाई ने बालकनी की ओर देखा. शीशे का दरवाजा बंद था, फिर मुंह लटका कर चल दिए.
वे शशि को कैसे बताते कि उन्हें कितना बड़ा सदमा लगा है. अब न जाने कितने दिन लगेंगे उन्हें इस सदमे से बाहर आने में.