इनसान भूख से बेचैन हो कर कुछ भी कर सकता है. हालात तब और?भी खराब हो जाते हैं, जब परिवार का पालन करना हो और बुनियादी सहूलियतें भी न हों. कामधंधे के लिए लोग भूखे पेट गांव से निकल कर शहर पहुंचते हैं, लेकिन चोरीचकारी के डर से कोई दिहाड़ी मजदूरी पर भी नहीं लगाता. तकरीबन 8-10 साल पहले ऐसे ही हालात थे राजस्थान के सिरोही जिले के आबूरोड व पिंडवाडा में अरावली इलाके के भील व गरासिया समुदाय के लोगों के. लेकिन अब ये अरावलीपुत्र मेहनतकश बन चुके हैं और नकदी फसल की खेतीबारी कर के खुशहाली से जीवन गुजार रहे हैं. भील व गरासिया परिवारों के जीवन में यह बहार किसी तरह की सरकारी खैरात से नहीं आई है. यह मुमकिन हुआ है, जिले के सौंफ उत्पादक किसानों की कोशिशों से, जिन्होंने न केवल इन परिवारों को कामधंधा दिया, बल्कि उन्नत तरीके से सौंफ की खेती कर के पैसा कमाना भी सिखाया.
गौरतलब है कि एकडेढ़ दशक पहले तक सिरोही जिले का सौंफ उत्पादन में नामोनिशान भी नहीं था, लेकिन किसानों की मेहनत ने अब अमेरिका तक आबू व सिरोही की सौंफ के चर्चे कर दिए हैं. गुजरात की उंझा मंडी भी आबू की सौंफ से महकती है. सौंफ की महक को अमेरिका तक पहुंचाने में यहां के आम किसानों के साथसाथ भील व गरासिया समुदाय के लोगों की मेहनत भी जुड़ी हुई है. इस समुदाय के लोगों ने बड़े किसानों के खेतों पर दिहाड़ी मजदूरी करते हुए उन्नत तरीके से सौंफ उत्पादन का तरीका सीखा. इस के बाद इन लोगों ने अपनी 1-1, 2-2 बीघे छोटी जमीनों पर सौंफ की खेती शुरू की. यह इसी का नतीजा है कि आबूरोड व पिंडवाडा इलाके में सौंफ उत्पादन का रकबा लगातार बढ़ रहा है. सिरोही के पिंडवाडा व आबूरोड इलाके में 5.5 हजार हेक्टेयर रकबे में सौंफ का उत्पादन होता है. इलाके के खेतों में सौंफ का उत्पादन प्रति हेक्टेयर 25 से 30 क्विंटल हो रहा है. इतना ही नहीं, सौंफ उत्पादन के बाद मिली रकम से आई खुशहाली का ही नतीजा है कि अब भील व गरासिया परिवारों के बच्चे भी पढ़ने के लिए स्कूल जाने लगे हैं.
ऐसे आया बदलाव
तकरीबन 8-10 साल पहले किसानों ने सौंफ उत्पादन लेना शुरू किया. इशाक अली, गुलाम अली, सुलतान, नरेंद्र व बदरी वगैरह ऐसे किसान हैं, जिन्होंने सौंफ की खेती को जिले में बढ़ावा देने का काम किया. किसान इसाक बताते हैं कि शुरूशुरू में सौंफ की खेती करने के लिए कोई तैयार नहीं था. बंजर व पथरीली जमीन की वजह से लोग सिंचाई वाली फसलें करने को तैयार नहीं थे. लेकिन जो लोग पथरीली व बंजर भूमि में गुजरात से सौंफ के उत्पादन का काम सीख कर आए थे, उन्होंने सब को खेती में बदलाव लाने के बारे में बताया. इन लोगों की मदद से यहां के लोगों ने सौंफ की खेती करना सीखा. वे सौंफ के पौधों को पहले नर्सरी में तैयार करते हैं. फिर इस के बाद इन को 1 से डेढ़ फुट की दूरी पर रोप देते हैं. इस के बाद बूंदबूंद सिंचाई तकनीक से पौधों को सींचा जाता है.
दिलचस्प बात तो यह रही है कि बड़े किसानों के यहां दिहाड़ी मजदूरी का काम करने वाले भील व गरासिया परिवारों के लोगों ने भी सौंफ उत्पादन के काम को सीखा और अपने छोटेछोटे खेतों में सौंफ उपजाने लगे. सौंफ की रोपाई से ले कर कटाई तक भील व गरासिया परिवारों के लोग इस काम से जुड़े रहते हैं. इन्हें हर रोज 2-2 सौ रुपए दिहाड़ी मजदूरीके मिल जाते हैं. बाकी बचे समय में वे अपने खुद के खेतों में काम करते हैं.
पहले ये थे हालात
एक दशक पहले तक इलाके के भील व गरासिया परिवार के लोग चोरीचकारी कर के अपना व परिवार का पेट पालते थे. इन को इलाके में चोरों की कौम के नाम से जाना जाता था. एक समय तो इन की हालत ऐसी हो गई थी कि सिरोही व आबू शहर में इन्हें कोई रोजगार देने को तैयार नहीं होता था. ज्यादातर भील व गरासिया परिवारों की यही हालत थी. बाद में इलाके के लोग इन्हें दिहाड़ी मजदूरी पर अपने खेतों में काम पर रखने लगे. कई लोगों को तो जंगली जानवरों से फसल की हिफाजत के लिए भी रखा जाने लगा. धीरेधीरे मेहनत के बूते पर इन्होंने संपन्न किसान परिवारों का भरोसा जीता. अब हालत यह है कि ये परिवार चोरीचकारी के काम को पूरी तरह से छोड़ चुके हैं और इन्हें अब शराफत की नजरों से देखा जाने लगा है. –