कैसी फैली रोशनाई है
कि आज
मुसकान ही हाशिए पर आई है
ये कैसी
जीवन की आपाधापी
सूरतें मुरझाई हैं
न तो इस के दाम बढ़े हैं
जमाखोरों की करतूत
भी देती नहीं दिखाई है
न हो रही इस की अल्प पूर्ति
फिर क्यों लुप्तप्राय हो आई है
बैठ तरु तल
सोचो एक पल
बदल रहा जमाना है
ठहाके लगा के जोर से हंस लो
यही अनमोल खजाना है
पलीते लगी बस एक चिंगारी
खिला देगी
अनार-बम सी
मुसकान तुम्हारी
छोटी सी मुसकान ही तो
जीवन की धुरी.
– प्रतिमा प्रधान
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