ब्रैंड एंबैसेडर

हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के पास कितनी संपत्ति है, इस का ठीकठाक आंकड़ा आने में वक्त लगेगा पर बीती 26 सितंबर को उन की बेटी के विवाह के दिन सुबहसुबह सीबीआई ने उन के घर सहित 11 ठिकानों पर छापामार कार्यवाही की तो यह भी पता चला कि उन्होंने 6.1 करोड़ रुपए जीवन बीमा पौलिसियों में लगा रखे हैं. यह राजनीतिक द्वेष हो या वाकई वीरभद्र ने गोलमाल किया है, इस का निबटारा सीबीआई दूसरे सैकड़ों मामलों की तरह सालों तक करती रहेगी पर इस से उजागर यह हुआ कि पैसा कालासफेद, नीलापीला जैसा भी हो, जीवन बीमा पौलिसियों में जरूर लगाया जाता है और लगाने वाला जागरूक होता है. वह चाहता है कि देश का पैसा देश में ही रहे. ऐसे लोगों को तो जीवन बीमा निगम को पुरस्कृत करना चाहिए जो करोड़ों की पौलिसियां लेते हैं. इस से उस का निशुल्क प्रचार भी होगा. दूसरी अहम बात यह है कि कोई भी कानून या अदालत निवेश किए पैसे को नाजायज मान कर पौलिसी को रद्द नहीं कर सकती.

दामादवाद

यूपी, बिहार की राजनीति में जिन लोहियावादी नेताओं ने दबदबा बना रखा है. शरद यादव उन में से एक हैं जिन के उत्थान के बारे में लोग कम ही जानते हैं. राजनीति की प्रयोगशाला में जयप्रकाश नारायण ने उन पर पहला प्रयोग किया था जब मध्य प्रदेश की जबलपुर सीट से उन्हें संयुक्त विपक्ष का प्रत्याशी बनाया गया था. तब युवा शरद यादव कांग्रेस को पछाड़ कर जीते तो पीछे मुड़ कर देखने की नौबत नहीं आई. जनता पार्टी के टुकड़े हजार हुए, कुछ इधर गिरे कुछ उधर गिरे की तर्ज पर शरद यादव कब मध्य प्रदेश छोड़ कर बिहार के जा हुए, किसी को पता ही नहीं चला. अब बूढ़े हो चले शरद यादव ने अपने दामाद राजकमल राव को राजनीतिक उत्तराधिकारी बना दिया है. राजकमल बिहार विधानसभा चुनाव में जदयू के प्रमुख प्रचारक हैं. उन की इकलौती योग्यता शरद यादव का दामाद होना है. नतीजे कुछ भी आएं लेकिन बिहार का यह चुनाव दामादों की वजह से भी याद किया जाएगा. रामविलास पासवान अपने दामाद की नाराजगी से परेशान हैं तो शरद यादव अपने दामाद की ताजपोशी से खुश हैं.

राग भावुक

सार्वजनिक रूप से भावुकता व्यक्त कर खुद को महान दिखाने का सिलसिला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कायम रखा है. 27 सितंबर को वे कैलिफोर्निया में गला भर जाने की हद तक भावुक हुए तो मानने वालों ने मान लिया कि भावुकता से बड़ी कोई तकनीक नहीं पर कुछ लोगों ने यह भी सोचा कि अब इस हीनता से मोदी को उबर जाना चाहिए. गरीबी और अभावों का राग अलापने के लिए अपने देश में भी स्टेज और संभावनाएं हैं. भावुकता की हदें नहीं होतीं. आदमी चाहे तो बेवजह भी भावुक हो कर सहानुभूति बटोर सकता है, फिर नरेंद्र्र मोदी तो काफी कुछ सौगातें बटोर लाए हैं. उन की विदेश यात्राओं पर करोड़ों रुपए जनता का फुंकता है, इस पर लोग एतराज भी जताने लगे हैं कि विदेश जा कर अपनी जीवनी और संघर्षगाथा सुनाना बंद करो.

आडवाणी की मनोदशा

बिहार विधानसभा चुनाव कुरुक्षेत्र नहीं है, यह साबित करने को इतना ही काफी है कि भाजपा के स्टार प्रचारकों की सूची में लालकृष्ण आडवाणी शामिल नहीं हैं. आजकल आडवाणी हैं कहां, हर किसी को नहीं मालूम. उन की हालत उस उपेक्षित बुजुर्ग जैसी कर दी गई है जो घर के कोने में पड़ा अपनी खांसी को यथासंभव काबू करने की कोशिश करता रहता है. आडवाणी क्यों इस दृश्य में नहीं हैं, यह सवाल अब धार खोता जा रहा है. लेकिन इस का जवाब यह है कि नरेंद्र मोदी खतरों और जोखिमों को खुद से दूर रखते हैं और वे बूढ़े भाजपाइयों की अनुपयोगिता सिद्ध कर रहे हैं. रही बात आडवाणी की मनोदशा की, तो तय है कि उसे वे आज नहीं तो कल कभी भी व्यक्त करेंगे ही.    

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