एक तरफ हम चांद तक पहुंचने का दावा कर कभी मंगलयान तो कभी रौकेट, मिसाइल की बातें कर खुद को तकनीकी व विज्ञान के मोरचे पर समृद्ध होने का डंका पीटते हैं तो दूसरी ओर जब वाट्सऐप और सोशल मीडिया पर श्राद्ध से ठीक एक दिन पहले धर्म, पूजापाठ और श्राद्ध से जुड़े रीतिरिवाजों का बखान देखते हैं तो वापस उसी पिछड़े, पुरातनकाल में लौट जाते हैं. उस काल में हम असभ्यता व धार्मिक कुरीतियों के जाल में उलझे थे. आम युवाओं के हाथ में तकनीक इसलिए नहीं है कि वे पोंगापंथ व धार्मिक रिवाजों का ब्रह्मज्ञान सुनें और उसे सोशल मीडिया पर प्रसारित करें. तकनीक तो आगे बढ़ने का औजार है. कुछ लोग इस से अंधविश्वास फैला रहे हैं. तकनीक के सहारे वाट्सऐप या फेसबुक इस्तेमाल करने वाले धार्मिक कर्मकांडों से अछूते तबके को धार्मिक अंधता में धकेल रहे हैं और वे इतने सफल हैं कि प्रबुद्ध, सफल भी इसे फौरवर्ड कर डालते हैं और स्वयं को धन्य समझते हैं.
धार्मिक कैंपेन को वाट्सऐप पर इस तरह प्रसारित किया जाता है कि अगर इसे आगे 100 लोगों को फौरवर्ड नहीं किया गया तो अशुभ होगा. तकनीक का इस से ज्यादा दुरुपयोग भला और कैसे हो सकता है? श्राद्ध एक कर्मकांड है. दरअसल, पंडों ने सालभर में अपनी आय का जरिया तय करने के लिए ही तमाम तरह के कर्मकांडों का विधान किया है. पंडों ने हरेक कर्मकांड के पीछे इस बात पर अधिक जोर दिया है कि अगर यह या वह न किया गया तो किस तरह अनिष्ट होगा. इसी ‘अनिष्ट’ का भय दिखा कर सब को कर्मकांडी बना दिया गया है. इस के अलावा वृद्धि श्राद्ध का भी विधान चालू कर दिया है ब्राह्मणों ने. यह श्राद्ध विवाह या उपनयन के पहले पितरों के आशीर्वाद के नाम पर कराया जाता है. इस के बाद मृतक के नाम पर ब्राह्मणों ने सालाना श्राद्ध सपिंडीकरण श्राद्ध का कर्मकांड भी थोप दिया है. यह श्राद्ध विशेष तिथि में व्यक्ति की मृत्यु के लिए कराया जाता है. इस के अलावा पितृपक्ष में पिछली 3 पीढि़यों के पूर्वजों के श्राद्ध का भी विधान रखा गया है. यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि श्राद्ध का मुख्य अर्थ दानदक्षिणा है. यानी पूर्वजों को खुश रखने के नाम पर सालभर श्राद्ध कर के, कामधंधे को चौपट कर के अपने परिवार के लिए भले ही दुख का कारण बनते रहें, लेकिन पितरों के नाम पर ब्राह्मणों का घर जरूर भरते रहें.
भारतीय दर्शन में चार्वाक ऋषि का महत्त्व है. चार्वाक श्राद्ध के खिलाफ थे. पश्चिम बंगाल में कुसंस्कारों के खिलाफ लंबे समय से काम करने वाली भारतीय विज्ञान युक्तिवादी समिति के महासचिव विप्लव दास, चार्वाक का हवाला देते हुए कहते हैं कि सदियों पुराना चार्वाक दर्शन भी श्राद्ध के खिलाफ रहा है. आत्मा के अस्तित्व व आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध जैसे विषयों पर चार्वाक ने सवाल उठाया है. परलोक और पुनर्जन्म के आस्तिक दर्शन को भी नकारते हुए चार्वाक दर्शन कहता है कि –
यदि गच्छेत् परं लोकं
देहादेश विनिर्गत:.
कस्माद् भूयो न चायाति
बन्धु-स्नेह-समाकुल:..
यानी अगर आत्मा का वजूद है और पुनर्जन्म वाकई होता है तो मरने के बाद शरीर से निकल परलोक गई आत्मा अपने भाईबंधुओं को रोताबिलखता देख कर भी वापस क्यों नहीं लौट आती.
मृतानामपि जन्तूना
श्राद्धं चेतृप्तिकारणम्.
निर्वाणस्य प्रदीपस्य
स्नेह: संवर्धयेच्छिखाम्..
यानी अगर मरने वालों की तृप्ति श्राद्ध से वाकई होती है तो यह वैसी ही बात है जैसे बुझे दीपक में तेल डाल भर देने से बिना आग का स्पर्श पाए दिए की लौ फिर से जल उठेगी.
गच्छतामिह जंतुनाम
व्यर्थम् पाथेयकल्पनम्
गेहस्थकृतश्राद्धेण
पथि तृप्तितरवारिता…
यानी जो यह पृथ्वी छोड़ कर चला गया, उस के लिए पिंडदान करने का कोई अर्थ नहीं है. अगर कोई घर छोड़ कर चला गया तो उस के नाम पर पिंडदान करने से उस की भूख मिट जाएगी? बहरहाल, चार्वाक की भौतिकवादी तार्किक सोच का उन के समसामयिक ब्राह्मणों द्वारा विरोध भी होता रहा है. माना जाता है कि चार्वाक को पीटपीट कर मार डाला गया. कह सकते हैं कि चार्वाक का समय आज भी मौजूद है जब तर्क को छोड़ कर लोग वाट्सऐप, फेसबुक पर अपने अंधविश्वासों व मूर्खता का प्रदर्शन करने में उत्सुक रहते हैं.
कुत्तेकौए का मान
कुत्ता और कौए जैसे जीवों का हम सालभर तिरस्कार करते हैं, लेकिन पितृपक्ष के दौरान उन्हें बड़ा मान दिया जाता है. श्राद्ध पक्ष में कौओं की विशेष पूछ होती है. ऐसा क्यों? कोलकाता में काली मंदिर के एक पुजारी हलचलजी कहते हैं कि हमारे हिंदू धर्म में कौआ यम का प्रतीक माना जाता है, जो शुभअशुभ का संकेत बताता है. इसी तरह आइरिश लोग कौए को युद्ध और मृत्यु की देवी मानते हैं. बहरहाल, हिंदू मान्यता के अनुसार, इस संसार में 84 लाख योनियां होती हैं लेकिन माना जाता है कि मर कर व्यक्ति सब से पहले कौए के रूप में जन्म लेता है इसीलिए कौए को श्राद्ध का एक अंश दिया जाता है. ब्राह्मणों का विधान है कि पितरों का आशीर्वाद प्राप्त करने और किसी तरह के अनिष्ट से बचते हुए कल्याण की कामना के लिए श्राद्ध में कौए को खिलाना जरूरी है. उसी के पेट की जूठन पितरों को जाएगी.
हलचल शास्त्रों का हवाला देते हुए कहते हैं, ‘‘पितृपक्ष के दौरान स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं और पितर कौए के रूप में धरती पर आते हैं. कौआ अगर थोड़ा सा भी अन्न खा ले तो वह सीधे पितरों तक पहुंचता है. पितरों का तर्पण तब तक अधूरा है जब तक कि ‘कागभुशुंडी’ अन्न को मुंह न लगा ले. इसीलिए कौए को भोजन कराना शुभ माना जाता है.’’ हलचल आगे कहते हैं कि ज्योतिष में कुत्ते को केतु का प्रतीक माना गया है. कुत्ते की सेवा करने से केतु का अशुभ प्रभाव नष्ट होता है. वहीं, हिंदू पुराण में कुत्ते को यमराज का पशु और भैरव का सेवक माना गया है. इसीलिए मान्यता है कि कुत्ते को भोजन कराने से भैरव खुश होते हैं और तमाम आकस्मिक संकटों से वे भक्तों की रक्षा करते हैं. मान्यता यह भी है कि कुत्ता भविष्य में होने वाली घटनाओं व सूक्ष्म जगत की आत्माओं को देखने की क्षमता रखता है. कुत्ते को प्रसन्न रखने से वह यमदूत को पास फटकने नहीं देता है. इसीलिए श्राद्ध में कुत्तों को खिलाने की मान्यता है. हलचल यह भी कहते हैं कि ग्रंथों की एक मान्यता की कहें तो इसे अपवित्र माना गया है. इस के स्पर्श से भोजन अपवित्र हो जाता है. कहते तो यह भी हैं कि कुत्ते को देख आत्माएं दूर चली जाती हैं. ऐसे में श्राद्ध में कुत्तों को खिलाने पर सवाल उठ ही जाता है. हाल के कुछ सालों में औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, कीटनाशक के छिड़काव के कारण कौओं की बेहद कमी हो गई है. श्राद्धपक्ष के दिन लोग थाली परोस कर सारा कामधंधा छोड़ कर घंटों बैठे कौओं का इंतजार करते हैं, लेकिन कौआ दिखाई नहीं देता. इसलिए इस का भी हल निकाला गया है. कोलकाता के श्यामबाजार में हर रविवार के दिन पेड़पौधों से ले कर चिडि़या, कबूतर, रंगबिरंगी मछलियों व खरगोश का हाट लगता है लेकिन 27 तारीख के दिन श्राद्धपक्ष के मद्देनजर इस हाट में कबूतर बेचने वाले कौए भी बेच रहे थे. देख कर हैरानी हुई कि कौए कब से पालतू हो गए? कबूतर बेचने वाले ने बताया कि श्राद्धपक्ष है न. आजकल कौए दिखते नहीं हैं न. यह सिर्फ इन 15 दिनों के लिए.
साफ है कि कौए की जितनी पूछ श्राद्धपक्ष में होती है उतनी साल में कभी नहीं. श्राद्ध के इन्हीं 15 दिन कौओं की आवभगत होती है. साल के बाकी दिन इन की आवाज सुनना किसी को गवारा नहीं. मुंडेर पर बैठे कौए का कांवकांव करना एक मिथक के तहत अशुभ माना जाता है. कहते हैं कि कौआ यम का दूत होता है. वह सारी जानकारियां यम को पहुंचाता है. प्रमाण के तौर पर शास्त्रों में यहां तक कह दिया गया है कि चूंकि दक्षिण दिशा यम की दिशा है और कौआ दक्षिण दिशा से आता है, इसीलिए कौए का घर के आसपास मंडराना काल या मृत्यु का संकेत माना जाता है. सवाल यह भी उठता है कि हमारे पितरों, जब कभी वे जीवित थे, को कौओं से कोई लगाव नहीं होता है, फिर मरने के बाद वे कौए का ही रूप ले कर धरती पर क्यों आते हैं? कोई और रूप भी तो ले सकते हैं? बहुत तलाशा इस सवाल का जवाब, पर मिल नहीं सका. सदियों से यह परंपरा चली आ रही है, सो सब निभा रहे हैं, आखिर पितरों का सवाल जो है. उन्हें नाराज करना किसी को गवारा नहीं.
युक्तिवादी समिति के विप्लव दास कहते हैं कि जब आत्मा का कोई अस्तित्व ही नहीं है तो उसे खुश करने या उस के नाराज होने का सवाल ही भला कैसे उठता है. उस पर श्राद्ध अपनेआप में बड़ा अमानवीय कर्मकांड है. एक तरफ परिजन के जाने का परिवार इतना बड़ा आघात झेलता है, तो दूसरी ओर इस दौरान उस पूरे परिवार पर इतने सारे कर्मकांड थोप दिए जाते हैं. हमारे देश में गरीबी इतनी है कि साधारण से अंतिम संस्कार तक के लिए कर्ज लेना पड़ता है. उस परिवार पर मृत व्यक्ति के नाम पर आजीवन कर्मकांड का बोझ, यह अमानवीय नहीं तो क्या है? ऐसा भी देखा गया है कि कुछ लोग जीतेजी अपने मातापिता के जीवित रहते उन का अपमान करते रहते हैं, लेकिन उन के चले जाने के बाद बड़ी शिद्दत से सालभर में बताई गई तिथियों में बड़े तामझाम से श्राद्ध करते हैं.
ऐसे में क्या यह अच्छा नहीं होता कि श्रद्धा के नाम पर अपने पुरखों का श्राद्ध करने के बजाय सही माने में उन के आदर्शों को जीवन में उतार कर उन के प्रति श्रद्धा जताई जाती. साथ ही, मृत परिजन के अंतिम संस्कार के तौर पर उस के अंगों का दान कर किसी को जीवन दे कर भी उस के प्रति श्रद्धा जताई जा सकती है और मृत परिजन को दूसरे के शरीर में जीवित भी रखा जा सकता है. दुनियाभर में विभिन्न समुदायों के बीच अपनेअपने धर्म की श्रेष्ठता को ले कर हिंसा की मिसालें हैं. लेकिन सही माने में सर्वश्रेष्ठ धर्म नाम से कोई धर्म नहीं है. सभी धर्म बहुत बड़ा झूठ और बहुत बड़ी बेईमानी हैं. धर्म के तमाम कर्मकांड से बचना ही अच्छा है