मांझी : द माउंटेन मैन
बिहार के दलित परिवार के दशरथ मांझी को शायद बहुत से लोग जानते न होंगे, लेकिन 2007 में मरने से पहले वह जो काम कर गया वह अविस्मरणीय है. उस ने लगातार 22 साल तक एक पहाड़ को काट कर रास्ता बनाया और 360 फुट लंबी सड़क बनाई, जिस से उस के गांव गहलोर से नजदीकी शहर की 50 किलोमीटर की दूरी मात्र 8 किलोमीटर रह गई. उस के मरने के बाद पत्रपत्रिकाओं में उस के बारे में बहुतकुछ छपा. उसे ‘माउंटेन मैन’ कहा गया. उस माउंटेन मैन को पहाड़ काट कर सड़क बनाने की प्रेरणा जीवन में घटी एक दुखद घटना से मिली थी. दशरथ मांझी दलित परिवार का था. गांव का सवर्ण मुखिया उस के परिवार पर जुल्म करता था. दशरथ मांझी के पिता द्वारा कर्ज न चुका पाने के एवज में मुखिया उस के किशोर बेटे को बंधुआ मजदूर बना कर अपने पास रखना चाहता था लेकिन दशरथ उस वक्त वहां से भाग गया था. 7 साल बाद जब वह जैंटलमैन सा बना गांव लौटा तो मुखिया और उस के आदमियों ने उस की इस बात के लिए धुनाई की क्योंकि उस ने उन्हें छू लिया था, जबकि सरकार का आदेश आ चुका था कि कोई सवर्ण या अछूत नहीं है, सब बराबर हैं.
गांव लौटते वक्त दशरथ की मुलाकात फगुनिया (राधिका आप्टे) से हुई थी. अपने घर पहुंच कर दशरथ को मालूम होता है कि उस के पिता ने फगुनिया के साथ ही उस की शादी तय कर रखी है लेकिन फगुनिया का पिता शादी से इनकार कर रहा है तो वह फगुनिया को ले कर भाग जाता है और उस से ब्याह कर लेता है. वह पहाड़ी पर बने खेतों में काम करने लगता है. एक दिन उस की पत्नी फगुनिया उसे खाना देने जा रही थी कि पैर फिसलने से वह पहाड़ी से नीचे गिर गई. दशरथ मांझी उसे ले कर अस्पताल भागा लेकिन पहाड़ी बीच में होने पर उसे लंबी दूरी तय करनी पड़ी. रास्ते में ही फगुनिया की मौत हो गई. डाक्टरों ने गर्भवती फगुनिया की कोख से बच्ची को बचा लिया. अब दशरथ मांझी का एक ही मकसद रह गया, पहाड़ को काट कर रास्ता बनाना. उस ने अकेले ही पहाड़ काटना शुरू कर दिया. 22 साल तक वह पहाड़ काटता रहा. आखिरकार, उस ने पहाड़ काट कर रास्ता बना ही लिया. ‘मांझी’ की यह कहानी प्रेरणादायक है. केतन मेहता ने इस कहानी में दिखाया है कि दशरथ मांझी को अपनी पत्नी के प्रेम से पहाड़ काटने की प्रेरणा मिली. वहीं, उस ने फिल्म में ऊंची जातियों द्वारा दलितों पर जुल्म करते हुए भी दिखाया है. दशरथ मांझी और फगुनिया के बीच निर्देशक ने इतना प्यार दिखाया है कि दशरथ अपनी बीवी के लिए नकली ताजमहल ला कर उसे देता है और वह भी उसे सहेज कर रखती है. फगुनिया के लिए वह पायल खरीदना चाहता है परंतु पैसे पूरे न होने पर एक पैर की पायल ही खरीद कर उसे देता है.
निर्देशक ने 50-60 के दशक के माहौल को फिल्म में दिखाया है. गांव का माहौल, लोगों का रहनसहन, सवर्णों की दबंगई सबकुछ माहौल के अनुसार है. फिल्म की रफ्तार बहुत धीमी है. निर्देशक बौक्स औफिस के फार्मूलों से खुद को बचा नहीं पाया है. उस ने दशरथ मांझी और फगुनिया के प्रेम प्रसंग के सीन कुछ ज्यादा ही डाल दिए हैं, भले ही इन दृश्यों को फ्लैशबैक में दिखाया हो. नायक की नायिका से मुलाकात के दौरान निर्देशक ने कौमेडी का तड़का भी लगाया है. फिल्म के संवाद मजेदार हैं. नवाजुद्दीन सिद्दीकी एक ही संवाद कई बार बोलता है- शानदार, जबरदस्त, जिंदाबाद. उस ने बेहतरीन अभिनय किया है. राधिका आप्टे का अभिनय जानदार है. मुखिया के किरदार में तिग्मांशु धूलिया का काम भी अच्छा है. पंकज त्रिपाठी मुखिया के बेटे के किरदार में सही लगा है. फिल्म में संदेश भी है. आदमी अगर ठान ले तो वह पहाड़ से भी मुकाबला कर सकता है. इंसान को परिस्थितियों से हार कर हाथ पर हाथ रख बैठ नहीं जाना चाहिए, न ही भगवान के भरोसे बैठना चाहिए. हो सकता है भगवान आप के भरोसे बैठा हो. फिल्म का गीतसंगीत साधारण है. छायांकन अच्छा है. फिल्म को नवाजुद्दीन की बढि़या ऐक्ंिटग के लिए देखा जा सकता है. ‘मांझी’ जैसी फिल्म भले ही पुरस्कार पा जाए लेकिन उम्मीद के मुताबिक यह बौक्स औफिस पर भीड़ जुटा नहीं पाई. हालांकि कई राज्यों में इस फिल्म को मनोरंजन कर से मुक्त भी कर दिया गया है.
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ब्रदर्स
बौलीवुड में क्रिकेट, हौकी, मुक्केबाजी आदि खेलों पर तो फिल्में बन चुकी हैं, फाइटिंग पर ब्रदर्स फिल्म को बनाया गया है. फिल्म में फाइटिंग को बारबार मार्शल आर्ट कहा गया है, लेकिन यह विशुद्ध ऐक्शन वाली फाइटिंग ही है. अक्षय कुमार के चाहने वालों को फिल्म निराश करती है. इस बार यह खिलाड़ी नं. वन काफी रफटफ लगा है. वह किसी भी एंगल से बौक्सर नहीं लगता. ‘ब्रदर्स’ में 2 भाइयों की आपसी प्रतिद्वंद्विता है. निर्देशक ने इस आपसी प्रतिद्वंद्विता को विस्तार से न दिखा कर पूरा ध्यान इन दोनों भाइयों की फाइटिंग पर लगाया है. यही वजह है कि फिल्म उबाऊ लगती है. फिल्म की लंबाई ज्यादा है. ‘ब्रदर्स’ हौलीवुड की फिल्म ‘वारियर्स’ की रीमेक है. निर्देशक करन मलहोत्रा इस से पहले 2012 में ‘अग्निपथ’ में काफी खूनखराबा और ऐक्शन दिखा चुके हैं. ‘ब्रदर्स’ में 2 भाइयों के अहंकार की लड़ाई है. गैरी फर्नांडीस (जैकी श्रौफ) अपने जमाने का मशहूर फाइटर है. डेविड (अक्षय कुमार) उस का बड़ा बेटा है. मोंटी (सिद्धार्थ मलहोत्रा) उस का छोटा बेटा है. वह गैरी का सगा बेटा नहीं है, उसे गैरी ने पालपोस कर बड़ा किया है. बड़ा होने पर मोंटी अक्खड़ स्वभाव का बन जाता है. गैरी को अपनी पत्नी की हत्या में जेल जाना पड़ता है. जेल से छूटने पर गैरी मोंटी को फाइटर बनाना चाहता है. उधर गैरी का बड़ा बेटा डेविड एक स्कूल में फिजिक्स का टीचर है. उस की पत्नी जेनी (जैकलीन फर्नांडीस) और किडनी रोग से पीडि़त एक बेटी है. पैसे कमाने के लिए डेविड फाइटिंग करता है. शहर में राइट टू फाइट प्रतियोगिता होती है. प्रतियोगिता में मोंटी और डेविड भी हिस्सा लेते हैं. फाइनल में दोनों भाइयों के बीच टक्कर होती है. जीतने वाले को 9 लाख रुपए मिलने हैं. डेविड मोंटी पर भारी पड़ता है और प्रतियोगिता जीत जाता है, साथ ही, उसे मोंटी के हार जाने पर अफसोस भी होता है.
मध्यांतर से पहले यह फिल्म धीमी गति से चलती है. मध्यांतर के बाद मोंटी का फाइटर बनना और डेविड का बच्चों को पढ़ाना छोड़ कर फाइटिंग रिंग में उतरता देख दर्शकों को अच्छ लगता है. उन दोनों किरदारों को रिंग में उतरने से पहले तमाम तरह की ऐक्सरसाइज करते देख रोमांच महसूस होता है. इस हिस्से में फिल्म की गति काफी तेज रखी गई है. क्लाइमैक्स में क्या होने वाला है, इस का आभास पहले ही हो जाता है. फिल्म का निर्देशन कुछ हद तक अच्छा है. संवाद कहींकहीं अच्छे बन पड़े हैं. इस फिल्म के लिए अक्षय कुमार ने अपना वजन काफी कम किया है जबकि सिद्धार्थ मलहोत्रा ने अपना वजन 10 किलोग्राम बढ़ाया है. उस ने अपना दमखम दिखा कर अपने किरदार में जान डाल दी है. फिल्म का गीतसंगीत जानदार नहीं है. करीना कपूर पर एक सड़कछाप आइटम डांस फिल्माया गया है. करन मलहोत्रा ने पिछली फिल्म ‘अग्निपथ’ में भी ‘चिकनी चमेली….’ आइटम सौंग डाला था. जैक्लीन फर्नांडीस इस बार फ्लौप रही है. उस ने एक सीधीसादी पत्नी की भूमिका की है. फिल्म में ढेर सारे क्लोजअप दिखाए गए हैं. छायांकन ठीकठाक है.
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औल इज वैल
फैमिली थीम पर बनी औल इज वैल फिल्म में पारिवारिक पेचीदगियों को उभारने की कोशिश की गई है और जैनरेशन गैप की बात की गई है. आप कितने अच्छे पेरैंट्स हैं या कितने अच्छे बच्चे हैं, इस पर कई सवाल उठाए गए हैं. यह संदेश फिल्म के द एंड होतेहोते दिया गया है. इस से पहले फिल्म हिचकोले खाती हुई फुस्स हो चुकी होती है. निर्देशक उमेश शुक्ला ने फिल्म में कौमेडी भर कर इसे कौमिक बनाने की भरपूर कोशिश की लेकिन वह सफल नहीं हो सका है. फिल्म की कहानी काफी उलझी हुई है. कहानी है कसौल में रहने वाले इंदर भल्ला (अभिषेक बच्चन) की. उस के पिता भजनलाल भल्ला (ऋषि कपूर) की बेकरी की दुकान है, जो चलतीचलाती नहीं है. एक दिन पिता से नोकझोंक होने पर इंदर घर छोड़ कर बैंकौक चला जाता है और वहां सिंगर बन जाता है. एक दिन उसे कसौल से एक गुंडे चीमा (जीशान अयूब) का फोन आता है कि उसे उस के पिता से 20 लाख रुपए लेने हैं. वह भारत आता है, साथ में उस की प्रेमिका निम्मी (असिन) भी आती है. यहां आ कर उसे पता चलता है कि उस की मां (सुप्रिया पाठक) अल्जाइमर रोग से पीडि़त है और उस के पिता ने उसे एक आश्रम में भरती करा रखा है. उधर निम्मी इंदर से शादी करना चाहती है और उस के परिवार वालों ने उस की शादी किसी और से तय कर दी है. इंदर को इन सभी परेशानियों से छुटकारा पाना है. उस की मामी ने उस की मां के जेवर अपने पास रखे हुए हैं. वह उन जेवरों को हासिल करता है, साथ ही अपने लिखे गीतों की अलबम बेच कर खूब पैसे वसूल करता है और एक खूबसूरत बेकरी बना कर पिता को गिफ्ट करता है. उस की मां की असाध्य बीमारी भी ठीक हो जाती है. यह हैरानी वाली बात है न. वह निम्मी से शादी करने को तैयार हो जाता है. फिल्म की यह कहानी काफी सुस्त है. उमेश शुक्ला ने कारों की भागमभाग को दिखा कर कौमेडी भरने की कोशिश की है. कौमेडी के लिहाज से जीशान अयूब का काम काफी अच्छा है. ऋषि कपूर बहुत लाउड है, वह खूब चीखाचिल्लाया है. अभिषेक बच्चन एकदम सपाट है. सुप्रिया पाठक को तो चुपचाप बिठा दिया गया है. असिन भी साधारण रही है.
फिल्म में पंजाबी माहौल रखा गया है. गाने भी पंजाबी में हैं. निर्देशन कमजोर है. फिल्म का गीतसंगीत भी दमदार नहीं है. एक डांस गीत सोनाक्षी सिन्हा पर फिल्माया गया है, दर्शकों को वह गीत पसंद आएगा. छायांकन अच्छा है.